प्रथम दिल्ली ,राय पिथौरा किला (लाल कोट) : दिल्ली
दिल्ली में रहते लगभग 20 साल यूँ ही गुजर गए !! कल दिल्ली का इतिहास टटोलने की गरज से आधुनिक दिल्ली तक के सफ़र में प्रथम पड़ाव, 1060 में प्रथम निर्मित शहर लालकोट की तरफ प्रस्थान किया, तोमर राजा अनंगपाल ने महरोली के पास प्रथम दिल्ली (लालकोट) बसाई हालाँकि वो शासन सूरजकुंड से चलाते थे, बाद में अजमेर के चौहान राजाओं ने लालकोट पर अधिकार कर दिया और अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने इस शहर का विस्तार कर इसको “ राय पिथौरा” नाम दिया.इसी लालकोट से आधुनिक दिल्ली शहर की कहानी प्रारंभ होती है. पृथ्वीराज की आक्रामकता से मध्य एशिया के दस्यु लुटेरे तुर्क इतने भयभीत थे कि उन्होंने उत्तर पश्चिम सीमाओं में लूटपाट करना बंद कर दिया था. तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने पृथ्वीराज का नाम, भय के पर्याय के रूप में ही “ राय पिथौरा “ उल्लेखित किया हैराय पिथौरा किला अब केवल 2 से 6 मी. चौड़ी जीर्णशीर्ण दीवार के अवशेष के रूप में दिखाई देता है इस 2 किमी. दीवार के सरंक्षण में अब तक 2 करोड़ रुपया व्यय हो चूका है लेकिन शहर के भग्नावशेष दूर दूर तक देखे जा सकते हैं तराईन के प्रथम युद्ध 1191 में पृथ्वीराज के भाई गोविन्दराज के बरछे से घायल मोहम्मद गौरी जब हारकर सेना समेत गजनी वापस भाग रहा था तो पृथ्वीराज की सेना ने 80 मील तक उसका पीछा किया लेकिन घायल गौरी को उसका सैनिक बचा ले जाने में सफल रहा.. काश !! पृथ्वीराज,गजनी तक उसका पीछा कर उसको समाप्त कर देता !! तो 1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में जयचंद व अन्य राजपूत राजाओं द्वारा संयोगिता प्रकरण व दूसरी महत्वाकांक्षा के कारण गौरी का साथ देने से पृथ्वीराज की हार न हुई होती !! जिसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से दिल्ली 1947 तक विदेशियों के हाथों चली गयी !! शक्ति दंभ के कारण अन्य राजपूत राजाओं से दूरी व विलासिता के कारण शासकीय कार्यों में अरुचि के कारण प्रजा में असंतोष भी कहीं न कहीं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पृथ्वीराज के पतन का कारण बनी !!
कहा जाता है दिल्ली 18 बार बसी और उजड़ी , मोहम्मद गौरी, तैमूर लंग, अहमद शाह अब्दाली, नादिर शाह और अंग्रेजों ने दिल्ली को खूब लूटा और कत्लेआम मचाया. अहम्, पारस्परिक ईर्ष्या व महत्वाकांक्षा के चलते ही विदेशियों ने भारत को खूब लूटा. घर के भेदियों ने विदेशियों को अपने अहम्, ईर्ष्या और महत्वाकांक्षा को तृप्त करने के लिए सहयोग किया लेकिन वे अतृप्त ही रहे !! विदेशियों के हाथों उनका भी वही हश्र हुआ. अगली पीढ़ी को जलालत व गुलामी की ज़िन्दगी,अवश्य इनाम में मिली !!
इतिहास हमें अपनी भूलों को सुधारने का अवसर देता है. हमारी सबसे बड़ी कमी यही रही कि हमने सदैव रक्षात्मक युद्ध किया और अपनी सीमाओं को बचाने के लिए ही युद्ध किया.. यदि हमने राष्ट्रहित में ईर्ष्या व बैर भाव त्यागकर आक्रामक रूप में शत्रु की सीमाओं में घुसकर युद्ध किया होता तो शायद विदेशी आक्रान्ता भारत की तरफ नजर उठा कर भी देखने का साहस नहीं कर पाते .
आज बदली परिस्थितियों में भी विदेशी नए सिरे से व रूप में आपसी कलह का फायदा उठाने की हरदम ताक में बैठा है !!.आपसी मुद्दों को हम मिल बैठ कर इमानदारी से बाद में भी सुलझा सकते हैं .. आज गुलामी का स्वरुप बदल चुका है !!. मानवीय गुलामी की जगह आर्थिक गुलामी कई देशों को जकड़ चुकी है.
विद्वत साथियों,
" सीख हम बीते युगों से नए युग का करें स्वागत "
" अब कोई गुलशन न उजड़े .. अब वतन आजाद है। "
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