आजादी के दीवानों का अस्थायी आशियाना
लाल किला बावड़ी
किसी दूसरे से सद्अपेक्षा करना मानवीय गुण है। इसमें मुझे आश्चर्य करने जैसा कुछ भी महसूस नहीं होता ! लेकिन सोचता हूँ ! व्यक्ति का अनुकूल व प्रतिकूल, दोनों ही परिस्थितियों में, स्वयं भी उन सद्अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना, उसे देवत्व के बहुत करीब पहुंचा देता है। यही देवत्व ही व्यक्ति को सर्व स्वीकार्य भी बनाता है ...
लाल किले की बावड़ी का ये कक्ष भारतीय स्वतंत्रता के निर्णायक मोड़, " लाल किला मुकदमे " के दौरान आजाद हिन्द फौज के तीन जाँबाज कमांडरों शाहनवाज, सहगल और ढिल्लों की यादों से सराबोर है।
तुगलक कालीन इस बावड़ी के खुले बरामदे को अस्थायी जेल मे तब्दील कर, आजाद हिन्द फौज के देशभक्त सूरमाओं को इस कक्ष में युद्ध बंदी के तौर पर रखा गया था ।
लाल किले के अन्दर मुकदमे की खुली सुनवाई होती थी और किले के बाहर हजारों लोग गगनभेदी नारे लगाते थे. "लाल किले से आई आवाज .. ढ़िल्लों-सहगल-शाहनवाज"
गौरतलब खास बात ये है कि अलग-अलग मजहबों के इन तीनों रणबांकुरों ने, मजहबी संरक्षण प्रलोभन मिलने के बावजूद भी एक ही धर्म, " राष्ट्र थर्म " को अपनाकर "अनेकता में एकता" को व्यवहारिक रूप में चरितार्थ किया।
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