Saturday 26 September 2015

ग़ालिब की हवेली : दिल्ली



 ग़ालिब की हवेली : दिल्ली


          कहा जाता है जिसने पुरानी दिल्ली की गलियां नहीं देखी, उसने दिल्ली नहीं देखी !! तो इसी जिज्ञासा से मैं इन गलियों से रूबरू होने पहुँच गया बल्लीमारान, चांदनी चौक !! गली कासिम जान की तरफ मुड़ते ही मुग़ल स्थापत्य कला को दर्शाती उस हवेली के विशाल द्वार की ओर मुखातिब हुआ, जो मुगलिया सल्तनत के पतन के दौरान उजड़ते बाज़ार, जमींदोज की जाती हवेलियों और कत्लेआम उपरान्त लाशों के अम्बार की मूक गवाह है.
         दरअसल ये हवेली ‘ ग़ालिब की हवेली´” के नाम से जानी जाती है. 27 दिस. 1796 को जन्मे, उर्दू और फ़ारसी शायरी और ग़ज़ल के अज़ीम शहंशाह मिर्ज़ा ग़ालिब इस हवेली में नौ साल रहे थे और उन्होंने यहाँ उर्दू और फारसी में “ दीवान “ की रचना की थी. हवेली में पहुँचते ही आपको हर कोने से शायरी की खुशबु महसूस होगी. आप उसी काल खंड में खो जायेंगे, किसी शायर के लिए ये हवेली प्रेरणा से भरपूर और जन्नत से कम नहीं यहाँ ग़ालिब साहब द्वारा लिखी पुस्तकें व उनकी हस्तलिखित कवितायेँ भी आप देख सकते हैं.
         मिर्ज़ा साहब का शेरो शायरी पर महारत होने का अहसास व आत्मविश्वास उनके इस शेर में साफ झलकता है.. बहादुर शाह जफर के उस्ताद व समकालीन शायर जौक साहब से उनकी स्वस्थ तकरार व प्रतिस्पर्धा बनी रहती थी।

" हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
       कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-ए बयाँ और "
         अधिकतर संग्रह की गई वस्तुएं उस काल में प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं की अनुकृतियां हैं. ग़ज़ल को प्यार के इज़हार के माध्यम से हटकर दार्शनिक स्वरुप देने वाले व बहादुर शाह जफ़र के दरबारी कवि, ग़ालिब साहब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत राजकीय उपेक्षा के शिकार रहे. 15 फरवरी 1869 को आर्थिक तंगी के दौर से गुज़रते मिर्ज़ा साहब की मृत्यु के बाद इस हवेली में बाज़ार लगने लगा लेकिन 1999 में भारत सरकार ने इस विशाल हवेली के एक भाग को नियंत्रण में लेकर जीर्णोद्धार किया और संरक्षित विरासत घोषित कर दिया.
         यदि आप वाहन से लाल किला पर उतर रहे हैं तो यहाँ पैदल ही पहुँच सकते हैं. मेट्रो से चावडी बाज़ार स्टेशन पर उतर कर यहाँ पहुंचा जा सकता है. सोमवार को अवकाश रहता है शेष दिन, सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है. प्रवेश नि:शुल्क है और फोटोग्राफी वर्जित नहीं है....
  

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