Monday 27 August 2018

सघन देवदार ....

3

3गवाह हैं 
मुलाकात के 
उम्मीद है 
लौटेंगे दिन
फिर यूँ ही बहार के...

जौनसार-बावर के कनासर क्षेत्र में प्रबुद्ध जन सानिध्य में खुशनुमा यादगार लम्हे ..
मेरे दायें से उत्तराखंड से राज्य सभा सांसद आ. श्री प्रदीप टम्टा जी, ख्यातिलब्ध फ्रीलांस छायाकार पत्रकार श्री कमल जोशी जी व लोकसभा दूरदर्शन प्रसारण के संपादक श्री ज्ञानेंद्र पाण्डेय जी. 
इस यादगार समागम के सूत्रधार, " पलायन एक चिंतन " दल के संयोजक श्री रतन सिंह असवाल जी का बहुत-बहुत धन्यवाद ..
छायांकन : श्री जागेश्वर जोशी जी


मां के साथ तस्वीर


 हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अस्सी वर्षीय माँ के साथ तस्वीर 



जिज्ञासा !


जिज्ञासा !

      मुग़ल काल एक ओर जहाँ शाही वैभव के लिए जाना जाता है वहीं इस काल में शाही तख़्त हथियाने की हवश में साजिशें रचकर कई क्रूर अमानवीय वारदातों को अंजाम दिया गया ! वज़ीर गाजीउद्दीन ने मुगल काल के पन्द्रहवें बादशाह अहमद शाह को अँधा करके गद्दी से उतरवा दिया और सोलहवें बादशाह के रूप में आलमगीर द्वितीय को तख़्तनशीं करवा दिया. कहा जाता है कि आलमगीर द्वितीय, वज़ीर गाजीउद्दीन की कठपुतली के रूप में काम करते हुए जब तंग आ गया तो उसने वज़ीर ग़ाजीउद्दीन से मुक्त होने की सोची. इस कारण वज़ीर ग़ाजीउद्दीन ने षढयंत्र के तहत आलमगीर द्वितीय की हत्या करवा दी थी ..
खैर ! अब विषय पर आता हूँ. मैं जिज्ञासावश यहाँ फिरोजशाह कोटला किले में उस निश्चित स्थान को देखने आया था जिस जगह आलमगीर द्वितीय की हत्या को पढ़ा था और इंगित करने वाला विडियो देखा था. थोडा बहुत मशक्कत के बाद स्थान भी मिल गया.
अब आप भी देखिये ! फिलहाल ये कूड़ादान अधिक लग रहा है ! नीचे उतरने के लिए सीढियां नहीं है इसलिए झाँकने पर तहखानों का आभास हो रहा है.
अब आप भी विश्लेषण कीजियेगा, भला ! क्या बादशाह तहखाने में कूदकर प्रवेश किया होगा !! और फिर उसकी हत्या की गयी होगी !!
एक और विरोधाभासी तथ्य देखने में आया ! यहाँ लगे ASI शिलापट्ट में आलमगीर द्वितीय की मृत्यु सन 1761 में उत्कीर्ण की गयी है जबकि सामान्यत: इतिहास में आलमगीर द्वितीय की मृत्यु 29 नवम्बर 1759 बताई गयी है !



अतीत में बावलियों का शहर ; दिल्ली : निज़ामुद्दीन बावली


अतीत में बावलियों का शहर ; दिल्ली : निज़ामुद्दीन बावली 

( मूल रूप से ये आलेख मैंने SBS रेडियो ऑस्ट्रेलिया के लिए लिखा है. सोचा, आपके साथ साझा कर लूँ. )
दिल्ली को अगर अतीत का बावलियों (Step Well) का शहर कहा जाय तो शायद अतिश्योक्ति न होगी. बावलियां एक ओर जहाँ आम जन की प्यास बुझाती थी वहीँ गर्मियों में लोग इन बावलियों में बने कक्षों में ठंडक का अहसास पाकर तेज गर्म लू से राहत पाते थे. बावलियां सामजिक सौहार्द, हाल-समाचार जानने, किस्सागोई और गपशप का सार्वजनिक स्थान हुआ करती थी.
समय ने करवट ली अंधाधुंध अनियोजित शहरीकरण के कारण अधिकतर बावलियों का अस्तित्व मिट गया शेष बची कुछ बावलियां आज भी अपने पुनरुद्धार और संरक्षण की गुहार लगाती जान पड़ती हैं.
ऐतिहासिक हुमायूँ के मकबरे से कुछ दूरी पर निज़ामुद्दीन बस्ती में हजरत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह से कुछ दूरी पर ऐसी ही एक बावली है, निज़ामुद्दीन बावली ! 
पुराने समय में यह इलाका गयासपुर गाँव के नाम से जाना जाता था. दिल्ली के सुलतान गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल (1320-25) में दिल्ली की सबसे बड़े आकार की इस आयताकार बावली का निर्माण सन 1321-22 में, बाइस ख्वाज़ाओं की चौखट कही जाने वाली दिल्ली में सबसे अधिक शोहरत प्राप्त चिश्ती सिलसिले के सूफी संत, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने करवाया था. हज़रत औलिया इसी बावली के जल से वज़ु करने के बाद नमाज अता करते थे. लोक मान्यता के अनुसार बावली के जल को पवित्र व कई बीमारियों से मुक्त करने वाला माना जाता है.
दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक, फकीरी में बादशाही करने वाले हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को नहीं चाहते थे ! जब तुगलक, तुगलकाबाद किला बना रहा था उसी दौरान हज़रत औलिया भी बावली का निर्माण करवा रहे थे. इससे चिढ़कर तुगलक ने शाही फरमान जारी किया कि कोई भी कामगीर किले के निर्माण के अलावा किसी दूसरी जगह काम नहीं करेगा. ऐसा न करने पर उसे दंड दिया जाएगा. लेकिन हजरत साहब के प्रति लोगों में इतनी श्रृद्धा व आस्था थी कि कामगीर दिन में किले में और रात में बावली में काम करने लगे. जब तुगलक को ये पता लगा तो उसने रात में प्रकाश करने हेतु प्रयुक्त किए जाने वाले तेल के दाम बढ़ा दिए. इस पर नाराज हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने तुगलकाबाद किले को लक्षित करते हुए कहा ..
“ या रहे ऊसर या बसे गुज्जर “ (“Either it remains barren or be inhabited by nomads”)
आज भी चारों तरफ उपनगरीय क्षेत्रों से घिरा संत शापित विस्तृत तुगलकाबाद किला वीरान और सुनसान है . यहाँ अगर कुछ दीखता है ! तो वो हैं खंडहर, झाड़ियां और मवेशियों को चराते महज कुछ पशुपालक !! 
कहा जाता है कि हजरत औलिया साहब ने बावली के प्रकाश हेतु पात्रों में तेल के स्थान पर जल का प्रयोग किया. इस तरह बावली का काम निर्बाध जारी रहा. कुछ इतिहासकार बावली का निर्माण चांदनी प्रकाश में बताते हैं. 
लगभग 700 साल से ज़ियारत के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह पर आने वाले हर ज़ायरीन की गवाह, इस बावली के संरक्षण की आवश्यकता तब महसूस की गयी जब जुलाई 2008 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधीन इस ऐतिहासिक बावली की दीवारों से सटे मकानों के सीवर रिसने से बावली की दीवार ढह गयी. इस घटना के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (AKTC) के माध्यम से इस बावली का पुनरुद्धार व संरक्षण कार्य तेजी से किया गया, भारत में पहली बार बावली का लेजर स्कैन, ग्राउंड पेनेट्रेटिंग राडार सर्वे तकनीक से बावली में जल आपूर्ति करने वाली भूमिगत अवरुद्ध जल वाहिकाओं का पता लगाया गया. प्राकृतिक व मानवीय श्रोत से उत्पन्न सात शताब्दियों से जमा मलबे को कठिन मानवीय श्रम द्वारा भूतल से 80 फीट की गहराई तक हटाकर, बावली के आसपास के संकरे रास्तों से निकालने में 8000 मानव कार्य दिवसों का समय लगा. 
बावली की दीवारों से सटकर बनी कई बहुमंजिली इमारतों का कूड़ा करकट, ऊचे स्थानों से बावली में छलांग लगाते तैरते बच्चे, वजु का बावली में गिरता पानी, बावली के जल को प्रदूषित कर रहे हैं. लेकिन बावली के हरे और धूमिल जल के प्रति श्रद्धालुओं की श्रद्धा बरक़रार है.

मोहम्मद बिन तुगलक


इतिहास के पन्नों से ..
दिल्ली सल्तनत के दौरान सल्तनत को महफूज़ रखने तथा सरहदों के विस्तार को लेकर तय नीतियों के मद्देनजर सुल्तानों का अपनी रियाया के प्रति मिजाज तय होता था. 
इसी क्रम में मोहम्मद बिन तुगलक (1325 ई.-1351 ई.) ने भी दिल्ली में हुकूमत कायम की. वह दिल्ली पर हुकूमत करने वाले सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र बुद्धि, धर्म-निरेपक्ष, कला-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था. वह अरबी भाषा एवं फ़ारसी भाषा का विद्धान तथा खगोल, दर्शन, गणित, चिकित्सा, विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि में निपुण था, मोहम्मद बिन तुगलक का हस्तलेख भी बहुत अच्छा था.
सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया. नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार दिल्ली निवासी, बादशाह तुगलक को लिखे अपने खतों में उसे गालियों से नवाज़ते थे ! तो झेलो ! तुगलक को सनक उठी ! मय दिल्ली निवासी राजधानी को दिल्ली से देवगिरी बनाने का फरमान जारी कर दिया !! तुगलक किसी पर विश्वास नहीं करता था।
इन सब बातों से इतर तुगलक के व्यक्तित्व में एक अन्य गुण उल्लेखनीय लगा, वो था.... अपनी असफलता या भूल को बिना किसी बादशाही अहम् के सहजता से स्वीकार करना और ईमानदारी से सुधारने का प्रयास करना !!
गलतियां करना बेशक मानवीय स्वभाव है ! लेकिन गलतियों को स्वीकार कर सुधार का प्रयास करना ! व्यक्तिव को निखारता है.
हालांकि मोहम्मद बिन तुगलक को इतिहास में विद्वता के लिए कम और अन्तर्विरोधी सनकी स्वभाव के कारण अधिक जाना जाता है



भांड और नक्काल ...



भांड और नक्काल ...

         लोकतंत्र में हम अभिव्यक्ति की आजादी के चलते सरकार के फैसलों के प्रति खुलकर असंतोष या रोष जाहिर कर देते हैं लेकिन मुग़ल बादशाहों की निरंकुशता व क्रूरता के किस्से पढ़कर सोचता हूँ कि उस समय बादशाह के फैसलों के प्रतिकूल कहने का साहस तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक माहौल में हम आज भी न जुटा सकेंगे.
खैर ! अब मूल विषय पर आता हूँ.. आज बदले स्वरुप में भांड और नक्काल शब्दों को नकारात्मक या व्यंग्य रूप में प्रयोग किया जाता है लेकिन मुग़ल काल में भांड और नक्काल तहजीबी हिस्सा हुआ करते थे. ये सच्चाई का आइना दिखाते हुए मनोरंजन के साथ-साथ आम जनता को सम-सामयिक घटनाओं व अव्यवहारिक शासकीय निर्णयों पर चुटीले व्यंग्यों के माध्यम से प्रदर्शन करके हकीकत से भी वाकिफ कर जागरूक किया करते थे. जिसके कारण कभी-कभी शासक वर्ग इसने खफा हो जाता था.इस सम्बन्ध में करेला नाम के भांड का प्रसंग, जिससे खफा होकर मुहम्मद शाह रंगीला ने सभी भांडों को दिल्ली छोड़कर चले जाने का आदेश दे दिया था, सुना चुका हूँ.
बात 1754 ई.की है तब दिल्ली के तख़्त पर आलमगीर द्वितीय (1754-1759), 16 वें मुग़ल बादशाह के रूप में गद्दी नशीं था. आलमगीर द्वितीय बहुत कमजोर व्यक्ति था. प्रशासन का अनुभव न होने के कारण उसमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव था. जिसके कारण वह अपने वज़ीर की कठपुतली बनकर रह गया था.
बादशाह जैसी वेशभूषा पहनकर एक भांड, पुरानी दिल्ली के एक चौराहे पर अपनी मंडली के दरबारी बने साथियों के साथ नाटक करने लगा. दरबारी, बादशाह बने अपने साथी को बादशाह द्वारा लिए गलत निर्णयों के लिए कोसते हुए जोर-जोर से खूब गालियाँ भी दे रहे थे !
इतने में उधर से गुजर रहे एक सैनिक ने जब ये सब देखा तो उसने पूरी मंडली को गिरफ्तार कर बादशाह के सामने भरे दरबार में पेश किया और उनका अपराध सुनाया.
भांड को अपनी जैसी वेशभूषा में देख बादशाह को आश्चर्य हुआ ! बादशाह ने मंडली से ठीक वैसा ही दरबार में करने को कहा जैसा वे चौराहे पर कर रहे थे..
बेशक ! कमजोर ही सही ! लेकिन बादशाह तो बादशाह ही होता है ! भांड मंडली घबरा गयी ! लेकिन बादशाह का नर्म रवैया भांपकर उन्होंने और भी बढ़-चढ़ कर वही नाटक फिर से प्रस्तुत कर दिया.
नाटक देख कर बादशाह खूब हंसा और मंडली को इनाम देकर विदा किया लेकिन दरबारियों की अब शामत आ गयी ! बादशाह ने सभी दरबारियों को ये कहकर खूब लताड़ा कि जिस तरह भांड मंडली ने मुझे सच्चाई से रूबरू करवाया तुमने इस तरह कभी वास्तविकता नहीं बताई ! बस हाँ में हाँ मिलते रहे !. इसके बाद बादशाह स्वयं में सुधार करने में जुट गया. हालांकि बाद में षडयंत्र के तहत मारा गया !
इतिहास, गुजरे ज़माने की घटनाओं, जानकारियों व किस्से-कहानियों का संग्रह मात्र नहीं ! इतिहास हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है... मार्गदर्शन करता है ..



मेटकाफ फॅाली ( Metcalfe Folly)...




मेटकाफ फॅाली ( Metcalfe Folly)... 

          मेहरौली में आकर अधिकांश पर्यटक कुतुब मीनार व उससे लगे स्मारक देख कर संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन कुतुब मीनार के पास ही और भी बहुत कुछ ऐतिहासिक है जो देखने लायक है लेकिन जानकारी के अभाव में आगंतुक उधर का रुख नहीं करते !
         तस्वीर में छतरीनुमा निर्माण, मेटकाफ फॅाली है, जिसे थॉमस मेटकाफ ने ब्रिटिश बाग़-बगीचों की तर्ज पर यहाँ भी एक ऊँचा टीला बनवाकर उस पर बनवाया था. थॉमस मेटकाफ मुग़ल दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के रेजिडेंट (Agent) थे. मुग़ल सल्तनत उनके इशारों पर चलती थी. बहादुर शाह जफर नाम मात्र के बादशाह हुआ करते थे। इसलिए मेटकाफ स्वयं को मुग़ल बादशाह जैसे ठाठ-बाट में रहते हुए दिखाना चाहते थे. मेटकाफ ने मुगलों से महरौली का यह क्षेत्र, मय जो कुछ इस इलाके में था, जैसे मस्जिद, मकबरे नहर मवेशियां आदि, खरीद लिया और इस इलाके को अपने अनुसार संवारना शुरू किया.बहती छोटी नदिया का रास्ता मोड़ कर रिजवे बनवाया,ऊंचे टीले, बोट हाउस, बाग़-बगीचे आदि बनवाये.
मेटकाफ ने अकबर की दाई माँ के बेटे कुली खां के मकबरे को अपने निवास में बदल दिया था.इस कोठी में काम करने वाले भारतीय, सही उच्चारण न कर सकने के कारण मेहरौली के मेटकाफ हाउस को " मटका कोठी " कहा करते थे. मेटकाफ इसे नव विवाहित जोड़ो को हनीमून के लिए किराए पर भी दिया करते थे.
मेटकाफ द्वारा मेहरौली के इस क्षेत्र को अपनी आरामगाह के रूप में चुनने के पीछे भी एक मकसद था. दरअसल तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर, लाल किले से मेहरौली में कुतुब कॅाम्लेक्स के समीप स्थित जफर महल में गर्मियों के मौसम में दो माह व्यतीत करने आते थे साथ ही जहाँनाबाद ( पुरानी दिल्ली ) के साधन सम्पन्न लोग, गर्मियों में मेहरौली आ जाया करते थे, इन पर नजर रखने के लिए मेटकाफ ने इस क्षेत्र को अपनी आरामगाह के रूप में चुना था।
मेटकाफ का सरकारी निवास पुरानी दिल्ली में " मेटकाफ हाउस " हुआ करता था लेकिन कहा जाता है कि मेटकाफ ने अपनी बेटी के साथ अधिकांश समय यहीं दिलखुशा में बिताया. पुरानी दिल्ली के मेटकाफ हाउस में उनकी पत्नी और बेटा रहा करते थे.
      वर्तमान में महरौली के आसपास के गांवों की जमीन पर अनेकों फार्म हाउस बन गए हैं मेटकाफ द्वारा संवर्धित इस क्षेत्र को महरौली का पहला फ़ार्म हाउस भी कहा जा सकता है. यहाँ मेटकाफ छुट्टियों का आनंद लेने आया करते थे. आज सम्पन्न लोगों के फार्म हाउसों तक आम आदमी का पहुंचाना सम्भव नहीं ! लेकिन मेटकाफ के दिलखुशा तक हर कोई बेरोकटोक पहुंच सकता है।
        मेटकाफ ने मेहरौली के इस क्षेत्र को नाम दिया, “ दिलखुशा “, अर्थात Delight Of The Heart. सोचता हूँ ये दिल खुशा न होकर फारसी का शब्द " दिलकुशा " "Heart enticing" रहा होगा .
         वाकई ! दिल्ली की भागम-भाग और कोलाहल भरी ज़िन्दगी से हटकर, स्वनाम "दिलखुशा" को सार्थक करती इस क्षेत्र की सुन्दरता और शातिपूर्ण वातावरण का अहसास कर . दिल खुश हो जाता है.
        1857 में जहां क्रान्तिकारियों द्वारा मेटकाफ के पुरानी दिल्ली स्थित " मेटकाफ हाउस " को बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया गया वहीं " दिल खुशा " को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया. दिल खुशा की सुरक्षा के लिए बहादुर शाह जफर ने सुरक्षा कर्मी भी भेजे थे।



विजयी विजयंत ......



विजयी विजयंत ......

      स्कूली दिनों में वीर अब्दुल हमीद की वीरता की कहानी पढ़ते थे तो उनकी वीरता पर गर्व होता था और मन में देशभक्ति की भावनाएं हिलोरे लेने लगती थी उत्पन्न होता था. पकिस्तान के साथ हुए 1965 के युद्ध में खेमकरन सेक्टर में पाकिस्तान के पैटर्न टैंकों के आग उगलते गोलों के सामने जब भारतीय सैनिकों के हौसले पस्त होने लगे तब वीर हमीद ने बुद्धि व अदम्य साहस के बल बूते अमेरिकी निर्मित युद्ध दानव पैटर्न टैंकों के कमजोर हिस्सों को पैटर्न टैंको के मुकाबले मामूली सी लगने वाली अपनी गन माउंटेड जीप से निशाना बनाना शुरू किया और देखते ही देखते नौ पैटर्न टेंको को जमींदोज करके दुश्मन के खेमे में खलबली मचा दी. दुश्मन उल्टे पाँव भागने को मजबूर हुआ. इस तरह भारतीय सेना के हौसले फिर से बुलंद हो गए. इतने से ही हमीद को संतोष न हुआ ! वे भागते दुश्मन का पीछा करने लगे इसी दौरान दुश्मन द्वारा फेंका गया बम उनकी जीप के पास फटने से वे युद्ध भूमि में जख्मी हो गए और बाद में शहादत को प्राप्त हुए. राष्ट्र द्वारा वीर अब्दुल हमीद की शहादत व वीरता का सम्मान, महावीर चक्र तदुपरांत बाद परम वीर चक्र प्रदान कर किया गया.
रूडकी आया तो सड़क किनारे 1971 के युद्ध में दुश्मन के खेमे में हडकंप मचा देने वाले, स्वदेशी तकनीक से 1965 में निर्मित विजयंत टैंक को देखकर कौतुहल जगा. हालाँकि अब विजयंत टैंक सेना में सेवा से 2008 में हटा दिया गया है लेकिन आज भी विजयंत गर्व से विजयी गाथा को बयाँ करता प्रतीत हो रहा है.
1971 में पकिस्तान से हुए युद्ध में प्राप्त विजय में विजयंत टैंक महत्वपूर्ण योगदान दे चुके हैं.



सैर कर दुनिया की गाफिल फिर ये ....



सैर कर दुनिया की गाफिल फिर ये ......
एक सुहानी शाम उत्तराखंड के दादा साहब फाल्के श्री पाराशर गौड़, उत्तराखंड के धरातलीय सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध " प्लायन एक चिंतन " दल के संयोजक, श्री रतन सिंह असवाल, सेब उत्पादक, श्री गोपाल सिंह रावत व श्री दीपू चौहान महानुभावों के नाम 



चाँशल बुग्याल , हिमाचल प्रदेश


ये शाम मस्तानी ! मद होश किए जाए !!
12303 फीट की ऊंचाई पर चाँशल बुग्याल , हिमाचल प्रदेश में दोस्तों के साथ एक सुहानी शाम 



खेजडली


खेजडली 

      प्रयास रहता है कि इंटरनेट के जरिये मोबाइल.. लेपटॉप मशगूल नयी पीढ़ी, अतीत से रूबरू हो ... उनमें मौके पर जाकर धरातलीय सच्चाई जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो ... साथ ही उनमें अपनी मातृभूमि के प्रति गौरव का भाव जगे ..
कक्षा - 4 के विज्ञान विषय के पाठ्यक्रम में एक पाठ है "अमृता की कहानी " !
कक्षा में बच्चों को यह पाठ पढ़ाते समय इस वृक्ष मित्र बलिदान भूमि को करीब से देखने की जिज्ञासा जागृत हुई !! और बेटे और बेटी के साथ पहुँच गया ..मारवाड़ .. जोधपुर के पास... खेजडली !!
इतिहास में वृक्षों के संरक्षण हेतु किये गए इस आन्दोलन को खेजडली आन्दोलन के नाम से जाना जाता है. इस आन्दोलन को ही प्रथम चिपको आन्दोलन भी माना जाता है .
आन्दोलन के दौरान सन 1730 में अमृता और उसकी तीन बेटियों सहित खेजडली के 363 से अधिक स्थानीय ग्रामीण खेजड़ी वृक्षों से चिपक गए.
वृक्ष रक्षार्थ क्षेत्र के 363 ग्रामीणों ने स्वयं कट कर अपनी जान न्योछावर कर दी और इतिहास में अमर हो गए ..
यहां काफी बड़ा शहीद स्मारक बन रहा है ... विस्तार से फिर कभी ....



मरुभूमि का कल्पतरु .. खेजड़ी


मरुभूमि का कल्पतरु .. खेजड़ी

यात्रा अनुक्रम में जोधपुर, राजस्थान जाना हुआ. दर्शनीय स्थल भ्रमण के साथ-साथ प्रकृति को करीब से देखने की ललक वशात मरुभूमि के “ कल्प तरु “ खेजड़ी वृक्ष को करीब से देखने और उसके महत्व को जानने की विशेष जिज्ञासा थी.
वैज्ञानिक नाम "प्रोसेसिप-सिनेरेरिया" से जाने वाले और 4-9 मीटर तक ऊंचाई तक बढ़ने वाले खेजड़ी वृक्ष को "राजस्थान का सागवान", "रेगिस्तान का गौरव" अथवा " थार का कल्पवृक्ष " भी कहा जाता है। " राजस्थान सरकार द्वारा इस वृक्ष के सरंक्षण व संवर्धन हेतु खेजड़ी को वर्ष 1983 में राज्य वृक्ष घोषित किया गया.
अपेक्षाकृत ऊंचाई में कम तथा इमली व बबूल की तरह पत्तियों वाला कांटेदार खेजड़ी, मरुभूमि के जन-जीवन की जीवन रेखा है. इस वृक्ष के हर भाग का भौतिक उपयोग तो है ही साथ ही धार्मिक कार्यों में अग्निगर्भा व शमी नाम से खेजड़ी की लकड़ी व पत्तियों का हवन इत्यादि में उपयोग किया जाता है.
लवणीय मृदा में तीन मीटर तक गहरी जड़ें भूमि में मृदा अपरदन को रोकती हैं और मरु विस्तार को रोकने में सहायक हैं. वृक्ष की विशेषता यह भी है की जिस खेत में खेजड़ी का वृक्ष होता है वहां फसल अच्छी होती है. इस वृक्ष की दीर्घ जीविता का अनुमान इसी बात से हो जाता है कि वैज्ञानिकों ने खेजड़ी के वृक्ष की कुल आयु 5000 वर्ष मानी है. मांगलियावास गाँव, अजमेर, राजस्थान में खेजड़ी के 1000 वर्ष पुराने 2 वृक्ष भी मिले है.
माना जाता है कि खेजड़ी के पेड़ पर ही अज्ञातवास के अंतिम चरण में पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छिपाए थे. हैं. इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी (खेजड़ी) के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है
जहाँ मैं खड़ा हूँ यह स्मारक स्थान उसी प्रेरक व ऐतिहासिक खेजड़ली गाँव के अंतर्गत है जहाँ खेजड़ी के सरंक्षण हेतु राज्य में सर्वप्रथम रामो जी बिश्नोई की पत्नि अमृतादेवी के द्वारा सन 1730 में बलिदान दिया गया. यह बलिदान भाद्रपद शुक्ल दशमी को जोधुपर के खेजड़ली गाँव के 363 लोगों ने खेजड़ी के कटान को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक कर दिया गया. इस आन्दोलन को ही प्रथम चिपको आन्दोलन माना जाता है इस बलिदान के समय जोधपुर का शासक अभय सिंह था. अभय सिंह के आदेश पर गिरधरदास के द्वारा लोगों 363 (69 महिलाओं व 294 पुरुषों) की हत्या कर दी गई. बिश्नोई सम्प्रदाय द्वारा दिया गया यह बलिदान साका/खडाना कहलाता है. 12 सितम्बर को प्रत्येक वर्ष खेजड़ली दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस आन्दोलन के प्रभाव से आज भी राजस्थान में कई गाँव ऐसे हैं जहाँ के लोग हरे पेड़ नहीं काटते.विश्नोई संप्रदाय के लोगों में वृक्ष मित्र होने के कारण मृतक को दफ़नाने की प्रथा है..
जेठ के महीने में भी हरा-भरा रहने वाला बहु उपयोगी खेजड़ी रेगिस्तान में गर्मियों में जब जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है. इसकी छाल को खांसी, अस्थमा, बलगम, सर्दी व पेट के कीड़े मारने के काम में लाते हैं. इसकी पत्तियां राजस्थान में पशुओं का सर्वश्रेष्ठ चारा हैं.
खेजड़ी का फूल मींझर और फल सांगरी कहलाता है, 14- 18 प्रतिशत प्रोटीन वाली इन फलियों से सब्जी बनाई जाती है. सांगरियों को कच्चा तोड़कर उबालकर सुखा लिया जाता है| सुखी फलियों को सूखे केर व कुमटियों के साथ मिलाकर ताजा कच्ची सांगरी से भी स्वादिष्ट शाही सब्जी बनाई जाती है. फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है. इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है.
सोचता हूँ अन्य वृक्षों की लकड़ियों की अपेक्षा खेजड़ी लकड़ी के उच्च ज्वलन ताप के कारण ही खेजड़ी को शास्त्रों में “ अग्नि गर्भा “ कहा गया होगा ! इस वृक्ष की जड़ से हल बनता है. अकाल सी स्थिति के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे.
बुजुर्गों से बात करने पर ज्ञात हुआ कि गुजरे समय में खेतों में इतने अधिक वृक्ष हुआ करते थे कि खेतों में हल लगाना मुश्किल कार्य था लेकिन आज स्थिति अलग है ! खेजड़ी के पेड़ कहीं-कहीं व दूर-दूर ही दिखाई पड़ते हैं. आज खेजड़ी का रोपण, सरंक्षण व संवर्धन की त्वरित आवश्यकता है नहीं तो मरू भूमि के कल्प तरु, खेजड़ी का लुप्त हो जाना अवश्यम्भावी है.
साथियों, यदि आप राजस्थान भ्रमण के इच्छुक हों तो दर्शनीय स्थान अवलोकन के साथ-साथ स्थानीय पौष्टिक, स्वादिष्ट सांगरी, सूखे केर व कुमटियों से बनी शाही सब्जी का आनंद अवश्य लीजियेगा ..

पंचकुंडा


एकदा...
गार्ड साहब के मिज़ाज में राजपूताना कड़क है !! राज घराने की समाधियों की तस्वीर लेने की मनाही का सख्ती से अनुपालन कर रहे हैं !! मगर उम्मीद है मुझको रियायत मिल ही जायेगी ...
घुमक्कड़ी के क्रम में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब इस तरह के अवरोध, निराशा उत्पन्न करते हैं... लेकिन में सहजता से हार नही मानता !
कविवर श्री सोहनलाल द्विवेदी जी ने कहा है ..
" लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती."
सम्मान, सम भाव, सब्र व शालीनता से ये बाधाएं भी पार हो जाती हैं..


सदानीरा ब्रह्मपुत्र के तीरे ...


सदानीरा ब्रह्मपुत्र के तीरे ...


पुरस्कृत शिक्षक पूर्वोत्तर शैक्षिक भ्रमण 


काफल ..


काफल 

राह चलते चलते....
रंग, स्वाद और रंगत वही उत्तराखंड की ..
मगर उत्तराखंड के काफलों की तुलना में शिलांग के इन काफलों का आकार लगभग 3-4 गुना अधिक है !!


सोहरा (चेरापूंजी)


सोहरा (चेरापूंजी) : " विकास " की ज़द में विश्व प्रसिद्ध वर्षा क्षेत्र....

         हर तरफ गर्मी बरस रही है तो क्यों न आज बादलों के घर, मेघालय में चेरापूंजी क्षेत्र की ठंडी फुहारों का आनंद लिया जाय ..प्रस्तुत यात्रा वृत्तांत 28 पृष्ठीय असम मेघालय यात्रा वृतांत का एक अंश है.
बचपन से सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी का नाम सुनता और पढता आ रहा हूँ. हमें चेरापूंजी, मेघालय पहुँचना था. मन में उत्साह और कौतुहल था. सुबह सुबह शिलॉंग से चेरापूंजी के लिए रवाना हुए. मार्ग में वर्षा होने लगी तो चेरापूंजी आना सार्थक लगने लगा. वर्षा के कारण मार्ग में एलिफैन्टा केव्स जाने का निर्णय वापसी तक के लिए स्थगित करना पड़ा.
सोहरा एक बड़ा क्षेत्र है मार्ग में एक स्थान पर भुट्टों का आनंद तेते हुए हम उमेस्टिउ व्यू पॉइंट (Umestew View Point) सोहरा, पर, प्रकृति का नज़ारा देखने के लिए रुके,
अभी भी बूंदाबांदी चल रही थी. घाटी से काफी ऊँचाई पर स्थित इस व्यू पॉइंट्स से प्रकति का विस्तृत व सुरम्य दृश्यावलोकन किया जा सकता है. अब हमारा अगला पड़ाव दुनिया में सबसे अधिक वर्षा होने वाले क्षेत्र के रूप में लम्बे समय तक दर्ज रहे गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज, चेरापूंजी, सोहरा था. हालाँकि इस समय विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान के रूप में मावसिनराम (Mawsynram), मेघालय, वर्ष में 11,873 मिमी.के कारण जाना जाता है इस स्थान पर स्थानीय उत्पादों के विक्रय हेतु कुछ अस्थाई दुकानें थीं. कुछ आगे पैदल चलकर अब हम एक ऐसे स्थान पर पहुँच कर गर्व महसूस कर रहे थे जहाँ पर एक बोर्ड लगा था और उस पर लिखा था “ SOHRA, The Wettest Place On Earth… Proud to be here “
इस स्थान पर पहुंचकर हमारी ख़ुशी का ठिकाना न था,लेकिन यहाँ लगभग मृदा विहीन पठार और जिरोफिटिक वनस्पति देखकर आश्चर्य हुआ ! क्योंकि मेरे मन-मस्तिष्क में अधिकतम वर्षा वाले क्षेत्र में घने वन और ऊँची-ऊंची हरी भरी घास होने की कल्पना थी. इस कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति और परिस्थितियों को करीब से जानने की जिज्ञासा हुई.
खासी पहाड़ियों, खासी शब्द का अर्थ स्थानीय भाषा में पत्थर (STONE) से है, पर समुद्र तल से 1484 मी. की ऊँचाई पर स्थित और गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जुलाई 1861में 9,300 मिमी. तथा 1 अगस्त 1860 से 31 जुलाई 1861 के बीच 26,461 मिमी. वर्षा के कारण दो रिकॉर्ड दर्ज कराने वाले चेरापूंजी का ऐतिहासिक नाम “सोहरा” है. 1884 में इस कबीलाई क्षेत्र पर अंग्रेजों द्वारा अधिकार के बाद, अंग्रेज “ सोहरा “ शब्द का उच्चारण “चुरा ( Chura )“ करने लगे, कालांतर में यही चुरा क्षेत्र, चेरापूंजी नाम से जाना जाने लगा. अब मेघालय सरकार द्वारा इस स्थान का नाम बदलकर पुन: “ सोहरा “ कर दिया है. खासी पहाड़ियों पर बसा समाज मातृ मूलक समाज है. यहाँ पिता की संपत्ति पर सबसे छोटी बेटी का अधिकार होता है.
बादल, बरसात और सूर्योदय के लिए प्रसिद्ध इस क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा होने के बावजूद भी यहाँ के लोगो को दिसंबर - जनवरी महीनों में पानी का अभाव झेलना पड़ता है. पानी के लिए कई किमी. दूर जाना पड़ता है. जल संकट के हालात यहाँ तक बद्तर हो जाते हैं स्थानीय नागरिकों को पानी प्राप्त करनेके लिए काफी दूर तक जाना होता है हालत यहाँ तक हो जाते हैं कि एक बाल्टी पानी के एवज़ में 6-7 रुपये तक दाम देने होते हैं.
यहाँ आबादी बढ़ने से वन क्षेत्र घटा है जिससे कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ा है. तेज वर्षा के दिनों में ऊपरी उपजाऊ मृदा बह जाती है. जल संकट का मुख्य कारण, वनों का कटान है जिसके कारण विगत 10 वर्षों में यहाँ वन क्षेत्र 40% कम हुआ है. औद्योगिकीकरण, खनन, आबादी का बढ़ना भी वन क्षेत्र, कृषि क्षेत्र व वातावरण को प्रभावित कर रहा है. मृदा अपरदन के लिए इस क्षेत्र में छोटे-छोटे चेक डैम बनाया जाना व वर्षा के समय पहाड़ों से बह जाने वाले पानी के भण्डारण के लिए उचित जल संचयन व्यवस्था होना बहुत आवश्यक है.

कामाख्या देवी मंदिर, गुवाहाटी



कामाख्या देवी मंदिर, गुवाहाटी : तंत्र सिद्धि व मातृ शक्ति का केंद्र ..

         कल समय अधिक हो गया था जिस कारण नवरात्रि पर्व पर श्रृद्धालुओं की भीड़ को देखते हुए गुवाहाटी से लगभग 8 किमी. दूर स्थित कामाख्या देवी दर्शन हेतु आज का दिन तय हुआ. प्रात: 6.30 पर हम कामाख्या पहुँच गए.इस दौरान कामाख्या का स्थानीय बाजार देखने को मिला. दुकानों में स्थानीय हस्त-शिल्प से बनी वस्तुओं की भरमार थी.
मंदिर परिसर में जिस तरफ से हमने प्रवेश किया वहां ज्यादा लम्बी लाइन न थी, दरअसल वह लाइन VIP टिकट खरीदने वालों की लाइन थी. जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ की सामान्य दर्शनार्थियों की लाइन अलग से है और वो काफी लम्बी है. मां कामाख्या दर्शन के बाद हमारा काजीरंगा नेशनल पार्क पहुंचना पूर्व-निर्धारित था इस कारण समयाभाव के कारण हम सभी ने 500 रूपये प्रति सदस्य की दर से VIP टिकट खरीद लीं लेकिन इसके बावजूद भी दर्शन करने में लगभग पांच घंटे का समय लग गया.
इक्यावन शक्ति पीठों में से एक,सर्वोच्च कौमारी तीर्थ और दुनिया में तंत्र सिद्धि के लिए प्रसिद्ध कामाख्या मंदिर के बारे में इससे पहले काफी सुना और पढ़ा था इसलिए करीब से देखने की जिज्ञासा थी. कामाख्या मंदिर, नीलाचल पर्वत पर है. भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन: जीवनदान मिला था. इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है.जन श्रुतियों के अनुसार...
जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ आद्यशक्ति के अम्बूबाची पर्व का “ पूर्व के कुम्भ “ के रूप में महत्व है यह पर्व स्त्री शक्ति और उसकी जनन क्षमता को गौरवान्वित करता है इस दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं.
पूरे भारत में रजस्वला यानी मासिक धर्म को अशुद्ध माना जाता है। लेकिन कामाख्या के मामले में ऐसा नहीं है. हर साल अम्बुबाची मेला के दौरान पास की नदी ब्रह्मपुत्र का पानी का रंग तीन दिन के लिए लाल हो जाता है ऐसी मान्यता है कि पानी का यह लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है। अम्बू बाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट तीन दिन के लिए बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है. इस पर्व में यहाँ पूरे विश्व से तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना व सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटि के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है. तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है. इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं. मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं 
इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय व पूजनीय हैं. ऐसा माना जाता है कि वर्ण जाति का भेदभाव -जाति का भेद करने पर साधक की हैं सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं. तराशे गए बड़े-बड़े शिलाखंडों से बने इस .मंदिर के गर्भ गृह में देवी की कोई तस्‍वीर या मूर्ति नहीं है गर्भगृह में सिर्फ योनि के आकार का पत्थर है. योनि रूप, देवी की महामुद्रा कहलाता है.. मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे एक गुफा में स्थित है
नीलाचल पर्वत पर आठवीं सदी में बना यह मंदिर भी पंद्रहवीं शताब्दी में आक्रान्ताओं के कहर से महफूज़ न रह सका, कालांतर में बिखरे पड़े शिलाखंडों व अवशेषों द्वारा मंदिर का पुनर्निमाण व पुन: पूजा अर्चना प्रारंभ की गई. इतिहासकार इसका श्रेय नर नारायण व चिला राय को देते हैं.. मंदिर में आज भी बलि प्रथा है आज अष्टमी है, देवी को समर्पित करने के लिए काफी बकरे व भैंसे भी बलि देने के लिए बांधे गए हैं. प्रथम बलि दिए जाने वाले भैंसे की कीमत एक लाख रुपये है. इन पशुओं की उम्र हमारे यहाँ बलि दिए जाने वाले पशुओं से काफी कम थी अर्थात ये पूर्ण वयस्क नहीं हैं. यहाँ अष्टमी के दिन कबूतरों की बलि देने की भी परम्परा है . इनके अलावा मछली, लौकी, कद्दू जैसे फल वाली सब्जियां भी बलि के माध्यम से देवी को समर्पित की जाती हैं.

उमानंद


     

                                                    

             क्रूज़ पर सवार होकर ब्रह्मपुत्र नदी की सैर के दौरान अँधेरा हो चुका था इस दौरान, दुनिया में किसी नदी पर सबसे छोटे आवासित टापू “ उमानंद” के दृश्यावलोकन का अवसर मिला. कालिका पुराण के अनुसार शिवजी ने इस टापू को पार्वती के आनंद के क्षणों को व्यतीत करने के लिए बनाया था. कामदेव ने इस स्थान पर तपस्या में लीन शिव का ध्यान भंग करने की कोशिश की इस पर क्रोधित होकर शिवजी ने इसी स्थान पर अपने त्रिनेत्र को खोलकर कामदेव को भस्म भंग कर दिया था. इस टापू पर 1694 में सुपत्फा द्वारा बनाया गया उमानंद मदिर 1897 में भूकंप के कारण ध्वस्त हो गया जिसे बाद में फिर से बनाया गया .



लम्हों ने खता की थी... ...


बैठे ठाले .... ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर 
इलैक्ट्रोनिक मीडिया जब से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यवस्था के गुण गान करने वाला और व्यवस्था के अनुरूप नकारात्मक ख़बरों का भोंपू बन गया तब से मैंने टी वी देखना छोड़ दिया. इनका काम है येन केन प्रकारेण मुनाफा कमाना ! बेशक उनके द्वारा प्रसारित व्यवस्था को पोषित करती ख़बरें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित क्यों न करती हों ! तो भला हम क्यों स्वयं में निगेटिविटी को प्रश्रय दें ! 
आलम ये है कि गप-शप की चौपाल, सोशल मीडिया भी भावुक नागरिकों के माध्यम से इन भोंपुओं की गिरफ्त में आने लगा है. यहाँ भी हर राजनीतिक दल का एक अलग किला नज़र आता है ! जिनमें उनके सैनिकों के साथ वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ आम नागरिक भी खड़ा नज़र आता है ! अलग-अलग राजनीतिक दलों के आई टी सेल उन किलों में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर सामग्री के रूप में असलाह बारूद मुहैय्या करवा रहे हैं. आपसदारी खत्म होती जान पड़ती है ! प्रायः हर कोई एक भोंपू लिए और अपने किले की सुरक्षा में बंदूक ताने खड़ा है !
हर काल में किलों से बाहर सूफी विचारक रहे वे व्यवस्था की आक्रामकता या चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना तथ्यपूर्ण और तर्क संगत दृष्टिकोण से चौपालों में अपनी बात को बेखौप रखते थे. किलेबंदी की मन: स्थिति से हटकर हर कोई उनकी बात को सम्मान दिया जाता था और मनन भी किया जाता था.. इसी तरह के लोगों ने भटके हुए लोगों और समाज को नयी दिशा भी दी .. लेकिन अब देखता हूँ स्थिति उलट है ! अब ऐसे सूफियों को ही संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है ! भटके हुए समाज को दिशा देने वाले लोगों पर ही प्रहार किया जा रहा है . उनका मखौल उड़ाया जा रहा है ! अक्सर कहा जाता है.. “ बी पॉजिटिव “ लेकिन जब केवल नकारात्मक ही परोसा जाय तो साधनों के अभाव से जूझता आम नागरिक कब तक .. बी पॉजिटिव “ पर टिका रह सकता है !.
पहले और अब भी अपने स्वार्थों के चलते विदेशी शक्तियां स्व पोषित दलालों से भड़काऊ बयानबाजी या कार्य करवाकर देश में क्षेत्रीय, धार्मिक, जातीय व भाषाई अफरा तफरी और असुरक्षा का वातावरण बनाने की कोशिश करती थी .. लेकिन मुझे कहने की जरुरत नहीं !! आज उनका काम बहुत आसान हो गया है आज वही काम ............... !! 
आखिर हम किस तरफ जा रहे हैं ? क्या दल गत किलेबंदी के चलते हम उसी युग में तो नहीं पहुँच रहे हैं.. सेना में भी सैनिकों के अलग-अलग चूल्हे हुआ करते थे और विदेशी आक्रान्ताओं ने उसका फायदा उठाया ! येन केन प्रकारेण अपने स्वदेशी राजाओं को हारने के लिए विदेशी बहशियों से समझौते किये ! इन मौका परस्त राजाओं और आम जनता का हश्र क्या हुआ ? इससे हम अनभिज्ञ नहीं !!
राजनीतिक आस्था, व्यक्ति आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रहती हैं ... यदि ऐसा न होता तो एक ही दल की सरकार बनी रहती ! सोचता हूँ धरातल पर हमें एक ही बना रहना चाहिए .. धार्मिक अन्धता के चलते धर्म क्षेत्र में आशाराम, राम रहीम जैसे व्यक्ति पूजित होने लगते हैं.. राजनीति में भी कमोबेश इसी आचरण के लोग आने लगे हैं जो भावना प्रधान भारतीय समाज का भावनात्मक दोहन करने का हुनर रखते हैं.. उनसे हमें सावधान रहने की आवश्यकता है ! राजनीतिक मतभेद और मतैक्य देश काल माहौल से प्रभावित अवश्य हो सकते हैं लेकिन हर परिस्थिति में विवेक का रोशनदान खुला रखना भी जरूरी है. जिससे भविष्य में अपनी मानसिक अन्धता के लिए पछतावा न करना पड़े .. 
ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ियां भोंपू वाद के समर्थक होने के लिए हमें कोसें !
हम सभी को परम् पिता ने ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं ! भला हम किसी का भोंपू क्यों बनें ! क्यों हम किसी के पिछलग्गू बनें !! सोचता हूं भोंपू बनने से बेहतर, स्व विवेक से सार्थक चर्चा का हिस्सा बनना है।
भावना प्रधान होना मानव सुलभ गुण है लेकिन भावनाओं में बहकर कहीं फिर ऐसा न हो... " लम्हों ने खता की थी... सदियों ने सजा पायी !

जब तृष्णा ज्वार .....



जब तृष्णा ज्वार
प्रबल हो अतिशय
प्राणों पर संकट
आन पड़े
तब कब दिखते
प्राण मज़हब में !
जल में दिखते प्राण पड़े....
... अनहद
जोधपुर यात्रा क्रम में आग बरसाते सूरज की तपती गर्मी में बेटी और बेटे के साथ मण्डोर गार्डन से आगे काफी पैदल चलने के बाद मंडोर किले में पहुंचा. सुनसान वियावान मंडोर किले के भग्नावशेषों के अवलोकन उपरांत उत्साह में जोधपुर के राजाओं की मृत्युपरांत पंचकुंडा में बने स्मारकों ( छतरी ) पर पहुंचने का लोभ संवरण न हुआ.
रास्ता पैदल का और लंबा था . हमारे पास पानी समाप्त हो चुका था. शेष थी तो सिर्फ रीती बोतलें ! प्यास उफान पर थी. प्यास के कारण यहाँ से वापस, जहां से चले थे, मंडोर गार्डन तक वापस पहुंचने की हिम्मत शेष न थी. लक्ष्य से पहले थम जाना भी मंज़ूर न था. बस इस उम्मीद का सहारा था कि शायद मार्ग में आगे कहीं पानी मिल जाय !
लेकिन निरंतर चलते रहने के बाद भी पानी न मिला. तभी एक आस जगी ! नौ गज़ा पीर की दरगाह के पास 4-5 बड़े-बड़े मिट्टी के मटके दिखे. लेकिन एक-एक कर जब सभी मटकों के ढक्कन उठा कर देखा तो शीघ्र ही आशा निराशा में बदल गई! पांचों मटके सूखे पड़े थे.
अब तो स्थिति और भी भयानक होती जा रही थी. लेकिन अब भी लक्ष्य तक पहुंचने का ज़ज़्बा प्यास पर भारी पड़ रहा था.
काफी पैदल चलने के बाद चारों तरफ सुनसान में एक और दरगाह दिखी. यह हजरत हबीबुल्लाह मलिक शाह बुखारी तन्हा पीर बाबा की दरगाह थी. वहां आगंतुकों की काफी चहल-पहल थी. उम्मीद जगी. दरगाह के मुख्य द्वार पर एक सज्जन दिखे तो छूटते ही उनसे पानी के बारे में पूछा... दरगाह पर वाटर कूलर लगा था !
तुरंत बोतल में जल भरकर चबूतरे पर बैठकर हम तीनों ने प्यास बुझाई. हालांकि कुछ ही देर बाद विद्युत अवरोध के कारण वाटर कूलर से पानी आना बंद हो गया. लेकिन तब तक हम अपनी प्यास बुझाकर बोतलों में शेष सफर के लिए पानी भर चुके थे.
तृष्णा शांति के क्रम में हमें स्वर्गिक आनंद की अनुभूति हो रही थी. जल अमृत तुल्य लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानों तपते रेगिस्तान में हमारे ऊपर खुदा की रहमत बरस पड़ी !
दरगाह पर हम तीनों के अलावा सभी मुस्लिम धर्मावलंबी थे. वहां बैठे बुज़ुर्ग लोगों से बहुत ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में खुलेमन से धार्मिक व धर्म आधारित सम-सामयिक घटनाओं पर चर्चा का दौर चला. इसके बाद हम अपने गंतव्य, पंचकुंडा की ओर बढ़ चले.
यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि हमें जीवन में पहली बार व्यावहारिक रूप में अनुभव हुआ कि " जल ही जीवन है."
साथियों, आप हमारी तरह दुस्साहस न कीजियेगा... मार्ग में आने वाले संकटों को उत्साह में नजरंदाज न करें. मौसम और परिस्थितियों के अनुकूल पर्याप्त व्यवस्था सुनिश्चित कर लेने के उपरान्त ही गंतव्य की ओर रुख करने में स्वयं की सुरक्षा है.