Monday 27 August 2018

सघन देवदार ....

3

3गवाह हैं 
मुलाकात के 
उम्मीद है 
लौटेंगे दिन
फिर यूँ ही बहार के...

जौनसार-बावर के कनासर क्षेत्र में प्रबुद्ध जन सानिध्य में खुशनुमा यादगार लम्हे ..
मेरे दायें से उत्तराखंड से राज्य सभा सांसद आ. श्री प्रदीप टम्टा जी, ख्यातिलब्ध फ्रीलांस छायाकार पत्रकार श्री कमल जोशी जी व लोकसभा दूरदर्शन प्रसारण के संपादक श्री ज्ञानेंद्र पाण्डेय जी. 
इस यादगार समागम के सूत्रधार, " पलायन एक चिंतन " दल के संयोजक श्री रतन सिंह असवाल जी का बहुत-बहुत धन्यवाद ..
छायांकन : श्री जागेश्वर जोशी जी


मां के साथ तस्वीर


 हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अस्सी वर्षीय माँ के साथ तस्वीर 



जिज्ञासा !


जिज्ञासा !

      मुग़ल काल एक ओर जहाँ शाही वैभव के लिए जाना जाता है वहीं इस काल में शाही तख़्त हथियाने की हवश में साजिशें रचकर कई क्रूर अमानवीय वारदातों को अंजाम दिया गया ! वज़ीर गाजीउद्दीन ने मुगल काल के पन्द्रहवें बादशाह अहमद शाह को अँधा करके गद्दी से उतरवा दिया और सोलहवें बादशाह के रूप में आलमगीर द्वितीय को तख़्तनशीं करवा दिया. कहा जाता है कि आलमगीर द्वितीय, वज़ीर गाजीउद्दीन की कठपुतली के रूप में काम करते हुए जब तंग आ गया तो उसने वज़ीर ग़ाजीउद्दीन से मुक्त होने की सोची. इस कारण वज़ीर ग़ाजीउद्दीन ने षढयंत्र के तहत आलमगीर द्वितीय की हत्या करवा दी थी ..
खैर ! अब विषय पर आता हूँ. मैं जिज्ञासावश यहाँ फिरोजशाह कोटला किले में उस निश्चित स्थान को देखने आया था जिस जगह आलमगीर द्वितीय की हत्या को पढ़ा था और इंगित करने वाला विडियो देखा था. थोडा बहुत मशक्कत के बाद स्थान भी मिल गया.
अब आप भी देखिये ! फिलहाल ये कूड़ादान अधिक लग रहा है ! नीचे उतरने के लिए सीढियां नहीं है इसलिए झाँकने पर तहखानों का आभास हो रहा है.
अब आप भी विश्लेषण कीजियेगा, भला ! क्या बादशाह तहखाने में कूदकर प्रवेश किया होगा !! और फिर उसकी हत्या की गयी होगी !!
एक और विरोधाभासी तथ्य देखने में आया ! यहाँ लगे ASI शिलापट्ट में आलमगीर द्वितीय की मृत्यु सन 1761 में उत्कीर्ण की गयी है जबकि सामान्यत: इतिहास में आलमगीर द्वितीय की मृत्यु 29 नवम्बर 1759 बताई गयी है !



अतीत में बावलियों का शहर ; दिल्ली : निज़ामुद्दीन बावली


अतीत में बावलियों का शहर ; दिल्ली : निज़ामुद्दीन बावली 

( मूल रूप से ये आलेख मैंने SBS रेडियो ऑस्ट्रेलिया के लिए लिखा है. सोचा, आपके साथ साझा कर लूँ. )
दिल्ली को अगर अतीत का बावलियों (Step Well) का शहर कहा जाय तो शायद अतिश्योक्ति न होगी. बावलियां एक ओर जहाँ आम जन की प्यास बुझाती थी वहीँ गर्मियों में लोग इन बावलियों में बने कक्षों में ठंडक का अहसास पाकर तेज गर्म लू से राहत पाते थे. बावलियां सामजिक सौहार्द, हाल-समाचार जानने, किस्सागोई और गपशप का सार्वजनिक स्थान हुआ करती थी.
समय ने करवट ली अंधाधुंध अनियोजित शहरीकरण के कारण अधिकतर बावलियों का अस्तित्व मिट गया शेष बची कुछ बावलियां आज भी अपने पुनरुद्धार और संरक्षण की गुहार लगाती जान पड़ती हैं.
ऐतिहासिक हुमायूँ के मकबरे से कुछ दूरी पर निज़ामुद्दीन बस्ती में हजरत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह से कुछ दूरी पर ऐसी ही एक बावली है, निज़ामुद्दीन बावली ! 
पुराने समय में यह इलाका गयासपुर गाँव के नाम से जाना जाता था. दिल्ली के सुलतान गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल (1320-25) में दिल्ली की सबसे बड़े आकार की इस आयताकार बावली का निर्माण सन 1321-22 में, बाइस ख्वाज़ाओं की चौखट कही जाने वाली दिल्ली में सबसे अधिक शोहरत प्राप्त चिश्ती सिलसिले के सूफी संत, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने करवाया था. हज़रत औलिया इसी बावली के जल से वज़ु करने के बाद नमाज अता करते थे. लोक मान्यता के अनुसार बावली के जल को पवित्र व कई बीमारियों से मुक्त करने वाला माना जाता है.
दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक, फकीरी में बादशाही करने वाले हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को नहीं चाहते थे ! जब तुगलक, तुगलकाबाद किला बना रहा था उसी दौरान हज़रत औलिया भी बावली का निर्माण करवा रहे थे. इससे चिढ़कर तुगलक ने शाही फरमान जारी किया कि कोई भी कामगीर किले के निर्माण के अलावा किसी दूसरी जगह काम नहीं करेगा. ऐसा न करने पर उसे दंड दिया जाएगा. लेकिन हजरत साहब के प्रति लोगों में इतनी श्रृद्धा व आस्था थी कि कामगीर दिन में किले में और रात में बावली में काम करने लगे. जब तुगलक को ये पता लगा तो उसने रात में प्रकाश करने हेतु प्रयुक्त किए जाने वाले तेल के दाम बढ़ा दिए. इस पर नाराज हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने तुगलकाबाद किले को लक्षित करते हुए कहा ..
“ या रहे ऊसर या बसे गुज्जर “ (“Either it remains barren or be inhabited by nomads”)
आज भी चारों तरफ उपनगरीय क्षेत्रों से घिरा संत शापित विस्तृत तुगलकाबाद किला वीरान और सुनसान है . यहाँ अगर कुछ दीखता है ! तो वो हैं खंडहर, झाड़ियां और मवेशियों को चराते महज कुछ पशुपालक !! 
कहा जाता है कि हजरत औलिया साहब ने बावली के प्रकाश हेतु पात्रों में तेल के स्थान पर जल का प्रयोग किया. इस तरह बावली का काम निर्बाध जारी रहा. कुछ इतिहासकार बावली का निर्माण चांदनी प्रकाश में बताते हैं. 
लगभग 700 साल से ज़ियारत के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह पर आने वाले हर ज़ायरीन की गवाह, इस बावली के संरक्षण की आवश्यकता तब महसूस की गयी जब जुलाई 2008 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधीन इस ऐतिहासिक बावली की दीवारों से सटे मकानों के सीवर रिसने से बावली की दीवार ढह गयी. इस घटना के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (AKTC) के माध्यम से इस बावली का पुनरुद्धार व संरक्षण कार्य तेजी से किया गया, भारत में पहली बार बावली का लेजर स्कैन, ग्राउंड पेनेट्रेटिंग राडार सर्वे तकनीक से बावली में जल आपूर्ति करने वाली भूमिगत अवरुद्ध जल वाहिकाओं का पता लगाया गया. प्राकृतिक व मानवीय श्रोत से उत्पन्न सात शताब्दियों से जमा मलबे को कठिन मानवीय श्रम द्वारा भूतल से 80 फीट की गहराई तक हटाकर, बावली के आसपास के संकरे रास्तों से निकालने में 8000 मानव कार्य दिवसों का समय लगा. 
बावली की दीवारों से सटकर बनी कई बहुमंजिली इमारतों का कूड़ा करकट, ऊचे स्थानों से बावली में छलांग लगाते तैरते बच्चे, वजु का बावली में गिरता पानी, बावली के जल को प्रदूषित कर रहे हैं. लेकिन बावली के हरे और धूमिल जल के प्रति श्रद्धालुओं की श्रद्धा बरक़रार है.

मोहम्मद बिन तुगलक


इतिहास के पन्नों से ..
दिल्ली सल्तनत के दौरान सल्तनत को महफूज़ रखने तथा सरहदों के विस्तार को लेकर तय नीतियों के मद्देनजर सुल्तानों का अपनी रियाया के प्रति मिजाज तय होता था. 
इसी क्रम में मोहम्मद बिन तुगलक (1325 ई.-1351 ई.) ने भी दिल्ली में हुकूमत कायम की. वह दिल्ली पर हुकूमत करने वाले सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र बुद्धि, धर्म-निरेपक्ष, कला-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था. वह अरबी भाषा एवं फ़ारसी भाषा का विद्धान तथा खगोल, दर्शन, गणित, चिकित्सा, विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि में निपुण था, मोहम्मद बिन तुगलक का हस्तलेख भी बहुत अच्छा था.
सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया. नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार दिल्ली निवासी, बादशाह तुगलक को लिखे अपने खतों में उसे गालियों से नवाज़ते थे ! तो झेलो ! तुगलक को सनक उठी ! मय दिल्ली निवासी राजधानी को दिल्ली से देवगिरी बनाने का फरमान जारी कर दिया !! तुगलक किसी पर विश्वास नहीं करता था।
इन सब बातों से इतर तुगलक के व्यक्तित्व में एक अन्य गुण उल्लेखनीय लगा, वो था.... अपनी असफलता या भूल को बिना किसी बादशाही अहम् के सहजता से स्वीकार करना और ईमानदारी से सुधारने का प्रयास करना !!
गलतियां करना बेशक मानवीय स्वभाव है ! लेकिन गलतियों को स्वीकार कर सुधार का प्रयास करना ! व्यक्तिव को निखारता है.
हालांकि मोहम्मद बिन तुगलक को इतिहास में विद्वता के लिए कम और अन्तर्विरोधी सनकी स्वभाव के कारण अधिक जाना जाता है



भांड और नक्काल ...



भांड और नक्काल ...

         लोकतंत्र में हम अभिव्यक्ति की आजादी के चलते सरकार के फैसलों के प्रति खुलकर असंतोष या रोष जाहिर कर देते हैं लेकिन मुग़ल बादशाहों की निरंकुशता व क्रूरता के किस्से पढ़कर सोचता हूँ कि उस समय बादशाह के फैसलों के प्रतिकूल कहने का साहस तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक माहौल में हम आज भी न जुटा सकेंगे.
खैर ! अब मूल विषय पर आता हूँ.. आज बदले स्वरुप में भांड और नक्काल शब्दों को नकारात्मक या व्यंग्य रूप में प्रयोग किया जाता है लेकिन मुग़ल काल में भांड और नक्काल तहजीबी हिस्सा हुआ करते थे. ये सच्चाई का आइना दिखाते हुए मनोरंजन के साथ-साथ आम जनता को सम-सामयिक घटनाओं व अव्यवहारिक शासकीय निर्णयों पर चुटीले व्यंग्यों के माध्यम से प्रदर्शन करके हकीकत से भी वाकिफ कर जागरूक किया करते थे. जिसके कारण कभी-कभी शासक वर्ग इसने खफा हो जाता था.इस सम्बन्ध में करेला नाम के भांड का प्रसंग, जिससे खफा होकर मुहम्मद शाह रंगीला ने सभी भांडों को दिल्ली छोड़कर चले जाने का आदेश दे दिया था, सुना चुका हूँ.
बात 1754 ई.की है तब दिल्ली के तख़्त पर आलमगीर द्वितीय (1754-1759), 16 वें मुग़ल बादशाह के रूप में गद्दी नशीं था. आलमगीर द्वितीय बहुत कमजोर व्यक्ति था. प्रशासन का अनुभव न होने के कारण उसमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव था. जिसके कारण वह अपने वज़ीर की कठपुतली बनकर रह गया था.
बादशाह जैसी वेशभूषा पहनकर एक भांड, पुरानी दिल्ली के एक चौराहे पर अपनी मंडली के दरबारी बने साथियों के साथ नाटक करने लगा. दरबारी, बादशाह बने अपने साथी को बादशाह द्वारा लिए गलत निर्णयों के लिए कोसते हुए जोर-जोर से खूब गालियाँ भी दे रहे थे !
इतने में उधर से गुजर रहे एक सैनिक ने जब ये सब देखा तो उसने पूरी मंडली को गिरफ्तार कर बादशाह के सामने भरे दरबार में पेश किया और उनका अपराध सुनाया.
भांड को अपनी जैसी वेशभूषा में देख बादशाह को आश्चर्य हुआ ! बादशाह ने मंडली से ठीक वैसा ही दरबार में करने को कहा जैसा वे चौराहे पर कर रहे थे..
बेशक ! कमजोर ही सही ! लेकिन बादशाह तो बादशाह ही होता है ! भांड मंडली घबरा गयी ! लेकिन बादशाह का नर्म रवैया भांपकर उन्होंने और भी बढ़-चढ़ कर वही नाटक फिर से प्रस्तुत कर दिया.
नाटक देख कर बादशाह खूब हंसा और मंडली को इनाम देकर विदा किया लेकिन दरबारियों की अब शामत आ गयी ! बादशाह ने सभी दरबारियों को ये कहकर खूब लताड़ा कि जिस तरह भांड मंडली ने मुझे सच्चाई से रूबरू करवाया तुमने इस तरह कभी वास्तविकता नहीं बताई ! बस हाँ में हाँ मिलते रहे !. इसके बाद बादशाह स्वयं में सुधार करने में जुट गया. हालांकि बाद में षडयंत्र के तहत मारा गया !
इतिहास, गुजरे ज़माने की घटनाओं, जानकारियों व किस्से-कहानियों का संग्रह मात्र नहीं ! इतिहास हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है... मार्गदर्शन करता है ..



मेटकाफ फॅाली ( Metcalfe Folly)...




मेटकाफ फॅाली ( Metcalfe Folly)... 

          मेहरौली में आकर अधिकांश पर्यटक कुतुब मीनार व उससे लगे स्मारक देख कर संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन कुतुब मीनार के पास ही और भी बहुत कुछ ऐतिहासिक है जो देखने लायक है लेकिन जानकारी के अभाव में आगंतुक उधर का रुख नहीं करते !
         तस्वीर में छतरीनुमा निर्माण, मेटकाफ फॅाली है, जिसे थॉमस मेटकाफ ने ब्रिटिश बाग़-बगीचों की तर्ज पर यहाँ भी एक ऊँचा टीला बनवाकर उस पर बनवाया था. थॉमस मेटकाफ मुग़ल दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के रेजिडेंट (Agent) थे. मुग़ल सल्तनत उनके इशारों पर चलती थी. बहादुर शाह जफर नाम मात्र के बादशाह हुआ करते थे। इसलिए मेटकाफ स्वयं को मुग़ल बादशाह जैसे ठाठ-बाट में रहते हुए दिखाना चाहते थे. मेटकाफ ने मुगलों से महरौली का यह क्षेत्र, मय जो कुछ इस इलाके में था, जैसे मस्जिद, मकबरे नहर मवेशियां आदि, खरीद लिया और इस इलाके को अपने अनुसार संवारना शुरू किया.बहती छोटी नदिया का रास्ता मोड़ कर रिजवे बनवाया,ऊंचे टीले, बोट हाउस, बाग़-बगीचे आदि बनवाये.
मेटकाफ ने अकबर की दाई माँ के बेटे कुली खां के मकबरे को अपने निवास में बदल दिया था.इस कोठी में काम करने वाले भारतीय, सही उच्चारण न कर सकने के कारण मेहरौली के मेटकाफ हाउस को " मटका कोठी " कहा करते थे. मेटकाफ इसे नव विवाहित जोड़ो को हनीमून के लिए किराए पर भी दिया करते थे.
मेटकाफ द्वारा मेहरौली के इस क्षेत्र को अपनी आरामगाह के रूप में चुनने के पीछे भी एक मकसद था. दरअसल तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर, लाल किले से मेहरौली में कुतुब कॅाम्लेक्स के समीप स्थित जफर महल में गर्मियों के मौसम में दो माह व्यतीत करने आते थे साथ ही जहाँनाबाद ( पुरानी दिल्ली ) के साधन सम्पन्न लोग, गर्मियों में मेहरौली आ जाया करते थे, इन पर नजर रखने के लिए मेटकाफ ने इस क्षेत्र को अपनी आरामगाह के रूप में चुना था।
मेटकाफ का सरकारी निवास पुरानी दिल्ली में " मेटकाफ हाउस " हुआ करता था लेकिन कहा जाता है कि मेटकाफ ने अपनी बेटी के साथ अधिकांश समय यहीं दिलखुशा में बिताया. पुरानी दिल्ली के मेटकाफ हाउस में उनकी पत्नी और बेटा रहा करते थे.
      वर्तमान में महरौली के आसपास के गांवों की जमीन पर अनेकों फार्म हाउस बन गए हैं मेटकाफ द्वारा संवर्धित इस क्षेत्र को महरौली का पहला फ़ार्म हाउस भी कहा जा सकता है. यहाँ मेटकाफ छुट्टियों का आनंद लेने आया करते थे. आज सम्पन्न लोगों के फार्म हाउसों तक आम आदमी का पहुंचाना सम्भव नहीं ! लेकिन मेटकाफ के दिलखुशा तक हर कोई बेरोकटोक पहुंच सकता है।
        मेटकाफ ने मेहरौली के इस क्षेत्र को नाम दिया, “ दिलखुशा “, अर्थात Delight Of The Heart. सोचता हूँ ये दिल खुशा न होकर फारसी का शब्द " दिलकुशा " "Heart enticing" रहा होगा .
         वाकई ! दिल्ली की भागम-भाग और कोलाहल भरी ज़िन्दगी से हटकर, स्वनाम "दिलखुशा" को सार्थक करती इस क्षेत्र की सुन्दरता और शातिपूर्ण वातावरण का अहसास कर . दिल खुश हो जाता है.
        1857 में जहां क्रान्तिकारियों द्वारा मेटकाफ के पुरानी दिल्ली स्थित " मेटकाफ हाउस " को बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया गया वहीं " दिल खुशा " को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया. दिल खुशा की सुरक्षा के लिए बहादुर शाह जफर ने सुरक्षा कर्मी भी भेजे थे।