Monday 31 October 2016

जयपुर की शान : सिटी पैलेस ; विश्व के सबसे बड़े चांदी के पात्र, " गंगाजली कलश "... World's Biggest Silver Urns , Gangajali Kalash, City Palace , Jaipur


जयपुर की शान : सिटी पैलेस ; विश्व के सबसे बड़े चांदी के पात्र, " गंगाजली कलश "... 

(World's Biggest Silver Urns , Gangajali Kalash, City Palace , Jaipur)

       वर्तमान में सामयिक चलन के अनुसार ही बच्चे का नाम रखा जाता है लेकिन मेरे युवा होने तक राजपूत लोग, बच्चे के नाम के साथ “ सिंह “ अवश्य लगाते थे. “ सिंह ” वीरता और पराक्रम का द्योतक है यही सोचकर संतोष कर लेता था लेकिन राजपूतों में नाम के साथ “ सिंह “ लगाने का चलन कब शुरू हुआ ! ये जिज्ञासा जरूर थी.. जानकारी के लिए बताना चाहूँगा राजपूतों में नाम के साथ “ सिंह “ जोड़ने का चलन लगभग 1721 वर्ष पूर्व शुरू हुआ. इससे पहले राजपूतों द्वारा नाम के साथ “ पाल “ आदि अन्य उपनाम लिखे जाते थे.
     राजपूतों की बात चल पड़ी है तो आइये ! चलते हैं..पराक्रमी राजपूत प्रसूता धरती, राजस्थान के गुलाबी शहर, जयपुर !. यदि आप जयपुर जाएँ और सिटी पैलेस देखने से महरूम रह जायं ! तो समझिए.. बहुत कुछ देखने से रह गया. गुलाबी शहर में सिटी पैलेस परिसर की भव्यता में खोया पर्यटक, सर्वतो भद्र चौक पर पहुंचते ही दर्शनार्थ रखे गए शुद्ध चांदी से बने दो बड़े-बड़े चमचमाते गंगाजली कलशों की सुन्दरता और विशालता पर मुग्ध होकर उनको एकटक निहारता ही रह जाता है !
      पांच फीट दो इंच ऊंचे,14 फीट 10 इंच गोलाई लिए, 4000 लीटर धारण क्षमता वाले, 340 किग्रा. वजनी शुद्ध चांदी से बने सबसे बड़े पात्र होने के कारण ये कलश गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज हैं. 1894 में बिना जोड़ के बने इन कलशों को जयपुर राज्य के खजाने से 14000 झाड़शाही चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनाने में दो वर्ष लगे. जिन्हें जयपुर राज्य के 36 कारखानों में से एक मिस्त्री खाने के दो सुनार गोविंदराम और माधव ने तैयार किया था. कलशों को सरलता से सरकाने के लिए छोटे पहिए वाली प्लेट इनके आधार में लगाई गई थी.
     कलश दिखने में जितने सुन्दर हैं इनका इतिहास भी उतना ही रोचक है. वर्ष 1902 में एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह को इंग्लेंड जाना था. महाराज धर्म परायण थे नित्य कर्म में गंगा जल का प्रयोग करते थे. अब इंग्लैण्ड यात्रा व प्रवास के दौरान गंगा जल नियमित किस प्रकार प्राप्त हो ! इस समस्या के निदान हेतु महाराजा ने पवित्र गंगाजली पात्र के रूप में इन कलशों का उपयोग किया था. यात्रा के लिए समूचा पानी का जहाज, “ ओलंपिया “ भाड़े पर लिया गया. लन्दन में पूरा “ मोरे लॉज “ बुक करवाया गया. यात्रा से पूर्व पूरे जहाज को गंगा जल से धोया गया. जहाज के एक कक्ष में राधा गोपाल जी को स्थापित किया गया. इस तरह पूरा अमला इंग्लैण्ड रवाना हुआ.
      लन्दन में जब महाराजा का पूरा अमला सड़कों से गुजरता तो सबसे आगे राधा गोपाल पालकी होती उसके पीछे महाराजा और फिर सेवक ! आश्चर्य से ये नजारा देख रहे अंग्रेजों की जगह-जगह भीड़ एकत्र हो जाती थी. अंग्रेजों ने इस शोभा यात्रा का मखौल उड़ाया और इसे अंध विश्वासी राजा की सनक तक कह डाला लेकिन लन्दन के मीडिया ने महाराजा को धर्मपरायण राजा कहा.
      अंग्रेजों की गुलामी के दौर में 3 जून 1902 एक ऐसा ऐतिहासिक दिन था जब लन्दन की सड़कों पर किसी देवी-देवता की इस तरह शोभा यात्रा निकाली गयी. इस दिन महाराजा सवाई माधो सिंह की अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा पर लन्दन ही नहीं पूरा विश्व अचंभित हुआ.
      महाराजा लन्दन प्रवास के दौरान अंग्रेजों से हाथ मिलाने के बाद जयपुर से साथ में ले जाई गयी मिट्टी से हाथ मलते और गंगाजल से हाथ धोते थे. लन्दन प्रवास के दौरान महाराजा ने इन कलशों के जल से तैयार भोजन ग्रहण किया और नित्यकर्म में भी इन पात्रों में रखे पवित्र गंगा जल का ही प्रयोग किया.


एकदा.. चिलचिलाती धूप में आगरा से 43 किमी. दूर फतेहपुर सीकरी, आगरा ( Fatehpur Seekari, Agra ) में..


एकदा.. चिलचिलाती धूप में आगरा से 43 किमी. दूर फतेहपुर सीकरी में.. 


सर्व धर्म समभाव के मुगलिया निशान ..
       बादशाह अकबर द्वारा गुजरात फतह को शानदार यादगार बनाने के उद्देश्य से 1602 में 42 सीढ़ियों के ऊपर लाल बलुवा पत्थर से लगभग 54 मी. ऊंचा और 35 मी. चौड़ा बुलंद दरवाजा बनाया गया. जिस पर संगमरमर से सजावट की गई है।
      बुलंद दरवाजे के तोरण द्वार पर प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दिया गया यह उपदेश पर्सियन भाषा में उत्कीर्ण है ..
      “ यह संसार एक पुल के समान है, इस पर से गुज़रो अवश्य, लेकिन इस पर अपना घर मत बना लो। जो एक दिन की आशा रखता है वह चिरकाल तक आशा रख सकता है, जबकि यह संसार घंटे भर के लिये ही टिकता है, इसलिये अपना समय प्रार्थना में बिताओ क्योंकि उसके सिवा सब कुछ अदृश्य है."


जयपुर की सरहदों का तन्हा निगहबां.. नाहर गढ़ दुर्ग , जयपुर .... ( Nahar Garh Fort, JAIPUR )


जयपुर की सरहदों का तन्हा निगहबां.. नाहर गढ़ दुर्ग , जयपुर ....

( Nahar Garh Fort, JAIPUR )

     जयपुर , आमेर के किले के चप्पे-चप्पे से रूबरू हो जाने के बाद इस किले की सुरक्षा हेतु बनाये गए जयगढ़ दुर्ग पहुंचा. जयगढ़ दुर्ग के बियावान में अतीत के वैभव और सांस्कृतिक झलक के दीदार कर ही रहा था कि तभी अरावली पर्वत में दूर से ही तन्हाई में झीनी चादर ओढ़े बुजुर्ग नाहरगढ़ दुर्ग अपनी लम्बी-लम्बी बाहें पसारे मुझे अपने पास बुलाता महसूस हुआ.
   " आमेर के किले के बाद आमेर से कुछ ऊपर बने जयगढ़ दुर्ग से वाकिफ होते हुए पहाड़ी पर्यटन स्थल का आभास दिलाती कनक घाटी के सर्पिलाकार संकरे ऊंचे नीचे रास्ते से गुजरता हुआ तन्हाई में डूबे नाहरगढ़ दुर्ग पहुंचा.
    मीलों लम्बी सुरक्षा दीवार के रूप में बाहें फैलाये नाहरगढ़ दुर्ग की छत पर बैठकर 282 साला बुजुर्ग दुर्ग दादा के साथ बातों का दौर शुरू हुआ. स्वर्णिम अतीत को सुनाते दुर्ग दादा के तन्हा मुरझाये चेहरे पर अब चमक परिदृश्यत होने लगी थी।
     दुर्ग दादा अतीत की यादों से रूबरू करते हुए बोले ... “ जयगढ़ दुर्ग से आ रहे हो न ! वहां दुनिया की सबसे बड़ी तोप “ जय बाण “ जरूर देखी होगी ? “ मैंने सहमती में सिर हिला दिया. बात को आगे बढ़ाते हुए दुर्ग दादा ने बताया, “ ‘जय बाण’ तोप का निर्माण, मुझे तामीर करने वाले महाराजा सवाई जय सिंह ने करवाया था. महाराज कई भाषाओँ के ज्ञाता थे गणित और खगोल विज्ञान में तो उनका कोई सानी न था ! महाराजा के नाम से पहले सवाई उपाधि सुनकर जिज्ञासा बढ़ी. मैंने बात बीच में रोकते हुए प्रश्न दागा ! “ दादा.. दादा ! सुनो !! पहले ये तो बता दो ! ये “ सवाई “ क्या है ? “
    " मेरा प्रश्न सुनकर दुर्ग दादा गर्वोन्मत्त मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले , “ महाराजा जय सिंह के पिता व आमेर के महाराजा विशन सिंह का देहांत तब हो गया था जब जय सिंह बहुत छोटे थे, 11 साल की बाल्यावस्था में ही जय सिंह को आमेर का राजा घोषित कर दिया गया. सन् 1700 में बाल्यावस्था में राजा जय सिंह का औरंगजेब के दिल्ली दरबार में जाना हुआ तो बादशाह औरंगजेब ने जय सिंह के दोनों हाथों को पकड़ लिया और कहा.. " अब क्या करोगे ?"
      महाराजा जय सिंह बचपन से ही हाजिर जवाब और कूटनीतिज्ञ थे, वे बोले, " जहाँपनाह ! हमारे यहाँ जब शादी होती है तो वर अपनी वधू का एक हाथ थामकर उसे सात जन्मों तक सुख दुःख में साथ निभाने का वचन देता है. जहाँ पनाह ! आपने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए, अब मुझे किस बात की चिंता !" बालक जय सिंह की हाजिर जवाबी पर औरंगजेब हैरत में पड़ गया, और जय सिंह को एक आदमी से बढ़कर सवा आदमी होने की अर्थात “ सवाई “ मौखिक उपाधि दे दी, तब से हमारे महाराजा और उनके उत्तराधिकारियों के नाम से पहले सवाई लगाया जाने लगा. “
     बातों-बातों में सांझ घिरने लगी, दुर्ग दादा मुझे दुर्ग के पश्चिम में बने रेस्तरां, “ पड़ाव “ में ले गए, वहीँ हमने कॉफ़ी का आनंद लिया , दुर्ग दादा जयपुर शहर के महलों से मॉल तक के सफ़र को बयाँ करते जा रहे थे और मैं चुपचाप इस सफ़र का मूक श्रोता बना अतीत में खोया सुन रहा था यादों का कारवां बहुत लम्बा था ..बातों का सिल सिला चलता रहा. ... शेष बातचीत समय मिलने पर फिर कभी साझा करूँगा।


Tuesday 11 October 2016

शहीद स्मारक, नोएडा सेक्टर-29.उत्तर प्रदेश , Shaheed Smarak, Sec-29, NOIDA, U.P.



शहीद स्मारक, नोएडा सेक्टर-29.उत्तर प्रदेश , Shaheed Smarak, Sec-29, NOIDA, U.P.

       1997 में नोएडा सेक्टर-29 के आस पास के सेक्टरों में बसे लगभग पचास हजार सेवारत् व सेवानिवृत्त सैन्य कर्मियों के मन में नोएडा वासियों को शहीदों से करीब से जोड़ने के लिए शहीद स्मारक बनाने का विचार आया था लेकिन स्मारक निर्माण पर आने वाली बड़ी लागत के चलते, विचार ठन्डे बसते में समा गया.
      1999 में कारगिल युद्ध में कैप्टन विजयंत थापर की शहादत पर उनका पार्थिव शरीर नोएडा लाया गया तो लाखों निवासियों की भीड़ उनके अंतिम दर्शन
ों के लिए उमड़ आई ! शहीदों के प्रति नोएडा वासियों के लगाव को देखकर स्मारक बनाने की मुहीम ने फिर जोर पकड़ा और देखते ही देखते अनेकों हाथ सहयोग के लिए बढ़ आये.
      पार्क परिसर की दो एकड़ भूमि पर चारों तरफ हरियाली व शोभादार वृक्षों के मध्य नोएडा के 33 ज्ञात व अज्ञात अमर शहीदों की याद में बनाये गए “ शहीद स्मारक “ के रूप में एक ऊंचे ऊंचे बलुआ पत्थर की लाट है जिस पर दर्शनाभिलाषी फूल चढ़ाकर शहीदों को श्रद्घांजलि अर्पित करते हैं। लाट की परिधि में लगे शिलापट्टों पर अमर शहीदों के नाम उत्कीर्ण हैं।
     स्मारक के प्रवेश द्वार पर दो टैंक विनाशक तोप रखी गयी हैं. स्मारक में राष्ट्रीय ध्वज के साथ तीनों सेनाओं के ध्वज, राष्ट्र के प्रति सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देते महसूस होते हैं.
      परिसर में रखे गए सतह से हवा में मार करने वाली दो मिसाइल और एक ट्रेनर जेट भी आकर्षण का केन्द्र हैं.. 13 अप्रैल 2002 को सेना के तत्कालीन प्रमुख जनरल एस. पद्मनाभन, वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल एस . कृष्णमूर्ति और नौसेना प्रमुख एडमिरल माधवेंद्र सिंह ने शहीद स्मारक का उद्घाटन किया. ये एक दुर्लभ अवसर ही था जब तीनों सेनाओं के प्रमुख सिविल संस्था द्वारा संचालित स्मारक के उद्घाटन के अवसर पर एक साथ उपस्थित हुए थे.
     अमर शहीदों की कुर्बानियों को जीवन्त करता नोएडा शहीद स्मारक, शहीदों व उनके बलिदान के प्रति नमन, वंदन व जय हिंद करने तक ही सीमित न रखकर, साहस, शौर्य, कर्तव्यनिष्ठा व मातृभूमि के प्रति समर्पण का संदेश देने में पूर्ण सक्षम है।


https://youtu.be/60_7A9k8Po4



Sunday 9 October 2016

शहीद स्मारक, नोएडा, उत्तर प्रदेश. Shaheed Smarak, Noida . U.P.


   शहीद स्मारक, नोएडा, उत्तर प्रदेश. Shaheed Smarak, Noida . U.P.

      विरासत यात्रा क्रम को आगे बढाते हुए आज इतिहास के पन्नों में धूल फांकती, दिल्ली के इतिहास को बदल कर रख देने वाली दो सौ तेरह साल पुरानी निर्णायक ऐतिहासिक घटना के उपरान्त, आज से ठीक सौ साल पहले बने, पर्यटकों से महरूम और अमीरों की मनोरंजनगाह में कैद, स्मारक पर पहुँचने की इच्छा हुई.
    सुबह-सुबह बेटी से सम्बंधित अधिकारी से अनुमति हेतु प्रार्थना पत्र लिखने को कहा. बेटी ने मेरी जिज्ञासा पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहा “ पापा ! उस जगह तो ऐसा कुछ नहीं सुना !! “ बहरहाल बेटी ने प्रार्थना पत्र लिख दिया. मैंने प्रार्थना पत्र के साथ एहतियातन अपने मतदाता पहचान पत्र की छाया प्रति भी संलग्न कर दी. हम दोनों भरी दुपहरी में उस स्थान पर पहुंचे तो सम्बंधित स्मारक पर जाने की अनुमति न मिल सकी !
     मैं निराश नहीं हुआ ! क्योंकि सम्बंधित स्मारक की तस्वीर के अतिरिक्त काफी कुछ जानकारी जुटा ली थी. अत; उस स्थान के सम्बन्ध में शीघ्र ही साझा करूँगा..

वापसी में सड़क पर नोएडा सैक्टर-29 में बने “ शहीद स्मारक “ का बोर्ड दिखा तो बाइक उसी दिशा में मोड़ दी. इस तरह आज का रविवार व्यर्थ होने से बच गया !!
    अनजाने में ही मेरे स्मृति पटल पर स्थान बना चुके, मातृभूमि पर कुर्बान, नोएडा के शहीदों की याद में बने शहीद स्मारक के सम्बन्ध में समय मिलने पर अवश्य साझा करूँगा.
स्मारक से लौटते हुए, स्मारक प्रवेश द्वार के बाहर लगी टैंक विनाशक तोप के साथ तस्वीर क्लिक करने का लोभ संवरण न कर सका.


Tuesday 4 October 2016

नेहरु जी की ससुराल : हक्सर की हवेली ( Haksar ki haveli ) .. चांदनी चौक, दिल्ली




नेहरु जी की ससुराल : हक्सर की हवेली .. चांदनी चौक, दिल्ली ... ..

अतीत में सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रही, ऐतिहासिक हवेली, जो चांदनी चौक की भीड़-भाड़ में कहीं गुम हो गयी !  ...

     खजांची की हवेली में दोपहर हो चुकी थी. अब अगले गंतव्य की तरफ बढ़ना उचित समझा. सीता राम बाजार पहुंचकर हक्सर की हवेली का पता पूछा लेकिन इलाके के बुजुर्ग निवासी भी इस नाम की हवेली से अनजान थे !! काफी पूछने के बाद जब हवेली का पता न लगा तो गर्मी में भीड़-भाड़ वाली तंग गलियों में भटकते-भटकते झुंझलाहट होने लगी !
     कुछ देर सुस्ताने के बाद चाय बना रहे इलाके के पुराने बासिन्दे, जिनसे मैं पहले भी पूछ चुका था, हवेली से जुड़ी जानकारी साझा कर, पुन: हवेली का पता पूछने की हिम्मत की तो सज्जन चाय गिलास में डालते हुए मुस्कराकर कहने लगे . “ ओहो ! तो आप नेहरु जी की ससुराल के बारे में पूछ रहे हैं !” उनकी सकारात्मक मुस्कराहट से गंतव्य तक पहुँचने की कुछ आस जगी ! सज्जन के बताये अनुसार मैं सीताराम बाजार में चौरासी घंटा मंदिर के पास धामाणी मार्केट में तब्दील हो चुकी “ हक्सर की हवेली ‘ तक पहुँच गया.
    1850 से 1900 के दौर में कई कश्मीरी परिवार पुरानी दिल्ली में आकर बस गए थे उनमें से हक्सर ब्राह्मण परिवार भी एक था. आज भी चांदनी चौक की “ गली कश्मीरियाँ “ में चंद कश्मीरी परिवार तब की याद दिलाते हैं.
     कभी चांदनी चौक की पहचान रही और इतिहास में “ हक्सर की हवेली “ के नाम से मशहूर यह हवेली स्थानीय निवासियों में “ नेहरु जी की ससुराल “ के नाम से जानी जाती है . लन्दन से बैरिस्टरी कर ताजा -ताजा लौटे, 26 वर्षीय जवाहर लाल नेहरु, 8 फरवरी 1916 को दूल्हे के रूप में गुलाब की महकती पंखुड़ियों की बरसात के बीच, पूरी गली में बिछे शानदार गलीचों पर नाचते गाते, चांदी की गिन्नियां लुटाते उत्साहित बारातियों के साथ, जवाहर मल कौल और राजपती कौल के धर्मनिष्ठ कश्मीरी हक्सर ब्राह्मण परिवार की 17 वर्षीय पुत्री, कमला कौल से ब्याह रचाने बारात लेकर आये थे. इस विवाह में नेहरू परिवार के सभी सगे -संबंधी मौजूद थे.
     कभी शास्त्रीय संगीत, मुशायरा और कव्वाली आदि कार्यक्रमों की मेजबानी के कारण सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुरानी दिल्ली की पहचान रही इस हवेली में हक्सर परिवार पुत्री के विवाह के उपरान्त कुछ ही वर्ष रहा. उसके बाद 1960 में हक्सर परिवार ने इसे रतन खंडेलवाल को बेच दिया. इसके बाद ये हवेली चांदनी चौक की व्यावसायिक गतिविधियों की भेंट चढ़ गयी. अब हवेली का मुख्य द्वार, कुछ मेहराब व स्तम्भ और पुरानी खांचों से झांकते चंद कलात्मक कोने ही हवेली के सुनहरे अतीत के गवाह है. हवेली का वैभवशाली सांस्कृतिक अतीत अब दुकानों व अव्यवस्थित नीरस भवन संरचनाओं में तब्दील होकर चांदनी चौक की भीड़ में कहीं गुम हो गया है ! इस विवाह में नेहरू परिवार के सभी सगे-संबंधी मौजूद थे।
    इस हवेली में 1983 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी इस हवेली में अपने ननिहाल का अहसास पाकर काफी भावुक हो गयी थी और इसको अपनी माँ की याद में अस्पताल में परिवर्तित करना चाहती थी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. कुछ समय बाद ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी !
हवेली का उपेक्षित मौन मुख्य द्वार आज भी वरुण, राहुल और प्रियंका को अपनी गोद में दुलारने की आस में टकटकी लगाये दृढ़ता से खड़ा जान पड़ता है !