Saturday 16 July 2016

हो उजास जीवन निरंतर



हो उजास जीवन निरंतर
तन भी व्याधि मुक्त हो
मरु अगर हो जाए धरा तो
      आप उपवन मध्य हो ... 2
खार मुक्त हो पथ स्वयं
ठोकर न लगने पाए कहीं
शतायु हो जीवन सफल
       कामना मेरे मन की यही ... 2

दिवस उत्सव पूर्ण हो नित
सकल मनोरथ सिद्ध हो
अंगना बरसे खुशियाँ निस दिन
         घर धन – धान्य पूर्ण हो .... 2


.. विजय जयाड़ा 15.07.2016

आज, बीज को वट वृक्ष का रूप दे सकने का हुनर रखने वाली, कुशल मार्गदर्शी व प्रेरक व्यक्तित्व, हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्या, श्रीमती कमलेश कुमारी जी का सेवाकाल के अंतर्गत विद्यालय परिवार के मध्य मनाया जाना वाला अंतिम जन्म दिवस था.
आदरणीया श्रीमती कमलेश जी के बारे में संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा कि मेरे व्यक्तिव में बहुत कमियाँ है लेकिन अगर आपको कुछ अच्छा जान पड़ता है तो उसका काफी कुछ श्रेय मैं नि:संकोच आदरणीया श्रीमती कमलेश जी को देना चाहूँगा.
ऐसे प्रेरक व विद्वान् व्यक्तित्व को भला व्यक्तिगत रूप से मैं उपहार में क्या दे सकता था.! मैनें मनोद्गारों को त्वरित चंद पंक्तियों में पिरोकर भेंट करना ही उचित समझा ..


नारी ( A Women )


नारी

कभी पहाड़
कभी !
मोम हो जाती है
दुहती है पहाड़
उनको
संवारती भी है
जूझती है स्वयं से
जिंदगी भर !
मगर हर पल
वात्सल्य बरसाती है
डरते हैं
कुछ लोग
पहाड़ों को देखकर
उसको परवाह नहीं !
मगर___
झुक जाते हैं
पहाड़ भी !
नारी के
ममतामयी दृढ़
स्वरूप को देखकर !! 

..विजय जयाड़ा


Wednesday 13 July 2016

श्री काशी विश्वनाथ मंदिर, उत्तरकाशी ..Uttarakhand ( Shri Kashi Vishwanaath Temple, Uttarkashi, Uttarakhand )




       श्री काशी विश्वनाथ मंदिर, उत्तरकाशी, Uttarakhand  ( Shri Kashi Vishwanaath Temple, Uttarkashi, Uttarakhand )

      ऋषिकेश ( Rishikesh ) से 170 किमी. की दूरी पर भागीरथी ( Bhagirathi ) नदी के तट पर बसे उत्तरकाशी शहर पहुंचकर बस अड्डे से 200-300 मी. की दूरी पर भोले बाबा को समर्पित विश्वनाथ मंदिर नाम से प्रसिद्ध, शंकराचार्य कालीन वास्तु में निर्मित प्राचीन शिव मंदिर में पहुंचा तो यहाँ से जुडी यादों का कारवां जैसे मेरे इंतज़ार में ही था !!
       कॉलेज के दिनों में पूरा साल हॉकी और क्रिकेट खेलने में व्यतीत कब हो जाता था ! पता ही नहीं लगता था !!. जब परीक्षाओं की डेट शीट मिलती थी तब हर साल परीक्षाओं के रूप में आने वाली इस चिर परिचित मुसीबत में भोले बाबा ही एकमात्र तारणहार जान पड़ते थे !! सबसे पहले साथियों के साथ मंदिर पहुंचकर भोले के दर्शन कर आत्मविश्वास बटोरने का मंगल कार्य किया जाता था. कुछ साथी मंदिर की दीवारों पर अपना रोल नंबर लिखकर भोले बाबा को परीक्षा तारण करवाने की जिम्मेदारी याद दिलाने में किसी तरह की कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे !!
       ये तय बात थी कि भोले के सानिध्य में मुझे सकारात्मकता ऊर्जा प्राप्त होती थी फलस्वरूप भरपूर आत्म विश्वास के साथ परीक्षा की तैयारियों में परीक्षा समाप्त होने तक मैं प्रति दिन 18 - 19 घंटे लगातार अध्ययन में जुटा रहता था.
      उत्तरकाशी ( Uttarkashi)  शहर जनपद का मुख्यालय है. केदारखंड ( Kedar khand ) और पुराणों में उत्तरकाशी के लिए 'बाडाहाट' शब्द का प्रयोग किया गया है। केदारखंड में ही बाडाहाट में विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख मिलता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार उत्तरकाशी में ही राजा भागीरथ ने तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि भगवान शिव धरती पर आ रही गंगा को धारण कर लेंगे. तब से यह नगरी विश्वनाथ की नगरी कही जाने लगी और कालांतर में इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगा. केदारखंड में इसे “ सौम्य काशी “ भी कहा जाता है.
      उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर ( Vishwanath Temple ) या वाराणसी के रामेश्वरम मंदिर में पूजा अर्चना किये बिना गंगोत्री धाम की यात्रा के अपूर्ण माने जाने की मान्यता इस मंदिर के महत्व को और भी अधिक बढ़ा देती है ..
        मान्यताओं के अनुसार लगभग पत्थरों के ढाँचे के रूप में इस मंदिर का निर्माण गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह ( Pradyumn Shah) ने करवाया था बाद में उनके बेटे महाराजा सुदर्शन शाह ( Sudarshan Shaah)  की पत्नी महारानी कांति ने 1857 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. आज मंदिर नवीकरण के बाद भी प्राचीनता को बनाये हुए है, मंदिर की अन्दर की तरफ क दीवारों को चन्दन की लकड़ी में मढ़ दिया गया है, चन्दन की खुशबु गर्भ गृह में शिवलिंग के दर्शन की तरफ बढ़ते हुए शांति, शीतलता का अद्भुत वातावरण निर्मित करती है
     गंगोत्री ( Gnagotri ) धाम के यात्री उत्तरकाशी में रात्री पड़ाव डालते हैं यहाँ से गंगोत्री 96 किमी. की दूरी पर है.



महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड, ( Mahar Gaon, Uttarkashi, Uttarakhand )




महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड, ( Mahar Gaon, Uttarkashi, Uttarakhand )

बिखर जाते हैं हम
आगे बढने की चाह में !
मगर जन्नत वहीँ हैं
जहाँ रहते हैं एक ही छाँव में ..
.. विजय जयाड़ा

          गावों में भी प्राय: पाता हूँ कि जिन लोगों के घरों में सम्पन्नता दस्तक दे देती है वे लोग गाँव की ही परिधि में लेकिन मूल घरों से दूर, यहाँ तक कि निर्जन और सुनसान में अपना आशियाना बना लेते हैं !!
कारण कुछ भी हो सकते हैं !!
         महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड में अभी भी लोग एक दूसरे के बहुत करीब बसे हुए हैं.. महर गाँव से उठने वाली एकता की सोंधी महक बहुत दूर से ही महसूस की जा सकती है। यह महक राह चलते जब मैंने भी महसूस की तो बाइक रोक कर इस गाँव की तस्वीर क्लिक करने का लोभ संवरण न कर सका.


ठहर जाते हैं अल्फ़ाज़ !



ठहर जाते हैं अल्फ़ाज़ !
दिलकश नजारों को देख कर
मेरा सलाम ! कुदरत तुझे !!
तेरी अजब चित्रकारी को देख कर !!
... विजय जयाड़ा


Sunday 10 July 2016

दुस्साहस !! An Adventures Tour




     दुस्साहस !! An Adventures Tour

       सामान्य: मेरी दिनचर्या आलस भरी होती है लेकिन जब सफ़र में होता हूँ तो मानो मेरे पैरों को पंख लग जाते हैं.
      दिल्ली से इसी 25 जून की रात को बस से प्रस्थान के बाद सात घंटे का सफ़र तय करके सुबह ऋषिकेश पहुंचा और जेठू साहब के बेटे शुभम को साथ लेकर बाइक से तुरंत आगे के 170 किमी. के पहाड़ी सफ़र पर निकल पड़ा. चंबा (उत्तराखंड) तक जंगलों के बीच से गुजरते हुए दो घंटे ठण्ड का अहसास हो रहा था लेकिन चंबा के बाद छायादार वृक्ष रहित सड़क पर तेज धूप और उमस भरे  वातावरण में चार घंटे के सफ़र ने शरीर के सारे पेंच ढीले कर दिए.
       पिछले कुछ दिनों से लगातार सफ़र कर रहा था तो थकान और नींद के झोके आने पर बाइक कहीं कहीं झूमते हुए चलती ! शुभम ने जब महसूस किया कि मुझे नींद आ रही है तो उसने बाइक संभाली. लेकिन पीछे बैठ कर अब ज्यादा नींद आने लगी झपकी लगने पर बार-बार मेरा सिर बाइक चला रहे शुभम के हैलमेट से टकराता !! अंत में नींद से तंग आकर मैंने फिर बाइक संभाली और हम गंतव्य तक पहुँच गए.
      वापसी में अब हम आराम से तस्वीरें क्लिक करते हुए आ रहे थे तो चंबा से लगभग 50 किमी. पहले अँधेरा हो गया. शुभम ने बाइक संभाली लेकिन अँधेरे में मुझे वो असहज दिखा बाइक की गति बहुत कम थी. मैंने शुभम से कहा कि इस गति से तो हम आज चंबा तक ही पहुँच पायेंगे, इसलिए आज ऋषिकेश पहुँचने का विचार त्याग देना चाहिये, आज चम्बा में ही रात बिताई जाय !
चंबा से कुछ पहले मैं स्वयं बाइक चलाने लगा. अँधेरे पहाड़ी सिंगल रोड पर सामने से आते भारी वाहनों की हैड लाइट से आँखें चौंधिया रही थी जिससे सड़क न दिखने के कारण बाइक चलाना दुष्कर लग रहा था लेकिन शीघ्र ही मैंने काबू पा लिया और हम रात के लगभग दस बजे चंबा पहुँच गए. अब मैं सहज था नींद भी उड़ चुकी थी और अच्छी गति से बाइक चला पा रहा था इसलिए चंबा रुकने का विचार छोड़ कर आगे बढ़ गए.
     चंबा से कुछ किमी. चलने पर आगे बढने का निर्णय उस समय दुस्साहसपूर्ण प्रतीत हुआ जब घुप्प अँधेरी रात में घने जंगल के बीच जंगली जानवरों का भय और सुनसान गुजरती सड़क पर घना कुहरा आ जाने से दृश्यता शून्य हो गयी ! सड़क पर एक मीटर की मामूली दूरी पर भी कुछ नहीं दिख रहा था. अधिक रात हो जाने से नाका लग जाने के कारण वाहनों की आवाजाही बंद हो चुकी थी। इससे हम स्वयं को बिलकुल अकेला महसूस कर रहे थे ! बाइक का क्या भरोसा कब और कहाँ सुनसान जंगल में जवाब दे जाय !! सोच कर रहा सहा साहस भी जवाब दे रहा था। वातावरण में नमीं इतनी अधिक थी कि बिना वर्षा के ही पूरे कपडे गीले हो चुके थे !!
      हम ऐसी जगह पर थे जहाँ से आगे बढ़ने के सिवा दूसरा कोई उपाय भी न था.अनिश्चितता परिपूर्ण मनोस्थिति में साहस बटोरा सोचा " जब सिर ओखली में दे दिया तो अब मूसल से क्या घबराना !" घबराहट त्यागकर इस सफ़र को साहसिक सफ़र के रूप में स्वीकार करके ह्रदय को मजबूत कर लिया कहीं कहीं सड़क में बीचोंबीच डाली गयी सफ़ेद पट्टी और लाइट रिफ्लेक्टिंग स्टिकर्स के सहारे, पहाड़ और खाई की किस तरफ है इससे बेपरवाह अब केवल दो-तीन मीटर की दूरी अर्थात जहाँ तक दिख पा रहा था, सड़क पर दृष्टि गड़ाए बाइक चला रहा था ! ये मान लीजिये सड़क पर सुई खोजते हुए बाइक चला रहा था !! विकट परिस्थितियों के बावजूद भी बाइक की गति वही थी जिस गति से सुबह इसी रास्ते गुजरा था।
      इस तरह हम रात लगभग बारह बजे अपनी मंजिल, ऋषिकेश पहुचं गए अब हम दोनों के चेहरे पर विजेता के स्पष्ट भाव झलक रहे थे।
       इस दौरान ऐसे भी अवसर आये जब मोड़ों पर थके हुए मस्तिष्क व पलक झपकने भर से बाइक तेज गति में होने के कारण सड़क के डामर से उतरकर कच्ची भूमि में पहुंचकर दिशाहीन हो गयी और आनन-फानन में ब्रेक लगाकर बाइक को सही दिशा देनी पड़ी.
      हमसफ़र शुभम का शुक्रगुजार हूँ कि पूरे रास्ते उसने भी घबराहट का इजहार न करके मेरा हौसला बनाए रखने में मदद की।
      इतने लम्बे यात्रा संस्मरण को प्रस्तुत करने का उद्देश्य स्वयं के साहस या दुस्साहस को प्रस्तुत करना कदापि नहीं ! एकाएक आमुख विपरीत परिस्थितियों का विवेक व दमखम के साथ सामना करना व्यक्ति में हुनर, आत्मविश्वास और साहस विकसित करता है। लेकिन इसके बावजूद भी सलाह दूँगा कि यदि थकान महसूस हो रही हो तो पहाड़ी घुमावदार मार्गों पर इस तरह का दुस्साहस न किया जाय तो बेहतर होगा.
       इस अनुभव के बाद यकीनन कह सकता हूँ कि मानसिक थकान के बावजूद भी वाहन चलाना और अधिक नशे की हालत में वाहन चलाना समान कृत्य है !!
      सम्बंधित विभाग यदि पहाड़ी मार्गों पर लाईट व्यवस्था करने में असमर्थ है तो नियमानुसार सड़क के किनारे व बीचोंबीच सफ़ेद या पीली लाइट रिफ्लेक्टिंग पट्टियां व लाइट रिफ्लेक्टिंग स्टिकर्स को बहुतायात में लगाने से आपातकालीन परिस्थितियों में वाहन दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।



Saturday 9 July 2016

कई पीढ़ियों के आवागमन का मूक गवाह,, लक्ष्मण झूला पुल, ऋषिकेश, उत्तराखंड (Laxman Jhula Pul, Rishikesh, Uttarakhand )




   कई पीढ़ियों के आवागमन का  मूक गवाह, लक्ष्मण झूला पुल, ऋषिकेश, उत्तराखंड  (Laxman Jhula Pul, Rishikesh, Uttarakhand )

       जब भी लक्ष्मण झूला पुल से गुजरता हूँ तो इस पुल से जुडी कई पुरानी यादों से रूबरू हो जाता हूँ. हालांकि मेरे विवाह के बाद के वर्षों में इस झूला पुल से चार पहिया गाडी का आवागमन निषिद्ध हो गया लेकिन अपने विवाह के अवसर पर पारंपरिक चांदी के ढोल, दमाऊ, मसक बाजे और रण सिंघे के पारंपरिक संगीत पर रंवाई का शालीन व मोहक सामूहिक नृत्य करते बारातियों के साथ मैं इस पुल से एम्बेसडर पर बैठ कर गुजरा था.
      ऋषिकेश पहुंचने वाले हर पर्यटक व यात्री के लिए लक्ष्मण झूला क्षेत्र को तपोवन, ऋषिकेश से जोड़ने वाला झूलता लक्ष्मण झूला पुल आकर्षण का केंद्र होता और हर कोई इस झूला पुल से एक बार गुजरने का यादगार अनुभव अवश्य पाना चाहता है.
      स्थापित मान्यताओं के अनुसार पुल के पास तपोवन क्षेत्र में ध्रुव ने तपस्या की थी पुल के तपोवन की तरफ ध्रुव मंदिर भी बना है कहा जाता है कि गंगा नदी के प्रचंड लहरों से उठते स्वर से तपस्वी ध्रुव की तपस्या में व्यवधान उत्पन्न होने पर तपस्वी ध्रुव ने माँ गंगा से शांत प्रवाह में बहने का निवेदन किया. तभी से यहाँ गंगा शांत बहती है. प्रचलित मान्यताओं के अनुसार भगवान् राम ने भी रावण वध उपरान्त ब्रहम हत्या से निवृत्ति हेतु जब तपस्या के लिए हिमालय प्रस्थान किया तो इसी मार्ग का प्रयोग किया. कालांतर में विदेशी मुस्लिम व स्वदेशी राजस्थानी राजपूत राजाओं ने इसी मार्ग का उपयोग कर गढ़वाल पर आक्रमण किये..
     पूर्ववर्ती पुल जिसको राय बहादुर शिव प्रसाद तुलशान ने अपने पूज्य पिता राय बहादुर सूरजमल झुनझुनवाला की स्मृति में धर्मार्थ बनवाया था, के अक्तूबर 1924 की वृहत बाढ़ में बह जाने के बाद लगभग उसी स्थान पर ग्रीष्म ऋतु में नदी जल स्तर से 60 फीट ऊँचे व 450 फीट लम्बे इस झूला पुल का निर्माण राय बहादुर शिव प्रसाद तुलशान के वित्त पोषण से पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट ने 1927-29 में किया था. जिसका उद्घाटन 11 अप्रैल 1930 को संयुक्त प्रान्त के तत्कालीन गवर्नर मेल्कम हेली द्वारा किये जाने के बाद इस झूला पुल को बिना किसी कर के आम जनता की आवाजाही के लिए खोल दिया गया.
      कई पीढ़ियों की खट्टी-मीठी यादों को संजोए, लक्ष्मण झूला आज भी ख़ुशी में झूमता आगंतुकों का स्वागत करता जान पड़ता है.


Wednesday 6 July 2016

टाइम पास !! Time Pass !!







बस यूँ ही .... टाइम पास !! Time Pass !!
आप भी आइए ! सत्रहवीं सदी के इन पुरावशेषों की छान-बीन में शायद आपका भी कुछ टाइम पास हो जाए !!


तेरे शहर से आती हवाएं




तेरे शहर से आती हवाएं
गुजरती हैं करीब से
मन मचल जाता है
     आती हुई तेरी महक से ....
उड़ जाती है चादर
अरमानों को ढ़के हुए
लौट आती है बहारें
    यादों के झरोखों से ...

... विजय जयाड़ा


कुछ हो जाते हैं नम



कुछ हो जाते हैं नम
कुछ उड़ जाते हैं न जाने कहाँ !
   अरमानों का भरोसा कुछ नहीं !!
कुछ उतरते हैं जमीं पर मगर__
   बेशुमार गुम हो जाते हैं न जाने कहाँ !! 

.. विजय जयाड़ा


महरौली पुरातत्विक उद्यान : बलबन का मकबरा, दिल्ली ... (Archaeological Park Mehrauli.. Balban's Tomb, Delhi )




महरौली पुरातत्विक उद्यान : बलबन का मकबरा, दिल्ली  ... (Archaeological Park Mehrauli.. Balban's Tomb, Delhi ) 

       इतिहास में  क्रूर, धार्मिक, रंगीला,मस्त-मौला, शालीन, विद्वत, अनुशासन पसंद आदि जैसे अलग-अलग मिजाज के बादशाह हुए  .. कमोवेश जीवन पर्यंत उनका वही मिजाज कायम रहता था .. प्रशासन चलाने का सबका अपना अलग ढंग और अपनी अलग तरह की प्रशासनिक व्यवस्था होती थी. अर्थात हर बादशाह पहले वाले से कुछ अलग होता था. अब तो सिर्फ चेहरे और मोहरे बदलते हैं व्यवस्था वही रहती है, विपक्ष के रूप में गरजते-बरसते नेता गण सत्ता प्राप्त होते ही गहन मौन साध लेते हैं !!
खैर ! महरौली पुरातत्विक उद्यान में जिस जगह मैं खड़ा हूँ इस स्थान पर इल्तुतमिश के तुर्क गुलाम को लगातार 22 वर्षों, (1266 AD to 1287 AD) तक शासन करने के बाद 87 साल की उम्र में, भारत में पहली बार इंडो-इस्लामिक शैली में निर्मित मेहराबदार मकबरे (Tomb) में चिर निद्रा में लिटा दिया गया था.
     जी हाँ, आप समझ ही गए होंगे मैं सैन्य विभाग को पहली बार स्थापित करने वाले गयासुद्दीन बलबन (1200 AD – 1287 AD) के मकबरे के पास खड़ा हूँ. , प्रशासकीय समय हो या निजी !! हर वक्त अपनी वेशभूषा के प्रति बहुत संजीदा रहने वाला, बलबन ! महरौली पुरातत्विक उद्यान के सुनसान, निर्जन में खुले आसमान के नीचे  लम्बी घास, कंटीली झाड़ियों के साथ, पत्थर, गारे और चूने से निर्मित ऊंची-ऊंची-मोटी वक्त के थपेड़ों से ढहती हुई दीवारों के बीच कब्र में चिर मौन है !! 
       बलबन के दरबार में कठोर अनुशासन था. दरबारी घुटने जमीन पर लगाकर अपने माथे से जमीन को छूकर सुल्तान को अदब फरमाते थे. किसी दरबारी की क्या मजाल ! कि दरबार में हंसने या मुस्कराने की हिमाकत कर कर सके !!  अपने निजाम को दुश्मन से सुरक्षित रखने और प्रजा की राज्य के प्रति वफादारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बलबन ने एक मजबूत और संगठित जासूसी तंत्र स्थापित किया हुआ था. न्याय के मामले में अपने सगे को भी नहीं बख्शता था ..
      बलबन काल में किसी में भी नौकर या गुलाम पर अत्याचार करने की हिम्मत न थी.  हर महकमे व राज्य के विभिन्न भागों में गुप्त सूचना देने वाले और समाचार लेखक नियुक्त किये गए थे.
       एक बार मिली शिकायत के अनुसार बदायूं के बड़े साहूकार मलिक बरबक द्वारा अपने नौकर की हत्या करने पर बलबन ने साहूकार को तो मौत की सजा दी ही लेकिन साथ ही जासूसी रिपोर्टर द्वारा समय पर सूचना न देने को सुल्तान के प्रति अपराध ठहराते हुए बदायूं क्षेत्र के जासूसी से सम्बंधित रिपोर्टर को भी मृत्यु दंड दे दिया..
        हर बादशाह में कुछ कमियाँ भी थी तो कुछ खूबियाँ भी !
बहरहाल !! बलबन काल और आधुनिक प्रशासन व्यवस्था में मीडिया और जासूसी तंत्र के राज्य द्वारा उपयोग के सम्बन्ध में कुछ तुलना तो की ही जा सकती है ..




उत्तराखंड की परम्पराएं ( Tradition Of Uttarakhand )




उत्तराखंड की परम्पराएं ( Tradition Of Uttarakhand )

      शहरों की शादियों में जहाँ एक ओर दूल्हे द्वारा मंहगी से मंहगी सवारी प्रयोग करने का चलन बढ़ रहा है वहीँ उत्तराखंड के ग्राम्य परिवेश में आधुनिकता की दस्तक के बावजूद भी पुरानी शालीन व समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराएँ कायम हैं..
     विवाह के शुभ अवसर पर डोला-पालकी परम्परा के अंतर्गत वर (दूल्हा) पीले वस्त्र धारण कर नारायण स्वरूप में पालकी में बैठकर लक्ष्मी (दुल्हन) के द्वार पहुँचते हैं .. दुल्हन डोले में बैठकर ससुराल आती है ..
     पुराने समय में सड़कें बहुत कम थी ! आज की तरह वाहन उपलब्धता भी न थी ! लम्बे दुर्गम मार्गों पर  बाराती पैदल चलते थे अतः डोला - पालकी परंपरा को विवाह के अवसर पर दूल्हे व दुल्हन को विशिष्ट दर्जा दिलाने वाली परंपरा भी कहा जा सकता है ..
      आज अधिकतर क्षेत्रों के सडकों से जुड़ने व वाहन सुलभता के कारण ये परंपरा भी सिमट रही है लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी प्रतीक रूप में सही लेकिन डोला-पालकी परम्परा का निर्वहन अवश्य सुनिश्चित किया जाता है।
        सरोळा जी द्वारा..सूखी लकड़ियों की आग में ... भडडू में पकाई गई नौरंगी दाल.... कढाई में पका भात ... और पंगत में बैठकर सहज, स्वाभाविक व स्व अनुशासन में बारात भोज का आनंद ही अलग है।
इन लोक परम्पराओं से बच्चों में बचपन से ही सह अस्तित्व, उचित सामाजिक व्यवहार व स्व अनुशासन आदि मानवीय गुण भी विकसित होते रहते हैं ........... भौतिकवाद की चकाचौंध के बावजूद आज भी समृद्ध व शालीन परम्पराओं को बनाए रखने में ग्राम्य समाज का बहुत बड़ा योगदान है।


रुकता नही मगर__



रुकता नही
   मगर__
यादों के निशां
छोड़ जाता है पथिक
वो गुजरेगा कल
फिर इधर से जरूर
अस्तांचल को जाता
    वो अथक पथिक ...

.. विजय जयाड़ा

स्वर्गाश्रम, परमार्थ निकेतन, ॠषिकेश से सूर्यास्त का दृश्य.


एक-दूसरे के पूरक ..( Made For Each Other )




एक-दूसरे के पूरक .. ( Made For Each Other )

      सफ़र में चलते-चलते समूह कार्य भावना को प्रदर्शित करते इस दृश्य को देखकर मन में विचार आया कि व्यक्तिगत स्तर पर स्त्री या पुरुष कितनी भी तरक्की कर ले लेकिन यदि दोनों की व्यक्तिगत शक्ति, कौशल व निपुणता एक दूसरे पर हावी होने में व्यर्थ होने की बजाय, सम्मिलित रूप से पारिवारिक व सामाजिक चादर का ताना-बाना बनें तो पारिवारिक व सामाजिक चादर ज्यादा टिकाऊ, बेहतर व सुन्दर बन सकती है.
      स्त्री-पुरुष में व्यक्तिगत रूप से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तक तो उचित है लेकिन प्रतिस्पर्धा के अनुक्रम में एक दूसरे पर हावी होने की मनोदशा समाज के ताने-बाने को दीर्घावधि में विच्छिन्न करती है. संस्कार रहित समाज का निर्माण करती है. प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने के लिए स्त्री और पुरुष के दूसरे के पूरक हैं.. प्रतिस्पर्धी नहीं !!


जा जा बेटी नागणी बाजार, टिहरी, उत्तराखंड .. Nagni Market, Tehri Garhwal, Uttarakhand )



जा जा बेटी नागणी बाजार, टिहरी, उत्तराखंड  .. Nagni Market, Tehri Garhwal, Uttarakhand )

         नेगी दा के इस गीत पर हम नागणी बाजार सुबह कुछ जल्दी पहुँच गए ! अभी बाजार बंद है इसलिए सुनसान है !!
         नेगी दा ने गीत में पिता के बेटी को व्याहने को लेकर चुहलबाजी भरे संवाद में जिस रोचकता के साथ उत्तराखंडी भोज्य, कोदे (मंडूवे) से बने बाड़ी, झंगोरे (समा के चावल) से बने छंछेंडू के साथ-साथ, फाकरा पोली .. और लोक पहनावे, पछेंडू और चोली का भी जिक्र किया है उसके प्रति आगे के सफ़र में जिज्ञासा रहेगी ....
       नागणी बाजार में इससे पहले भी पूरी के आकार के बड़े-बड़े उड़द स
े बने पकोड़ों का आनंद ले चूका हूँ..
        नेगी दा के गीतों के हर बोल व संगीत में उत्तराखंड की संस्कृति जीवंत परिदृश्यत होती है. जो पूरे उत्तराखंड को एक सांस्कृतिक डोर में गूथती हुई बढ़ती चली जाती है .
          गीत गाने वाले व रचने वाले अन्य भी अच्छे गायक और रचनाकार हैं लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैं नेगी दा का प्रशंसक हूँ ... उनके लेखन व आवाज में उत्तराखंड की बोळी की स्वाभाविक सरलता व मिठास, प्राकृतिक सौंदर्य, इतिहास, लोक परम्पराओं और संस्कृति का निर्झर प्रवाह महसूस होता है 

       कुछ इस तरह भी कहा जा सकता है कि.. नेगी जी के गीत महज गीत ही नहीं .. बल्कि उत्तराखंड का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, लोक परम्पराओं व प्राकृतिक सौंदर्य का सुर व संगीत निबद्ध पुस्तकालय भी हैं.
नेगी दा ... धन्य हो आप ..

https://youtu.be/V3SrX-Kb9HE


चलता-फिरता-बोलता इतिहास



चलता-फिरता-बोलता इतिहास ....

       अनौपचारिक क्षणों की इस तस्वीर में मेरे साथ 87 वर्षीय मेरे ससुर श्री सिंग रोप सिंह तड़ियाल जी हैं. कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो लेकिन जरा सा भी अवसर मिलने पर किसी भी बुजुर्ग जो कि चलते-फिरते और बोलते इतिहास भी हैं, रूबरू होने का अवसर नहीं गंवाना चाहता.
      किताबों को पढ़कर ही किसी विषय पर जानकारी प्राप्त कर स्पष्ट राय बना पाना असंभव है, कुछ जानकारियाँ या तो कलमबंद नहीं हो पाती या विभिन्न कारणों से प्रकाशित नहीं की जाती ! जिससे वो धूमिल होकर विलोपित तक हो जाती हैं !! फलस्वरूप अगली पीढ़ी तक नहीं पहुँच पाती हैं.
      बुजुर्ग ऐसी ही कई जानकारियों का अलिखित पुस्तकालय होते हैं. समयांतराल में विस्मृत घटनाओं व जानकारियाँ व्यवहारिक रूप में बुजुर्गों की याददाश्त का हिस्सा होती हैं. इसलिए बुजुर्गों से संवाद के लिए वक्त निकालना बहुत आवश्यक है.
मेरे लिए मेरे स्वर्गवासी पिता जी पुराने समय की जानकारियों का अथाह व प्रमाणिक श्रोत थे. जब भी ऋषिकेश जाता हूँ तो ससुर जी से पुराने समय की घटनाओं और तत्कालीन सामाजिक ताने-बाने पर चर्चा करना नहीं भूलता.
      सोचता हूँ हमें अपने बुजुर्गों के अनुभव परिपूर्ण ओज क्षेत्र में रहकर सहज रूप में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक थाती को संस्कारों में अगली पीढ़ी तक पहुंचाना अपना धर्म समझना चाहिए..
       यकीन कीजियेगा !! मेरी यात्रा डायरी में साक्षर व निरक्षर दोनों ही तरह के बुजुर्गो का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में महत्वपूर्ण योगदान होता है.


धरासू बैंड ... उत्तरकाशी



धरासू बैंड ... उत्तरकाशी

        चिन्याली सौड़-बडेथी-धरासू क्षेत्र, 1990-93 के दौरान मेरी कर्म भूमि रहने और यहाँ समाजोपयोगी कार्यों को हाडतोड मेहनत उपरान्त सफलतापूर्वक निष्पादित करने को लेकर मेरी स्मृतियों में गहराइयों से जुड़ा है. यहाँ स्वयं द्वारा किये गए कार्यों पर मुझे शालीन गर्व भी है. उस दौरान प्राप्त स्थानीय सहयोग के लिए मैं इस क्षेत्र के निवासियों का सदैव कृतज्ञ हूँ..
       ऋषिकेश से गंगोत्री की तरफ चलने पर चंबा से उत्तरकाशी के लिए टिहरी बाँध झील के साथ-साथ बनी नयी सड़क से झील का नजारा देखते हुए पर चलने पर छोटे से कस्बे, धरासू (ऋषिकेश से 135 किमी.) से एक-डेढ़ किमी. आगे बढ़ने पर चार धाम यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव " धरासू बैंड " आता है चार धाम यात्रा में प्रथम दर्शन यमनोत्री धाम के किये जाते हैं. छोटी-छोटी दैनिक आवश्यकताओं के सामान की अस्थायी दुकानों वाले धरासू बैंड से यमनोत्री 109 किमी. और गंगोत्री 128 किमी. की दूरी पर है.
       गंगोत्री व यमनोत्री धामों की यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव होने और वन विभाग भूमि क्षेत्र होने के कारण यहाँ प्रशासन द्वारा यात्रियों के लिए स्वच्छता,आवास, भोजन व चिकित्सा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु उचित व्यवस्था किये जाने की दरकार है.
ऋषिकेश से उत्तरकाशी की बस में बैठे यात्री यहाँ उतरकर बस या जीप से यमनोत्री की तरफ प्रस्थान करते हैं.
       धरासू में मनेरी- भाली जल विद्युत परियोजना, द्वितीय चरण के अंतर्गत भागीरथी नदी पर सन 2008 में 304 मेगावाट विद्युत उत्पादन की क्षमता वाला धरासू पॉवर स्टेशन स्थापित किया गया है.
तब से अब तक लम्बा अरसा गुजर गया है ! संभव है कि यहाँ के लोगों के मन-मस्तिष्क में मुझसे जुडी यादें धूमिल पड़ गयी हों ! लेकिन जब भी इधर से गुजरता हूँ तो पुरानी यादें बरबस ही ताजा हो आती हैं....


जन - जीवन



       यहाँ दिल्ली में जिस सड़क से रोज स्कूल जाता हूँ उस पर कुछ वर्ष पहले सरकार द्वारा दुतरफा यातायात सुचारू आवागमन के उद्देश्य से सड़क को विभाजित करती दीवार पर 3-4 किमी. लम्बी करोड़ों रुपये लागत की आदमकद हैवी आयरन रेलिंग लगायी गई लेकिन एक वर्ष में ही, जिस सड़क पर हर समय गाड़ियां दौड़ती रहती हैं .. आयरन रैलिंग नशेड़ियों व कबाड़ियों के माध्यम से पुन: उन्हीं भट्टियों में गलने के लिए पहुँच गयी जहाँ से ढलकर आई थी !!
       हारकर सरकार ने आयरन रेलिंग की जगह बोगेंवेलिया के झुरमुट लगा कर सड़क को विभाजित रखना उचित समझा !!
       एक दिन केबल चोर बैंक की नेटवर्क केबल को चुरा ले गए .. दिन भर बैंक में काम नहीं हो सका ! फिर पब्लिक का हंगामा !! बैंक कर्मचारी परेशान !!!
       आए दिन दिल्ली में जेबतरासी, गहने झपटमारी और वाहन चोरी होने की खबरें ! आम बात हो गई है।
        उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थिति कुछ भिन्न है ! निर्जन और सुनसान जंगलों के बीच से गुजरती सड़कों पर भी सड़कों के किनारे लगे धातु की मजबूत चादर से बने साइड प्रोटेक्टर्स को ज्यों का त्यों पाता हूँ !! जो किसी कारण क्षति ग्रस्त हो जाते हैं वो भी वैसे ही पड़े रहते हैं !!
       जंगलों के वीरानों में मोबाइल टावर के केबल यूँ ही पड़े रहते हैं !! न उनको कोई क्षति पहुंचाता है न चुराता है !! खुले में सड़कों के किनारे बिजली के खम्भों पर मीटर इतनी ऊँचाई पर लगे हैं की 5-7 साल का खुरापाती बच्चा खड़े-खड़े नुक्सान पहुंचा सकता है. लेकिन सारे मीटर सुरक्षित रहते हैं !!
         उत्तराखंड के पहाड़ी व दूरदराज के क्षेत्रों में जेबतरासी व गहने झपटमारी कतई नहीं, निजी व सार्वजनिक वाहन सुनसान स्थानों पर खड़ा करके बेफिक्र लोग अपने घर चले जाते हैं लेकिन वाहन फिर भी सुरक्षित हैं।
       आर्थिक दृष्टि से समाज की तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि अमीरी, गरीबी, चोर,कबाड़ी, उग्रपंथी और नशेड़ी तो हर जगह है लेकिन इस तरह के ही कुछ अंतर हैं जो उत्तराखंड के समाज को देश के अन्य भागों में भी विश्वसनीयता व सम्मान जनक स्थिति प्रदान करते हैं.
       सुखद प्रतीत होता है कि तेजी से दूषित होते समाज के बावजूद आज भी उत्तराखंड में सार्वजनिक जीवन में नैतिक मानदंड कायम हैं फलस्वरूप व्यक्तिगत संपत्ति के साथ-साथ सार्वजनिक संपत्ति भी सुरक्षित है.
        संभव है कि गैर उत्तराखंडी साथियों को ये सब अतिश्योक्ति पूर्ण लगे लेकिन ... जो साथी उत्तराखंड प्रवास पर गए होंगे उन्होंने ये सब अवश्य अनुभूत किया होगा .