Thursday 28 January 2016

स्वतंत्रता सेनानी स्मारक ..सलीम गढ़ किला, दिल्ली



स्वतंत्रता सेनानी स्मारक ..सलीम गढ़ किला, दिल्ली

           1546 में सूर वंश के सलीम शाह (शेर शाह सूरी का पुत्र) द्वारा लाल किले से पुल के माध्यम से जुड़े, जमुना के टापू पर निर्मित, सुनसान वनाच्छादित सलीम गढ़ किला आजादी के परवानों के जज्बे का मूक गवाह है. राजकीय बंदियों को बंधक रखने के इतिहास के मद्देनजर इस किले की तुलना इंग्लैण्ड के टावर ऑफ़ लन्दन से की जाती है जहाँ राजकीय बंदियों को यातनाएं दी जाती थी जिससे कई बंदी मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे.
           1945 से देश के आजाद होने तक 1947 तक यहाँ आजाद हिन्द फ़ौज (INA) के युद्ध बंदियों को रखा गया, जिनमें से अनेक युद्धबंदी दी गयी यातनाओं के कारण शहीद हो गए . वर्तमान में किला परिसर में तीन संग्रहालय भवन हैं जो अंग्रेजों के समय बैरक थी. तब इनको आजाद हिन्द फ़ौज के युद्धबंदियों को कैद रखने के लिए कारागार में तब्दील कर दिया गया था..
          महाभारत काल से सम्बन्ध रखते, सलीम गढ़ किले का बंदीगृह के रूप में इस्तेमाल की कहानी औरंगजेब काल से प्रारंभ होती है जब उसने अपने बड़े भाई मुराद बक्श को यहाँ कैद रखा था।
कहा जाता है कि औरंगजेब की सबसे बड़ी बेटी जेबुनिशा ने छत्रपति शिवाजी से लगाव के कारण शिवाजी को फलों की टोकरी के माध्यम से अपनी पिता की कैद से निकलने में सहायता की थी. जिस कारण क्रुद्ध औरंगजेब ने जेबुनिशा को ताउम्र सलीम गढ़ में कैद रखा. (सन्दर्भ - Royal Mughal Ladies and Their Contributions-. By Soma Mukherjee)
          1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन में बहादुर शाह जफ़र इस किले की दीवारों पर चढ़कर अपने सैनिकों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ कार्यवाही को देखता था. निर्वासित हुमायूँ ने अपना राज्य पुन: प्राप्ति के क्रम में इस किले में तीन दिन डेरा जमाये रखा और लाल किला तैयार होने से पूर्व शाहजहाँ ने कुछ समय यहाँ निवास किया था.
कही – सुनी कहानियों के अनुसार चांदनी रात में जेबुनिशा काले गाउन में अपनी लिखी कविताओं को पढ़ती देखी गयी है यह भी कहा जाता है कि परिसर में यातनाओं के कारण मृत्यु को प्राप्त सैनिकों की चीखें और कराहने की आवाजें भी सुनी गयी हैं ..
          आजाद हिन्द फ़ौज के शहीद युद्धबंदियों की याद में सलीम गढ़ किले का नाम बदल कर स्वतंत्रता सेनानी स्मारक कर दिया गया, जहाँ INA से सम्बंधित सामग्री का ऐतिहासिक संग्रहालय है, लेकिन विडंबना ही कहूँगा रोज हजारों पर्यटक लाल किला देखकर वापस चले जाते हैं .. लेकिन गिनती के ही पर्यटक इधर का रुख करते हैं !! मुझे एक भी पर्यटक परिसर में नहीं दिखाई दिया !!
                  सोचता हूँ कि बच्चों को शॉपिंग मॉल और मनोरंजन पार्कों की चमक-धमक दिखाने के साथ-साथ स्वतंत्रता सैनानियों के पर्यटकों से उपेक्षित इन तीर्थों को दिखाने के लिए भी समय निकाला जाना चाहिए।
जय हिन्द .. वन्देमातरम.. के नारों में वास्तविक देशप्रेम के भाव तभी उमड़ सकते हैं जब हम पूर्वजों द्वारा देश की आजादी के लिए दी गयी कुर्बानी को किसी न किसी रूप में सुनें ... प्रत्यक्ष उसके निशान देखें.. उस काल खंड में खोकर कुछ अनुभूत करें... नहीं तो ये भावरहित कोरे नारे ही साबित होंगे !!


फांसी घर.. पुरानी जेल ..दिल्ली



फांसी घर.. पुरानी जेल .. दिल्ली

              इस शिला पट्ट पर उत्कीर्ण नाम श्रृंखला के हर नाम को पढ़कर बरबस ही होंठों पर, कवि प्रदीप द्वारा रचित व सी. रामचंद्र द्वारा संगीतबद्ध, स्वर कोकिला लता मंगेशकर द्वारा गाए गए अमर गीत की पंक्तियाँ ..
“ ... कोई सिख कोई जाट मराठा,..कोई गुरखा कोई मदरासी,.... सरहद पर मरने वाला..., हर वीर था भारतवासी “ आ जाती हैं .. आप भी तस्वीर में उत्कीर्ण नामावली अवश्य पढियेगा.
          ये अमर स्थल, जाति, धर्म, भाषा व क्षेत्र से ऊपर उठकर एक ही मजहब, देशप्रेम को अपनाकर, देश को आजाद करने में फांसी के फंदे को इस स्थान पर हंसकर चूमने वाले अमर देश भक्तों का स्वातंत्र्य तीर्थ .. “ फाँसीघर “ अर्थात पुरानी जेल.है.
          बहादुर शाह जफ़र मार्ग, दिल्ली स्थित इस ऐतिहासिक स्थल को बाद में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में तब्दील कर दिया गया. यह स्वातंत्र्य तीर्थ, कॉलेज के विशाल परिसर में अब एक छोटे से पार्क में सिमटकर रह गया हैं .
           अब यहाँ कोई ऐतिहासिक अवशेष नहीं !! वक्त के साथ तत्कालीन व्यवस्था को यहाँ से हटा गया और लगा दिया गया आधुनिक ग्रेनाइट शिला पट्ट !! कारण कुछ भी रहे हों ! कारणों पर बहस नहीं करना चाहूँगा ..
            दिल्लीवासी तो क्या परिसर में रहने वाले अधिकतर बासिंदों को भी इस ऐतिहासिक स्थान के महत्व की जानकारी नहीं है .. साल में एक दिन सरकारी अमला यहाँ आता है .. शहीदों का यशोगान किया जाता है और फिर साल भर चहल पहल भरे परिसर में ये तीर्थ वीरान हो जाता है !!
            ये कटु सत्य कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि हम बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन विभिन्न “ वादों “ की परिधि से बाहर नहीं निकल पाते हैं ..
            व्यक्ति राष्ट् से बढ़कर नहीं हो सकता। राष्ट्र की परिधि में ही व्यक्ति का सम्मान सुनिश्चित होता है। शायद ये शिलापट्ट राष्ट्रधर्म से भटके लोगों को सार्थक दिशा देने में कामयाब हो सके। विभिन्न " वाद " भी राष्ट्र तक ही सीमित हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि अन्तराष्ट्रीय परिदृश्य पर हमारी पहचान केवल और केवल भारतवासी के रूप में ही होती है।


Tuesday 26 January 2016

सांस्कृतिक वैभव जो अतीत के पन्नों में धुंधला गया .. मेहरौली



सांस्कृतिक वैभव जो अतीत के पन्नों में धुंधला गया .. मेहरौली

             दुनिया के पर्यटन व पुरातात्त्विक मानचित्र पर दिल्ली का महरौली क्षेत्र, 72.5 मी. ऊँची व 379 सीढ़ियों वाली इमारत, कुतुबमीनार के लिए प्रसिद्ध है, ये तोमरों और अंतिम हिन्दू चौहान शासकों के शक्ति केंद्र, लाल कोट ( प्रथम दिल्ली) के समीप स्थित है.
              एक विचारधारा के अनुसार लालकोट (राय पिथौरा), दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को महाभारत काल की वंशावली में अंतिम हिन्दू राजा माना जाता है वे शब्द भेदी बाण (शब्दभेदी बाण = आवाज की दिशा में बाण द्वारा लक्ष्य साधने की कला) चलाने में पारंगत एकमात्र योद्धा थे, उनकी मृत्यु के बाद ये कला समाप्त हो गयी.
                                             "चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
                                                 ता ऊपर है सुल्तान मत चुको चौहान।"

                            मुहम्मद गौरी ने हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान को परास्त करने के बाद अपने दास कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में प्रशासन सँभालने के लिए रख छोड़ा था.
सन 1193 में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा प्रारंभ किए गए कुतुबमीनार के निर्माण को पूर्ण करने में तीन पीढ़ियों द्वारा कुल 175 वर्ष का समय लिया गया.
               भारत में स्थित प्राचीनतम मस्जिद या जिसे प्रथम मस्जिद भी कहा जा सकता है, कुतुव्वुल इस्लाम मस्जिद, कुतुबमीनार के उत्तरी हिस्से में है. इसका निर्माण स्थानीय कारीगरों की मदद से जल्दबाजी में किया गया।
                आक्रांता, विजय उपरांत सबसे पहले अपने धार्मिक स्थल का निर्माण करते थे। कुतुव्वुल इस्लाम मस्जिद निर्माण के लिए तत्कालीन स्थानीय धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कर उनके मलबे को निर्माण में प्रयोग किया गया। मस्जिद की छत को आधार देते ये मूक खम्भे उन्हीं 27 जैन और हिन्दू धार्मिक स्थलों का अवशेष हैं, जो उस काल खंड की बर्बरतापूर्ण व सांस्कृतिक हमले की दास्तान बयान करते जान पड़ते हैं।
                कुतुब मीनार कॅाम्पलैक्स में लगभग 42 पुरातात्त्विक इमारत व भग्नावशेष हैं लेकिन सामान्य पर्यटक अज्ञानतावश इन खम्भों को विशेष महत्व न देकर प्रांगण में स्थित लौह स्तम्भ के आस पास या कुतुब मीनार के साथ अपनी तस्वीर क्लिक करवाते दिखाई देते हैं ..
                अजंता और एलोरा की मूर्तियों को तो मिटटी से ढक कर बचा दिया गया लेकिन यहाँ खम्भों पर उत्कीर्ण हिन्दू, देवी देवताओं की मुखाकृतियों को मूर्ती पूजा विरोधी आक्रान्ताओं के प्रहार से बचाया न जा सका .. पाषाण खण्डों पर उत्कीर्ण इन खंडित कला कृतियों को अजंता, कोणार्क और खजुराहो से कम नहीं आंका जा सकता.. ( तस्वीर में पाषाण खम्भों के शीर्ष पर अलंकृत कोनों पर गौर कीजियेगा)
                  लालकोट (प्रथम दिल्ली) के अवशेषों पर उत्कीर्ण इस पुरातात्विक स्थान की कहानी, हालांकि 1193 से अर्थात आज से मात्र 822 साल पहले से प्रारंभ मानी जाती है लेकिन मस्जिद प्रांगण में स्थित, सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं ) द्वारा स्थापित, शताब्दियों से जंग रहित लौह स्तम्भ (गरुड़ ध्वज), इस स्थान के महत्व व वैभवपूर्ण अतीत को और भी पुराना साबित करता है.
                 मैं न इतिहासकार हूँ न पुरातत्वविद, देखकर व बहुकोणीय अध्ययन उपरांत जो कुछ अनुभव करता हूँ बिना पूर्वाग्रह के आपके साथ साझा कर लेता हूँ..


बस एवें ही .. ठाले ठाले !!



बस एवें ही .. ठाले ठाले !!

                         अक्सर जब कोई भी व्यक्ति दिल्ली भ्रमण पर या किसी अन्य कार्यवश आता है तो समय मिलते ही पुरातात्त्विक स्मारकों पर जाना उसकी प्राथमिकताओं में होता है. भारत ही नहीं दुनिया में पुरातात्त्विक महत्व के स्मारकों को संरक्षित रखने में अच्छी-खासी राशि व्यय की जाती है. प्राय: इन स्थानों पर हम जाते हैं इमारतों, कृतियों को निहारते हैं .. उनको देख विस्मित होते हैं !! यादगार के रूप में तस्वीर क्लिक करते हैं और अगले गंतव्य की तरफ चल देते हैं..
                        कुछ “अति उत्साही”, कुछ स्मारकों को आक्रान्ताओं की बर्बरता के निशान कहकर, इनके महत्व को सिरे से ख़ारिज करते हुए ढेरों तर्क-कुतर्क करते हैं !
                      प्रश्न उठता है क्या सरकार, देश की आम जनता के धन में से भारी-भरकम राशि केवल क्षणिक मानसिक सुख या मनोरंजन के लिए व्यय करती है ?? या बर्बरता के निशान दिखाना ही उद्देश्य है ?
                      कई प्रदेशों के संरक्षित स्मारकों के अवलोकनोपरान्त व्यक्तिगत रूप से सोचता हूँ .. ऐसा नहीं !! पुरातत्व महत्व के स्मारक हमें जाने-अनजाने में बहुत कुछ सीख दे जाते हैं .. क्योंकि हमें इतिहास अच्छाइयों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने और अतीत में की गयी गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ने को प्रेरित करता है , यदि उन बातों पर चर्चा हो तो कितना अच्छा हो !! ... खैर !! फर्क सिर्फ नजरिये का है !!
इन स्मारकों को देखकर मानस-पटल पर महाभारत धारावाहिक का शीर्षक गीत जीवंत हो आता है ... “ .............सीख हम बीते युगों से .. नए युग का करें स्वागत .....
             बहरहाल, 1236 में बना, भारत में ये दूसरा सबसे प्राचीन इस्लामिक मकबरा है। जो इल्तुतमिश का है।
              भारत मे सबसे पुराना और पहला इस्लामिक मकबरा इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का है जो 1231 में मलकपुर गांव, दिल्ली में सुल्तान गढ़ी मकबरे के नाम से जाना जाता है।

ग़ालिब की हवेली



 इतिहास के झरोखे से दिल्ली : ग़ालिब की हवेली

महकती थी तब शायरी अब वीराना है यहाँ !
दीवारें बयाँ करती हैं कि ग़ालिब रहते थे यहाँ !!
..विजय जयाड़ा

            किताबों में पढ़ा कि चांदनी चौक (शाजहनाबाद) की गलियां जिसने नहीं देखी .. उसने दिल्ली नहीं देखी... तो मैं भी जोश में चल पड़ा, चांदनी चौक !!
           पूछते-पुछाते बल्लीमारान वाली सड़क पर २०० कदम चलकर सीधे हाथ पर गली, कासिम जान की ओर मुड़ा ही था कि बाएं हाथ की तरफ, तीसरे या चौथे घर पर " ग़ालिब की हवेली ". लिखा देख लिया .. अन्दर पहुंचा तो चचा ग़ालिब मसनद पर टेक लगाये .. एक हाथ में हुक्के की लम्बी नाल लिए बुझे-बुझे से कुछ लिख रहे थे ..
न कोई तकल्लुफ न कोई चाय-पानी !! .. ऐसा लगा जैसे चचा खुद को विला वजह व्यस्त जताने की कोशिश कर रहे हैं ...
           लेकिन कर भी क्या सकता था .. सोचा.. लगे हाथों क्यों न छुप्पे से चचा के साथ एक फोटो ही ले लिया जाय !! .
           कैमरा देखते ही चचा फुर्सत में हो लिए तो मौके का फायदा उठाकर हाल चाल पूछने की हिम्मत की .. चचा मसनद को गोद पर रख कर मुझसे मुखातिब होते हुए शायराना अंदाज में उखड़े उखड़े से बोले.. " मास्साब !! ...


                                रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
                               रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है.."

 
... चचा की मजबूरी से इशारों- इशारों में हमदर्द जताई. अब मिर्जा साहब के उखड़े उखड़े अंदाज का सबब भी समझ में आ गया !!
आज फिर मिर्जा साहब को " उस कूचे " से गुज़रते हुए बेगम साहिबा ने देख लिया होगा !! पेंसन बिना खस्ता माली हालात से जूझ रहे चचा ग़ालिब को फिर आज फजीहत नसीब हुई होगी .. 

वर्ना ...चचा तो ऐसे ना थे ...

Friday 8 January 2016

सहिष्णुता



सहिष्णुता

        लक्ष्मण झूला से कुछ आगे घट्टू गाड पर कुछ देर रुकने का मन हुआ तो दुकान पर मोती से भी मुलाकात हो गयी. जानकारी करने पर पता लगा कि ये दो भाई हैं एक कुछ दूर गाँव में रहता है और मोती को दुकान पर रहना अच्छा लगता है !!
       आज के दौर में जब मानव - मानव से भाई - भाई से दूरी बना रहा है, मोती ने अपना धर्म नहीं छोड़ा है !! रोज सुबह मुंह अँधेरे सबसे पहले अपने भाई से मिलने दूर गाँव में जाता है उसके बाद यहाँ आकर दुकान पर बैठ जाता है !!
        हम जानवरों में श्रेष्ठ कहलाने वाले मनुष्य सहिष्णुता व असहिष्णुता के पक्ष और विपक्ष में स्वसुविधानुसार तर्क और कुतर्क देते ही रहते हैं !! अगर संजीदगी से गौर किया जाय तो प्राय: दुत्कार का पात्र समझा जाने वाला जानवर कुत्ता, मोती, .....  श्रेष्ठ जानवर मानव को प्रत्यक्ष तौर पर सहिष्णुता से रहने का सार्थक सन्देश देता जान पड़ता है ..


Monday 4 January 2016

स्वातंत्र्य वीर तीर्थ : बंदीगृह, थाना संसद मार्ग, नयी दिल्ली



 स्वातंत्र्य वीर तीर्थ : बंदीगृह, थाना संसद मार्ग, नयी दिल्ली

          दिल्ली में तीन माह से वेतन न मिलने के कारण आन्दोलन कर रहे हम सभी शिक्षकों को जब संसद मार्ग थाना परिसर में सामूहिक गिरफ्तारी के तहत रखा गया तो मेरी निगाहें इस ऐतिहासिक थाना परिसर में कुछ तलाश रहीं थीं ! जहाँ चाह ! वहां राह !! तैनात पुलिसकर्मियों से जानकारी लेने पर तलाश पूरी हुई और मुझे एक और स्वातंत्र्य वीर तीर्थ के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया !!
         ये वह बंदीगृह है जहाँ स्वातंत्र्यवीर भगत सिंह को संसद में बम विस्फोट करने के तुरंत बाद कुछ समय बंदी रखा गया था.
          दरअसल चंद्रशेखर आजाद ने निर्णय लिया था कि सेंट्रल असेम्बली (संसद भवन) में बम फेंककर ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी जाये कि भारत को तुरंत आजाद किया जाये वरना भयंकर सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ किया जायेगा. इस कार्य की जिम्मेदारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को दी गई. 8 अप्रैल 1929 को इस कार्य के लिये तय किया गया। दोनो क्रांतिकारी पत्रकार के. सी. राय के माध्यम से सदन मे प्रवेश कर दर्शक दीर्घा मे ऐसी जगह जाकर बैठ गये जहाँ से बम पूर्व निर्धारित निशाने पर फेंके जा सकें। वास्तव में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दो बम ऐसे स्थान पर फेंके जहाँ पर सरकारी पक्ष के सदस्य बैठे थे. बमों के फटने से जोरदार धमाका हुआ और सदन में धुआँ फैल गया। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो भाग सकते थे क्योंकि वहाँ अफरा तफरी मच गयी थी लेकिन उन्होंने दर्शक दीर्घा में ही खडे रह कर लाल पर्चे फेंके जिनमें स्पष्ट किया गया था कि अंधी और बहरी अंग्रेजी सरकार को राष्ट्रीय संकल्प से अवगत करने के लिये इन बमों के द्वारा किया गया धमाका जरूरी था. पुलिस द्वारा उन्हे गिरफ़्तार कर बेहूदा व्यवहार करते हुए पहले इसी संसद मार्ग थाने और फिर चांदनी चौक पुलिस स्टेशन ले जाया गया था.
          इसे संयोग ही कहूँगा अन्यथा सामान्य परिस्थितियों में थाना परिसर के अन्दर पहुंचकर इस स्वातंत्र्य वीर तीर्थ की जानकारी और दर्शन कर पाना असंभव सा ही था !!


  वंदीगृह के अन्दर का दृश्य .....