Friday 30 September 2016

संरक्षण की गुहार लगाती “ खजांची की हवेली “ ( Khajanchi Ki Haveli ) : दरीबां, चांदनी चौक




संरक्षण की गुहार लगाती “ खजांची की हवेली “  : दरीबां, चांदनी चौक ....

       1650 में शाहजहाँ की प्रिय बेटी और वास्तुकार जहाँआरा ने लाल किले से फतेहपुरी मस्जिद के बीच 1520 गज लम्बी और 40 गज चौड़ी सड़क के दोनों ओर 1560 दुकानों वाले चांदनी चौक बाजार को मूर्त रूप दिया. बाज़ार तो समय के साथ स्वरुप बदलता गया लेकिन चांदनी चौक क्षेत्र में तत्कालीन ओहदेदारों, सेठ-साहूकारों व प्रतिष्ठित लोगों की अतिक्रमण ग्रस्त और खंडहर होती तत्कालीन हवेलियाँ आज भी उनमे उस समय बसने वाली रौनक को महसूस करा सकने में सक्षम हैं.
     लाल किले की तरफ से गुरुद्वारा शीशगंज साहिब से पहले बायें हाथ पर दरीबां की तरफ नुक्कड़ पर सौ साल पुरानी जलेबी की दुकान, ‘जलेबी वाला’ है. वहीँ से दरीबां की तरफ कुछ आगे चलने पर बाएं हाथ पर गली खजांची का बोर्ड लगा दिख जाता है इस तंग गली के मुख्य द्वार से लगभग 50 मी. दूरी पर सैकड़ों वर्ष पुरानी अतिक्रमण ग्रस्त व खंडहर हालत में “ खजांची की हवेली “ तक पहुंचा जा सकता है.
इस गली में मुगलकाल में शाही खजांची का निवास होने के कारण गली का नाम, ' गली खजांची ' हो गया.
      कहा जाता है कि खजांची की हवेली से लाल किला तक राजकोष के धन को लाने- ले जाने की सुरक्षित व्यवस्था के मद्देनजर भूमिगत सुरंग थी जिसे बाद में लाल किला की सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए बंद कर दिया गया. खुले आसमान के नीचे मौसम की मार सहते, खँडहर हो चुकी हवेली के बचे-खुचे मेहराबों को सँभालने की कोशिश में आज भी जुटे सफ़ेद संगमरमर के स्तम्भों पर उत्कीर्ण संगतराशी के नमूने, आज भी हवेली के अतीत के वैभव को बयाँ करते जान पड़ते हैं. ताज महल के संगमरमर के जैसे पत्थर से बने सुन्दर छज्जों की जगह ईंट-गारे से निर्मित नीरस आकृतियों ने ले ली है.
    साझा संपत्ति की उलझन में रख-रखाव को तरसती बेजार बूढी हो चुकी हवेली हर पहुँचने वाले से अपने संरक्षण की गुहार लगाती सी जान पड़ती है. दिल्ली नगर निगम द्वारा अधिसूचित 767 संरक्षित, संरचनाओं और भवनों की सूची में इस हवेली का शामिल न होना ! आश्चर्यजनक महसूस होता है !! इसके विपरीत निगम की सूची को चुनौती देती Intach की जिस सूची में निगम से अलहदा 738 संरचनाओं व भवनों को शामिल किया गया है उसमे ‘ खजांची की हवेली ‘ को शामिल किया गया है ! जो निगम के सम्बंधित विभाग की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिह्न है !!
        सैकड़ों साल के इतिहास की गवाह चांदनी चौक को विश्व विरासत शहर घोषित करने की बात तो अक्सर की जाती है लेकिन जिन विरासतों को लेकर यह बात कही जाती है वो विरासतें दिन प्रति दिन दुकानों, व्यावसायिक व अतिक्रमण गतिविधियों के कारण समाप्त होती जा रही हैं ! पूर्व शहरी विकास मंत्री श्री जगमोहन सिंह व सांसद श्री विजय गोयल द्वारा ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण केसम्बन्ध में अच्छी पहल की गयी थी लेकिन इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार की तरफ से त्वरित व कठोर दिशा निर्देश जारी करने की आवश्यकता है. क्योंकि कहा भी गया है कि जो अपने इतिहास को भुला देते हैं वो ज्यादा समय टिक नहीं पाते.. मिट जाते हैं !!
     यहाँ बस इतना ही ! अब चलता हूँ अपने अगले गंतव्य.... हक्सर की हवेली.. की तरफ ..


Thursday 15 September 2016

सूत्रधार ....






सूत्रधार ....
               मकड़जाल की तरह गुंथी तंग गलियों में जहाँ घरों को शायद ही सूर्य की सीधी किरणें स्पर्श कर पाती हों ! ... चींटियों की तरह एक के पीछे एक चलते या यूँ कह लीजिए, रेंगते रिक्शे, दुपहिया वाहनों व चलते- फिरते लोगों की भीड़ से बचते-बचाते.. हवेलियों, कटरों, कूचों, छत्तों की बसागत वाली पुरानी दिल्ली (चांदनी चौक) में लक्षित स्थान तक पहुँच पाना, इलाके से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए अगर असंभव नहीं ! तो आसान भी नहीं है !!
              एकाधिक अवसरों पर व्यक्तिगत अनुभव हुआ कि इतिहास में स्थान जिस नाम से विख्यात होता है, वह स्थान या स्मारक, स्थानीय निवासियों में किसी दूसरे ही स्थानीय नाम से प्रचलित होता है !! इस स्थिति में सम्बंधित क्षेत्र में पहुँचने पर भी इच्छित जगह न मिल पाने के कारण मन में हताशा और निराशा घर करने लगती है. इस कारण थक हारकर बैरंग ही लौट चलने का जी करने लगता है.
            अक्सर महसूस किया है कि हताशा की इस स्थिति में यदि सब्र, नम्रता व व्यवहार कुशलता को माध्यम बनाया जाए तो अंत में कोई न कोई स्थानीय उम्र दराज निवासी आपको मंजिल तक पहुंचाने में मददगार साबित हो सकता है. इस प्रकार लक्षित स्थान मिलने पर जो खुशी मिलती है उसको शब्दों में बयाँ करना कठिन है। बस यूँ मान लीजिए ऐसा अनुभव होता है कि मानों संजीवनी बूटी मिल गई !
            भुलक्कड़ प्रवृत्ति का होने के कारण मुझे अक्सर इस तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है !चांदनी चौक क्षेत्र में इस बार स्थानीय निवासी श्री प्रवीण कुमार जी, स्थानीय अबूझ जानकारियों के सूत्रधार बने.. धन्यवाद श्री प्रवीण कुमार जी ..



Monday 12 September 2016

बकरीद ( Bakreed )



राह चलते बस यूँ ही....

         गंतव्य की तरफ बढ़ रहा था तभी जामा मस्जिद से लाल किले की तरफ जाने वाली सड़क के दोनों तरफ खूब चहल-पहल दिखाई दी. बकरों की खरीद-फरोख्त का बाजार लगा था. कौतूहल जगा ! बाइक एक तरफ खड़ी करके माहौल का आनंद लेने लगा. राजधानी में बकरीद के मुकद्दस मौके के करीब आते ही अन्य बाजारों में भी रौनक बढ़ गई है.
       सुना है कि पुरानी दिल्ली के कबूतर बाजार में छोटे अली ने अपने बकरे की कीमत 64 लाख रुपये लगा रखी है. बकरे की खासियत यह है कि इसके शरीर में 'अल्ला हू' और '786' का निशान प्राकृतिक रूप से बना हुआ है.
     पिछले साल बकरीद (Bakreed ) से पहले राजस्थान में एक बकरे को खरीदने के लिए 48 लाख रुपए तक की बोली लग चुकी थी लेकिन बकरे के मालिक गोविंद चौधरी इसे 61 लाख रुपए से कम में नहीं बेचना चाहते थे. बकरे की देखभाल का तरीका आलीशान था. बकरे को बाकायदा कार से लाया ले जाया जाता था. और खाने में सिर्फ मेवे ही दिए जाते थे !
     कुर्बानी की सटीक और सारगर्भित व्याख्या तो मजहब के जानकार ही कर सकते हैं. मैं तो बस इतना जानता हूँ कि बेशक मजहब कोई भी हो लेकिन मजहबी परम्पराओं में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से मानव कल्याणार्थ सार्थक सन्देश अवश्य होता है ! परम्परा को हम किस रूप में, किस तरह निभाते व अपनाते हैं ये व्यक्तिगत विषय हो सकता है लेकिन परम्परा में निहित सन्देश को देश-काल-परिस्थितियों के अनुरूप आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व तथ्यपरक दृष्टिकोण अपनाते हुए सकारात्मक रूप से अपनाने की सम्यक आवश्यकता है ..
       बकरों के इस बाजार में क्रेता और विक्रेता दोनों में खरीद-फरोख्त को लेकर खूब उत्साह था...मेरे लिए यही एक कौतुहल का विषय था लेकिन मुझे अपने इच्छित गंतव्य पर भी पहुंचना था ... अधिक विलंब न करते हुए बढ़ चला अपने गंतव्य की ओर..


Sunday 11 September 2016

गली खजांची है ... Gali Khajanchi





गली खजांची है ! मगर खजांची है न खजाना !!
अब यादों का मंजर हुआ एक खंडहर वीराना !!


Friday 9 September 2016

झरना ( A Waterfall )




झरना

चलना नित
आगे बढ़ना
झर-झर
झरना कहता है
चलते जाना
जीवन है
रुक जाना
मौत समान है.

गति ही
चिर यौवन उसका
यौवन कब __
पीछे देखता है !!
गिरी शिखरों की
गोद से निकल
अब__
पत्थरों से भी टकराना है.
... विजय जयाड़ा

ऐतिहासिक पांडव कालीन श्री योगमाया मंदिर, मेहरौली, दिल्ली .. ( Yogmaya Mandir, Mehroli , Delhi, INDIA )



ऐतिहासिक पांडव कालीन श्री योगमाया मंदिर, मेहरौली, दिल्ली .. ( Yogmaya Mandir, Mehroli , Delhi, INDIA )

      मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं ! प्रथम मानव तत्पश्चात धर्म !!
       इस मन्दिर में आज भी गंगा जमुनी साझा तहजीब बसती है. गौर कीजियेगा तस्वीर में दिख रहे पंखों में साझा तहजीब देखी जा सकती है ..
        बेशक ये तस्वीर गुणवत्ता के मानदंडों पर खरी न उतरे लेकिन बहुत कुछ बोलती है !!


 

' घंटेवाला ' (Ghante Wala ) मिठाई की दुकान : चांदनी चौक दिल्ली ...




' घंटेवाला ' मिठाई की दुकान : चांदनी चौक दिल्ली ...

       जब भी चांदनी चौक जाता था तो “ घंटेवाला “ मिठाई की दुकान पर कुछ हल्का-फुल्का अवश्य खा लेता था लेकिन अबकी बार गया तो... दुकान ही न मिली ! अब वहां शो रूम मिला.
      इन्द्रप्रस्थ-लालकोट से शुरू हुआ दिल्ली का लगभग पांच हजार वर्षों का सफ़र, रायसीना की पहाड़ियों पर जा रुका लेकिन दिल्ली का मिजाज रोज बदल रहा है. कड़ी प्रतिस्पर्धा और निरंतर तकनीकी तरक्की के दौर में आम आदमी का खान-पान भी बदल रहा है. इस कारण आखिरकार 225 साल पुरानी देश-विदेश में प्रसिद्ध “ घंटे वाला “ मिठाई की दुकान 2 जुलाई 2015 को इस बदलाव की भेंट चढ़ गयी और चांदनी चौक की विशिष्ट पहचान, जो इतिहास के कई उतार चढाव की गवाह थी , हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गयी !
     जब वर्ष 1790 में लाला सुखलाल जैन आमेर से दिल्ली आए, तो उन्होंने ठेले पर मिश्री-मावा बेचना शुरू किया, उस समय उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन चांदनी चौक जैसे मशहूर बाज़ार में न सिर्फ उनकी दुकान होगी, बल्कि ' 225 साल पुरानी दुकान ' के रूप में प्रसिद्धि भी हासिल करेगी. यही नहीं, 'घंटेवाला' ने देश के कई प्रधानमंत्रियों से लेकर कई मुगल बादशाहों और विदेशी प्रतिनिधियों तक की सेवा की है, इसके देसी घी और क्रीम से बने सोहन हलवे और कराची हलवे के सभी दीवाने थे.
       'घंटेवाला' नाम के पीछे भी एक कहानी है। पुराने वक्त में यह 'घंटेवाला' एक स्कूल के सामने ठेला लगाकर खड़ा हुआ करता था, जिसके घंटे की आवाज़ लालकिले तक सुनाई पड़ती थी। जब भी 'घंटेवाला' का घंटा बादशाह को सुनाई पड़ता, तत्कालीन मुग़ल बादशाह बादशाह शाह आलम अपने नौकर से 'घंटे के नीचे वाले हलवाई' से मिठाई लाने के लिए कहते थे. ये क्रम अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक चला.
       अब तो यह दुकान बंद हो ही चुकी है, लेकिन इसके मिष्ठान्नों और पकवानों के अनूठे स्वाद को लोग शायद कभी नहीं भूल पाएंगे.
      देश में इस तरह न जाने कितने स्वस्थ भारतीय पारंपरिक पुश्तैनी व्यवसाय, ' तरक्की ' की दौड़ में आर्थिक तंगी के कारण पिछडकर, रोज बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ रहे हैं ! घरेलू व पारंपरिक लघु उद्योगों को सस्ती तकनीकी सहायता उपलब्ध करा कर बचाना आवश्यक है, क्योंकि इन उद्यमों पर देश की बहुत बड़ी आबादी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर है.. कुछ इसी उधेड़बुन में अगले गंतव्य की ओर बढ़ गया !!

Thursday 8 September 2016

सबसे पुराना, ऊँचा और मोटा, देवदार वृक्ष (Oldest, Longest and Thick Trunked Devdar Tree)




सबसे पुराना, ऊँचा और मोटा, देवदार वृक्ष (Oldest, Longest and Thick Trunked Devdar Tree)    

चंद वर्षों के जीवन में ही दूसरों का सब कुछ लूटने की हवस रखने वाले मानव का दंभ तोड़ता भारत का ये सबसे पुराना, ऊँचा और मोटा, (Oldest, Longest and Thick Trunked Devdar Tree)    (6.35 मीटर)  देवदार वृक्ष अनुमानतः 1000 सालों से किसी से कुछ न लेकर और अपनी सेवा का ढ़ोल पीटे बिना, मौन, सभी को नि:स्वार्थ व नि:शुल्क प्राण वायु प्रदान कर रहा है.
     देहरादून, चकराता तहसील से लगभग 30 किमी. दूर,  समुद्र तल से लगभग 7000 फीट की ऊंचाई पर, कनासर के सघन देवदार वन क्षेत्र में, स्वयं में लम्बा इतिहास समेटे इस चिर यौवन लिए, मुस्कराते योगी को देखना कौतुहल उत्पन्न करता है ! इस वृक्ष के सानिध्य में सभ्यता व संस्कृति के न जाने कितने काफिले गुजरे होंगे ! न जाने कितने मानव वंशजों के उत्थान-पतन इस वृक्ष ने देखे होंगे .. अनुभव किये होंगे .. सुने होंगे !!