Tuesday 26 January 2016

सांस्कृतिक वैभव जो अतीत के पन्नों में धुंधला गया .. मेहरौली



सांस्कृतिक वैभव जो अतीत के पन्नों में धुंधला गया .. मेहरौली

             दुनिया के पर्यटन व पुरातात्त्विक मानचित्र पर दिल्ली का महरौली क्षेत्र, 72.5 मी. ऊँची व 379 सीढ़ियों वाली इमारत, कुतुबमीनार के लिए प्रसिद्ध है, ये तोमरों और अंतिम हिन्दू चौहान शासकों के शक्ति केंद्र, लाल कोट ( प्रथम दिल्ली) के समीप स्थित है.
              एक विचारधारा के अनुसार लालकोट (राय पिथौरा), दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को महाभारत काल की वंशावली में अंतिम हिन्दू राजा माना जाता है वे शब्द भेदी बाण (शब्दभेदी बाण = आवाज की दिशा में बाण द्वारा लक्ष्य साधने की कला) चलाने में पारंगत एकमात्र योद्धा थे, उनकी मृत्यु के बाद ये कला समाप्त हो गयी.
                                             "चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
                                                 ता ऊपर है सुल्तान मत चुको चौहान।"

                            मुहम्मद गौरी ने हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान को परास्त करने के बाद अपने दास कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में प्रशासन सँभालने के लिए रख छोड़ा था.
सन 1193 में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा प्रारंभ किए गए कुतुबमीनार के निर्माण को पूर्ण करने में तीन पीढ़ियों द्वारा कुल 175 वर्ष का समय लिया गया.
               भारत में स्थित प्राचीनतम मस्जिद या जिसे प्रथम मस्जिद भी कहा जा सकता है, कुतुव्वुल इस्लाम मस्जिद, कुतुबमीनार के उत्तरी हिस्से में है. इसका निर्माण स्थानीय कारीगरों की मदद से जल्दबाजी में किया गया।
                आक्रांता, विजय उपरांत सबसे पहले अपने धार्मिक स्थल का निर्माण करते थे। कुतुव्वुल इस्लाम मस्जिद निर्माण के लिए तत्कालीन स्थानीय धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कर उनके मलबे को निर्माण में प्रयोग किया गया। मस्जिद की छत को आधार देते ये मूक खम्भे उन्हीं 27 जैन और हिन्दू धार्मिक स्थलों का अवशेष हैं, जो उस काल खंड की बर्बरतापूर्ण व सांस्कृतिक हमले की दास्तान बयान करते जान पड़ते हैं।
                कुतुब मीनार कॅाम्पलैक्स में लगभग 42 पुरातात्त्विक इमारत व भग्नावशेष हैं लेकिन सामान्य पर्यटक अज्ञानतावश इन खम्भों को विशेष महत्व न देकर प्रांगण में स्थित लौह स्तम्भ के आस पास या कुतुब मीनार के साथ अपनी तस्वीर क्लिक करवाते दिखाई देते हैं ..
                अजंता और एलोरा की मूर्तियों को तो मिटटी से ढक कर बचा दिया गया लेकिन यहाँ खम्भों पर उत्कीर्ण हिन्दू, देवी देवताओं की मुखाकृतियों को मूर्ती पूजा विरोधी आक्रान्ताओं के प्रहार से बचाया न जा सका .. पाषाण खण्डों पर उत्कीर्ण इन खंडित कला कृतियों को अजंता, कोणार्क और खजुराहो से कम नहीं आंका जा सकता.. ( तस्वीर में पाषाण खम्भों के शीर्ष पर अलंकृत कोनों पर गौर कीजियेगा)
                  लालकोट (प्रथम दिल्ली) के अवशेषों पर उत्कीर्ण इस पुरातात्विक स्थान की कहानी, हालांकि 1193 से अर्थात आज से मात्र 822 साल पहले से प्रारंभ मानी जाती है लेकिन मस्जिद प्रांगण में स्थित, सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं ) द्वारा स्थापित, शताब्दियों से जंग रहित लौह स्तम्भ (गरुड़ ध्वज), इस स्थान के महत्व व वैभवपूर्ण अतीत को और भी पुराना साबित करता है.
                 मैं न इतिहासकार हूँ न पुरातत्वविद, देखकर व बहुकोणीय अध्ययन उपरांत जो कुछ अनुभव करता हूँ बिना पूर्वाग्रह के आपके साथ साझा कर लेता हूँ..


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