Sunday 27 September 2015

" ग़ालिब की हवेली " : दिल्ली



" ग़ालिब की हवेली " : दिल्ली


शायरी खिलती थी कभी, अब वीराना है यहाँ !
दीवारें बयाँ करती हैं कभी ग़ालिब रहते थे यहाँ !!

  ..विजय जयाड़ा
         चांदनी चौक (शाजहनाबाद) की गलियां जिसने नहीं देखी !! समझिये, उसने दिल्ली देखी ही नहीं !!
मैं चांदनी चौक, बल्लीमारान वाली सड़क पर २०० कदम चलकर सीधे हाथ पर गली, कासिम जान की तरफ मुड़ते ही, बाएं हाथ की तरफ, तीसरे या चौथे घर " ग़ालिब की हवेली ". को दो बार देख आया.
शायरों के लिए तो ये जन्नत से कम नहीं.. कोने-कोने से शायरी की महक !! जीवन के अंतिम वर्ष, ग़ालिब साहब ने इस हवेली में किराये पर गुजारे थे.
        शायरी को माशूका के जुल्फों के साये से आजाद कर शायरी को आम आदमी के भावों का जामा पहनाकर आज भी सभी के दिलों पर राज करने वाले गालिब साहब का नसीब देखिए !! सात संतान हुईं मगर !! कोई भी एक वर्ष से अधिक न जी सका !!
        ग़ालिब साहब, को शायरी के साथ शराब और जुआ खेलने के भी शौक़ीन थे । जनाब जुआ खेलने के चक्कर में जेल भी हो आए थे !!
          उनका कहना था कि जिसने शराब नहीं पी , जुआ नहीं खेला और जेल नहीं गया या फिर माशूक के जूते नहीं खाए --वह शायर हो ही नहीं सकता ।अब मैं तो शायर नहीं .. इसके बारे में शायर साथी ही कुछ फरमा सकते हैं !!
           जनाब कहाँ खो गए आप ?? चचा गालिब के इस शेर पर गौर तो फरमाइये !! चचा इस शेर में न जाने किस कूचे (गली) की बात कर रहे हैं !! हाँ तो कूचे ही कूचे हैं .. ऐसे कूचे भी हैं जहाँ से दुपहिया भी न निकल सके !!
 
                                            " रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है.. "
.. मिर्जा ग़ालिब
,                  बहरहाल अब, 35 - 40 गज क्षेत्र में बंद बरामदे के साथ लगे दो बड़े कमरे एक छोटी रसोई या लाइब्रेरी, तक ही सिमट कर रह गयी " ग़ालिब की हवेली " की दीवार पर लिखे लोकप्रिय शेर का तस्वीर का आप भी आनंद लीजिये ...
 
 

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