Wednesday 16 September 2015

जयगढ़ दुर्ग, जयपुर



कुछ मनोभाव ____
 
कुछ पाने की हवस में
खुद को भूल जाता है आदमी,
रह जाता है यहीं सब
साथ क्या ले जाता है आदमी !!

~ विजय जयाड़ा
              कभी राजसी ठाठ-बाट से लवरेज जयगढ़ दुर्ग में अब अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है !! ऐसा महसूस होता है मानो यहाँ से जीवन सदा के लिए रूठ कर कहीं दूर चला गया हो !!
             सुनसान है वो स्थान !! जहां संगीतमय स्वर लहरियाँ गुंजायमान होती थीं ! थिरकते पैरों में बंधे घुंघरुओं की छम छम भी, इस दुर्ग को बहुत पहले अलविदा कह गई !!
             जयगढ़ दुर्ग का हर पत्थर सुनहरे अतीत को पुकारते- पुकारते थक कर मूक हो गया प्रतीत होता है ! जीवन्त अतीत की यादें संजोए जयगढ़ दुर्ग पथराई आँखों से हर आने - जाने वाले में कुछ टटोलता, मौन टकटकी लगाये सुनहरे अतीत की प्रतीक्षा में जड़वत् सा खड़ा है।
 
 

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