जफ़र महल, लाल किला
बादशाह जफ़र के दौर में शाहजहानाबाद, जिसे अब पुरानी दिल्ली कहा जाता था, की सूर्यास्त होने के बाद हर शाम शेरो-शायरी से लवरेज होती थी जो देर रात तक चलती थी. बादशाह के दरबार में जौक और ग़ालिब का विशेष स्थान था. पैदल सैनिक के पुत्र, जौक साहब को शायरी के कारण ही बागवानी महकमे का सबसे बड़ा पद मिला था.
ग़ालिब साहब को अपनी चारित्रिक कमजोरियों पर बड़ा गर्व था !! उनको जुआ खेलने पर जेल भी जाना पड़ा था ! एक बार उनकी उपस्थिति में किसी ने शेख साह्बाई की शायरी की तारीफ़ कर दी तो ग़ालिब चीख उठे !!, “ साहबाई ने कभी शराब नहीं चखी !! न ही उसने कभी जुआ खेला !!, प्रेमिकाओं द्वारा वह चप्पलों से भी नही पीटा गया !! और न ही वह एक बार भी जेल गया !! फिर वह शायर कैसे हो गया !! “
साझा संस्कृति के पोषक व शायरी में जौक के मुरीद, बादशाह बहादुर शाह जफ़र, केवल शौकिया शायर नहीं थे बल्कि शायरी में उनका दिल पनाह लेता था..
इतिहास की लम्बी उदास ग़ज़ल कहे जाने वाले बदनसीब बादशाह जफ़र ने लाल किला परिसर के उत्तर-पूर्व में स्थित “ हयात बख्श “ बाग़ में, 1842 के दौरान, सावन और भादों मंडपों के बीच जलाशय में लाल पत्थर से जफ़र महल के रूप में अपने काल में एकमात्र निर्माण करवाया था. बादशाह जफ़र के दौर में शाम होते ही जफ़र महल में नामी-गिरामी शायरों की महफ़िल सजती थी और बादशाह जफ़र अपनी शायरी सुनाया करते थे. यहीं “ जफ़रनामा ” भी लिखा गया..
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