नाहरगढ़ दुर्ग, जयपुर
जल सरंक्षण-संचयन व आधुनिकता का अद्भुत समागम
यदि आप जयपुर घूमने का मन बना रहे हैं तो गुलाबी शहर व आमेर किले की सुरक्षा में तैनात जयगढ़ दुर्ग और नाहरगढ़ दुर्ग, पहरेदारों को देखना न भूलियेगा.ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ सूर्यास्त, जयपुर और समीपवर्ती का क्षेत्रों विहंगम दृश्य दिखाई देता है. यहाँ की जल संचयन व सरंक्षण प्रणाली अद्वितीय है.
1734 में संवाई जय सिंह द्वितीय ने जयपुर की सुरक्षा के लिए पहाड़ी पर सुदर्शन गढ़, दुर्ग का निर्माण शुरू हुआ लेकिन नाहर सिंह की प्रेतात्मा की इच्छानुसार इस दुर्ग का नाम नाहर गढ़ दुर्ग कर दिया गया.1882 में महाराजा राम सिंह ने किले का विस्तार किया, बाद में संवाई माधो सिंह ने 3.5 लाख रुपये की लागत से कुछ महलों का निर्माण करवाकर इसको भारतीय व पाश्चात्य स्थापत्य का सम्मिलन स्थल बना दिया. यहाँ आप किले में पहली बार अटैच शौचालय व स्नानागार देख सकते हैं साथ ही रसोई के धुंए की निकासी के लिए केंद्रित निकासी व्यवस्था आधुनिक चिमनी सदृश है.. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जनाक्रोश से बचाने के लिए, जयपुर में तैनात अंग्रेजों के परिवारों को इस दुर्ग में सुरक्षित रखा गया था.
माधवेन्द्र महल के दरवाजे, दीवारों व छत पर मनोहारी चित्रकारी की गयी है बेमिशाल सौंदर्य को समेटे माधवेन्द्र महल में संवाई माधो सिंह गर्मियों में रानियों सहित निवास करते थे. महल से एक गलियारा है जिसके दोनो ओर उनकी रानियों के लिए फ्रेस्को पेंटिंग से सज्जित कक्ष हैं..
गौर कीजियेगा !! आखिर इन वृक्ष विहीन ऊसर ऊंची पहाड़ियों पर बने किलों के लिए क्या जल व्यवस्था रही होगी !! यदि आप गौर से देखिएगा तो जयगढ़ और नाहरगढ़ किलों की प्राचीरों के सामानांतर व पहाड़ियों पर नालियां बनी है जो बावड़ी या टैंक से जुडी हैं, आज वर्षा जल संरक्षण पर बड़ी-बड़ी विचार गोष्ठियों से उपजे विचार, दृढ इच्छाशक्ति व उचित नियत के अभाव में फाइलों में ही बंद होकर रह जाते हैं लेकिन वर्षा के दिनों में एक भी पानी की बूंद को जाया किये बिना जल संरक्षण व संचयन की इस सुनियोजित व व्यावहारिक प्रणाली को देख मैं आश्चर्य चकित रह गया !!. जो आज भी जारी है और यहाँ साल भर किसी भी तरह की जल समस्या का सामना नहीं करना पड़ता !!
इस प्रणाली को उत्तराखंड के पहाड़ी भागों में अपनाकर जहाँ एक ओर भूमि कटाव व खनिजों के बहाव को रोका जा सकता है वहीँ वहीँ दूरस्थ गाँवों में साल भर जल सुगमता को सुनिश्चित किया जा सकता है ...
नाहरगढ़ दुर्ग की लहरदार सीढ़ियों वाली बावड़ी के ओपन थियेटर , जहाँ कभी महाराजाओं व अंग्रेज अधिकारीयों के मनोरंजन के लिए कार्यक्रम हुआ करते थे, ने “ मस्ती की पाठशाला “ व रंग दे बसंती “ फिल्म के निर्माताओं का ध्यान, शूटिंग के लिए आकर्षित किया. इसके बाद ये दुर्ग, “पड़ाव” रेस्तरा व कैफेटेरिया के साथ, युवाओं के लिए ये पिकनिक स्पॉट बन चुका है ..08.01.14
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