Wednesday, 30 March 2016

स्मिथ का कपोला (Smith’s Folly) : कुतुब मीनार दिल्ली



  स्मिथ का कपोला (Smith’s Folly) : 

कुतुब मीनार :  दिल्ली

           शीर्ष से उतार दिए जाने का मलाल न कीजिये स्मिथ साहब, आपकी " फाली " .या " मूर्खता ", पुरातत्व विभाग की निगरानी में सुरक्षित है !!
              किसी भी पुरातात्विक परिसर में प्रसिद्ध निर्माणों के इर्द-गिर्द पर्यटकों का जमावड़ा अक्सर देखा जा सकता है, लेकिन मेरी जिज्ञासा, परिसर के मुख्य आकर्षण के अलावा पर्यटकों की दृष्टि से उपेक्षित पड़े ऐतिहासिक पृष्ठभूमि लिए निर्माणों में अधिक है, इसलिए परिसर के मुख्य आकर्षण से इतर, उपेक्षित कोनों में दृष्टि दौड़ाना नहीं भूलता.
             इसी क्रम में कुतुबमीनार परिसर में, पर्यटकों के आकर्षण से महरूम, परिसर के लॉन में एक कोने में रखे स्मिथ के कपोले (Smith’s Folly ) पर गयी !! किसी अंग्रेज का नाम पढ़कर हैरानी हुई !! जिज्ञासा बढ़ी !! दरअसल 1803 में आये भूकंप ने जब कुतुबमीनार के सबसे ऊपर, फिरोजशाह तुगलक द्वारा रखे कपोला को पूर्णतया ध्वस्त कर दिया, तब कुतुबमीनार की इस अपूर्णता को दुरुस्त करने के लिए तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने मेजर रॉबर्ट स्मिथ को जिम्मेदारी दी, स्मिथ ने कश्मीरी गेट बस अड्डे के समीप सेंट जेम्स चर्च का भी निर्माण करवाया था.
         1828 में उस समय के 17000 रुपये में इस कपोले का निर्माण हुआ. लेकिन स्मिथ ने इंडो इस्लामिक स्थापत्य के स्थान पर बंगाली स्थापत्य को अपनाया !! स्मिथ की इस भूल के कारण ये कपोला कुतुबमीनार के स्थापत्य से सामंजस्य न बिठा सका !! हालाँकि इस सरंचना में मुझे बंगाल शैली से अधिक पाश्चात्य शैली लगी !! फलस्वरूप लार्ड हार्डिंग ने 1848 में इसे कुतुबमीनार से उतरवा कर परिसर में एक कोने में रखवा दिया और मीनार के ऊपर चबूतरे को वैसा ही छोड़ दिया.
              तब से इस लाल रंग की बेमेल सरंचना को “ Smith’s Folly “ अर्थात स्मिथ की मूर्खता या अज्ञानता, के नाम से जाता है !!
               समय के पंख कितनी तीव्र गति से हिलते हैं !! मीनार से उतार कर यहाँ रखे इस कपोले को 166 वर्ष हो चुके हैं !!!  06.01.15


दिल्ली : खारी बावली बाजार



दिल्ली : खारी बावली बाजार

        शायद ही कोई “ खारी बावली “ बाजार से अनभिज्ञ हो ! यदि आप सर्दियों के मौसम में चांदनी चौक की सैर पर निकले हैं तो फतेहपुरी मस्जिद से सीधे हाथ की ओर चलकर, आने वाली मुग़ल कालीन व मसालों और ड्राई फ्रूट की एशिया में सबसे बड़ी थोक मार्केट को चाहकर भी नजरअंदाज नहीं कर सकेंगे. 1551 में शेरशाह के पुत्र सलीम शाह ने यहाँ बावड़ी का निर्माण करवाया था जिसका पानी खारा था, इसी कारण इस स्थान का नाम “ खारी बावली “ पड़ा. मुग़ल काल में यहाँ मसालों का व्यवसाय हुआ करता था. व्यवसाय बढ़ने से बावड़ी सिमटते हुए अस्तित्व गंवा बैठी !! इस बाजार में रसोई में इस्तेमाल होने वाली अन्य खाद्य सामग्री भी उचित दाम पर खरीदी जा सकती हैं .
         मुख्य सड़क 60 फुट चौड़ा है लेकिन चौथाई हिस्सा भी यातायात के लिए सुलभ नहीं !! गलियां इतनी संकरी की दो आदमी एक साथ न गुजर सकें !! इसी कारण यहाँ माल का ढुलान- चढ़ान रात के वक़्त, जब खरीददार नहीं होते, किया जाता है. प्रतिदिन लभग 20 करोड़ रुपये का कारोबार करने वाले इस बाजार में 15000 लोगों को रोजगार मिला हुआ है.. हालांकि मसालों की दुनिया में जाने-माने नाम MDH ने कारोबार तो पाकिस्तान मे शुरु किया था लेकिन विभाजन के बाद यही से MDH का कारोबार परवान चढ़ा. यहाँ के कारोबारी 2-3% या अधिकतम 5% मुनाफे पर कारोबार चलाते हैं..
      खारी बावली मार्केट में 17 वीं व 18 वीं सदी की दुकानों में अब नवीं व दसवीं पीढियां कारोबार चला रही हैं 07.01.15


नाहरगढ़ दुर्ग, जयपुर : जल सरंक्षण-संचयन व आधुनिकता का अद्भुत समागम




नाहरगढ़ दुर्ग, जयपुर

जल सरंक्षण-संचयन व आधुनिकता का अद्भुत समागम

       यदि आप जयपुर घूमने का मन बना रहे हैं तो गुलाबी शहर व आमेर किले की सुरक्षा में तैनात जयगढ़ दुर्ग और नाहरगढ़ दुर्ग, पहरेदारों को देखना न भूलियेगा.ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ सूर्यास्त, जयपुर और समीपवर्ती का क्षेत्रों विहंगम दृश्य दिखाई देता है. यहाँ की जल संचयन व सरंक्षण प्रणाली अद्वितीय है.
           1734 में संवाई जय सिंह द्वितीय ने जयपुर की सुरक्षा के लिए पहाड़ी पर सुदर्शन गढ़, दुर्ग का निर्माण शुरू हुआ लेकिन नाहर सिंह की प्रेतात्मा की इच्छानुसार इस दुर्ग का नाम नाहर गढ़ दुर्ग कर दिया गया.1882 में महाराजा राम सिंह ने किले का विस्तार किया, बाद में संवाई माधो सिंह ने 3.5 लाख रुपये की लागत से कुछ महलों का निर्माण करवाकर इसको भारतीय व पाश्चात्य स्थापत्य का सम्मिलन स्थल बना दिया. यहाँ आप किले में पहली बार अटैच शौचालय व स्नानागार देख सकते हैं साथ ही रसोई के धुंए की निकासी के लिए केंद्रित निकासी व्यवस्था आधुनिक चिमनी सदृश है.. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जनाक्रोश से बचाने के लिए, जयपुर में तैनात अंग्रेजों के परिवारों को इस दुर्ग में सुरक्षित रखा गया था.
        माधवेन्द्र महल के दरवाजे, दीवारों व छत पर मनोहारी चित्रकारी की गयी है बेमिशाल सौंदर्य को समेटे माधवेन्द्र महल में संवाई माधो सिंह गर्मियों में रानियों सहित निवास करते थे. महल से एक गलियारा है जिसके दोनो ओर उनकी रानियों के लिए फ्रेस्को पेंटिंग से सज्जित कक्ष हैं..
            गौर कीजियेगा !! आखिर इन वृक्ष विहीन ऊसर ऊंची पहाड़ियों पर बने किलों के लिए क्या जल व्यवस्था रही होगी !! यदि आप गौर से देखिएगा तो जयगढ़ और नाहरगढ़ किलों की प्राचीरों के सामानांतर व पहाड़ियों पर नालियां बनी है जो बावड़ी या टैंक से जुडी हैं, आज वर्षा जल संरक्षण पर बड़ी-बड़ी विचार गोष्ठियों से उपजे विचार, दृढ इच्छाशक्ति व उचित नियत के अभाव में फाइलों में ही बंद होकर रह जाते हैं लेकिन वर्षा के दिनों में एक भी पानी की बूंद को जाया किये बिना जल संरक्षण व संचयन की इस सुनियोजित व व्यावहारिक प्रणाली को देख मैं आश्चर्य चकित रह गया !!. जो आज भी जारी है और यहाँ साल भर किसी भी तरह की जल समस्या का सामना नहीं करना पड़ता !!
           इस प्रणाली को उत्तराखंड के पहाड़ी भागों में अपनाकर जहाँ एक ओर भूमि कटाव व खनिजों के बहाव को रोका जा सकता है वहीँ वहीँ दूरस्थ गाँवों में साल भर जल सुगमता को सुनिश्चित किया जा सकता है ...
          नाहरगढ़ दुर्ग की लहरदार सीढ़ियों वाली बावड़ी के ओपन थियेटर , जहाँ कभी महाराजाओं व अंग्रेज अधिकारीयों के मनोरंजन के लिए कार्यक्रम हुआ करते थे, ने “ मस्ती की पाठशाला “ व रंग दे बसंती “ फिल्म के निर्माताओं का ध्यान, शूटिंग के लिए आकर्षित किया. इसके बाद ये दुर्ग, “पड़ाव” रेस्तरा व कैफेटेरिया के साथ, युवाओं के लिए ये पिकनिक स्पॉट बन चुका है ..08.01.14


छोटी मगर दिल को छू लेने वाली बातें !!



छोटी मगर दिल को छू लेने वाली बातें !!

                 आवश्यक नहीं लम्बे आपसी व्यवहार के बाद ही परस्पर आत्मीयता बने. कभी-कभी बहुत छोटी सी लेकिन अहम् बात, आत्मीयता व सम्मान उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होती है ...
                 ऋषिकेश-नीलकंठ मार्ग से हटकर प्राचीन झिलमिल गुफा से वापस आते हुए कोठार गाँव की चढ़ाई पर जब अधिक प्यास महसूस हुई तो चोटी पर रुककर इन महोदय की दुकान पर पानी की बोतल मांगी, स्वाभाविक सी बात है दूसरा कोई दुकानदार, तुरंत पानी की बोतल थमा देता, लेकिन इन्होंने कहा .. " पानी की बोतल भी है और सादा पानी भी !! आपकी मर्जी, जो लेना चाहें ले सकते हैं !!" भला पहाड़ के पानी को छोड़कर हम बोतल बंद पानी को क्यों पीते !!
                 आप हैं भंडारी जी, आपकी सरलता, सहृदयता और ईमानदारी देखिये !! वीरान से स्थान पर चाय-पान की दुकान लगाये, जहाँ कोई यात्री दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा था !!! इन महोदय ने पानी की बोतल से मिलने वाले धन का लालच त्याग, हमें विकल्प भी बता दिया !! .
             हो सकता है आप इस प्रसंग को अधिक महत्व न दें लेकिन इस वाकये ने मुझे बहुत प्रभावित किया. फिर तो चाय की चुस्कियों के साथ बातों का काफिला कहीं दूर निकल चला.... संज्ञान लेने वाली बात ये भी है कि भंडारी जी काफी समय दिल्ली में रह चुके हैं लेकिन उन पर दिल्ली की व्यावसायिक मनोवृत्ति का मुलम्मा चढ़ा हो , ऐसा महसूस नहीं हुआ।
                सच कहूँ भंडारी जी, जहाँ एक तरफ समाज में आपसी सम्बन्धों को व्यावसायिक मनोवृत्ति लील रही है वहीं आपकी सरलता, सह्रदयता व ईमानदारी ने हमारा दिल जीत लिया .



कभी चार धाम पैदल यात्रा का प्रथम पड़ाव रहा !! गरुड़ चट्टी, ऋषिकेश



कभी चार धाम पैदल यात्रा का प्रथम पड़ाव रहा !!


गरुड़ चट्टी, ऋषिकेश

         ये स्थान ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला से 4 किमी आगे गरुड़ चट्टी (चट्टी= यात्रियों के ठहरने का स्थान) है. पुराने समय में श्रृद्धालु चार धाम यात्रा, पैदल ही किया करते थे तब देश के विभिन्न भागों से श्रद्धालु मुनि की रेती (राम झूला) में एकत्र होते थे गंगा में स्नान कर शत्रुघ्न मंदिर में यात्रा की सफलता हेतु पूजा कर पैदल आगे बढ़ते थे. जब पैदल यात्रियों का समूह यहाँ गरुड़ चट्टी पर पहुँच जाता था तो यहाँ रुके यात्रियों को मुनि की रेती की तरफ जाने की अनुमति मिलती थी.
            चार धाम पैदल यात्रा के अंतर्गत बाबा काली कमली ने हर दो कोस ( 1 कोस= 2 मील या लगभग 3.25 किमी.) पर इन चट्टियों को श्रृद्धालुओं के सेवार्थ लिए नि:शुल्क विश्राम, भोजन व दवाओं हेतु स्थापित किया था. चार धाम पैदल यात्रा के अंतर्गत गरुड़ चट्टी कभी पहला पड़ाव हुआ करता था.
           स्वयं में चार धाम पैदल यात्रा के इतिहास के मूक गवाह, इस चट्टी की खस्ता हाल देखकर दुःख हुआ ! मैं इनको भी ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में मानता हूँ. मेरे विचार से स्वस्थ सांस्कृतिक विरासत को आने वाली पीढ़ियों तक जीवंत रूप में स्थानांतरित करने के लिए इनका रख रखाव उसी तर्ज पर किया जाना चाहिए जैसा पौराणिक, प्राचीन या मुग़ल कालीन स्मारकों का किया जाता है.
          सोचता हूँ, युवाओं में साहसिक यात्राओं के बढ़ते रुझान व उत्साह को देखते हुए, चार धाम पैदल पैदल यात्रा को प्रोत्साहित कर, कुछ धार्मिक नगरों की ओर रोजगार के लिए एकत्र होती जा रही अनियंत्रित जनसँख्या व प्रदूषण पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है. पैदल यात्रा के पड़ावों की देखभाल का जिम्मा निकटस्थ ग्राम सभाओं या नगर पंचायतों को देकर यात्रियों से प्राप्त होने वाली आय स्थानीय विकास में प्रयोग की जा सकती है इस तरह चार धाम यात्रा से प्राप्त होने वाली आय कुछ ही लोगों तक ही सीमित नहीं रह जायेगी. साथ ही उत्तराखंड से युवाओं के होते प्लायन को रोकने की दृष्टि से भी ये एक कवायद हो सकती है।    21.01.15
 
 
 
 
 

ब्रह्मा, विष्णु और महेश समागम भरत मंदिर वट वृक्ष : ऋषिकेश



ब्रह्मा, विष्णु और महेश समागम

भरत मंदिर वट वृक्ष  : ऋषिकेश

             आदि शंकराचार्य जी द्वारा 789 A.D में इस स्थान पर आज ही के दिन अर्थात बसंत पंचमी को, भगवान ऋषिकेश नारायण की मूर्ती के स्थापना के साथ ही देवभूमि के द्वार, ऋषिकेश शहर की नीव पड़ी.. इस मंदिर को अब भरत मंदिर के नाम से जाना जाता है. कलियुग में भरत जी के नाम से प्रसिद्ध, शालिग्राम से बनी ऋषिकेश नारायण जी की मूर्ती को भव्य शोभायात्रा के साथ, मायाकुंड स्नान के लिए ले जाया जाता है..
        मंदिर में खड़े इस वट वृक्ष की वास्तविक आयु की सही जानकारी नहीं लेकिन इसे 250 साल पुराना माना जाता है. इसकी विशेषता ये है कि इसमें पीपल और बेल वृक्षों की जड़ें आपस में इस ररह गुंथ गयी हैं कि तीनों एक ही वृक्ष, वट, रूप में दिखाई देते हैं अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश, एकात्म स्वरुप में दिखाई देते हैं !!


ब्रह्मा, विष्णु और महेश समागम ; : भरत मंदिर वट वृक्ष : ऋषिकेश



ब्रह्मा, विष्णु और महेश समागम

भरत मंदिर वट वृक्ष  : ऋषिकेश

             आदि शंकराचार्य जी द्वारा 789 A.D में इस स्थान पर आज ही के दिन अर्थात बसंत पंचमी को, भगवान ऋषिकेश नारायण की मूर्ती के स्थापना के साथ ही देवभूमि के द्वार, ऋषिकेश शहर की नीव पड़ी.. इस मंदिर को अब भरत मंदिर के नाम से जाना जाता है. कलियुग में भरत जी के नाम से प्रसिद्ध, शालिग्राम से बनी ऋषिकेश नारायण जी की मूर्ती को भव्य शोभायात्रा के साथ, मायाकुंड स्नान के लिए ले जाया जाता है..
        मंदिर में खड़े इस वट वृक्ष की वास्तविक आयु की सही जानकारी नहीं लेकिन इसे 250 साल पुराना माना जाता है. इसकी विशेषता ये है कि इसमें पीपल और बेल वृक्षों की जड़ें आपस में इस ररह गुंथ गयी हैं कि तीनों एक ही वृक्ष, वट, रूप में दिखाई देते हैं अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश, एकात्म स्वरुप में दिखाई देते हैं !!



किसी ने वेध शाला कहा





किसी ने वेध शाला कहा
   किसी ने ध्रुव स्तम्भ !
कोई क़ुतुब मीनार कहे
    कोई विष्णु स्तम्भ !!
 
 

भाई मतिदास संग्रहालय, चांदनी चौक



भाई मतिदास संग्रहालय, चांदनी चौक

              किसी विद्वान ने कहा है " जो समाज अपनी संस्कृति, गौरव व पूर्वजों की कुर्बानियां भूल जाता है वो समाज दासता को प्राप्त होता है."
                ये दृश्य भाई मतिदास चौक, जो कि चांदनी चौक, दिल्ली में है, पर स्थित भाई मतिदास संग्रहालय का है कभी यहाँ कूड़े का ढेर लगा रहता था . साथ में सेवादार भाई दर्शन सिंह जी हैं. भाई दर्शन सिंह जी से जिज्ञासु मन से कुछ जानना चाहा तो बातों का सिलसिला इस कदर आगे बढ़ा कि आक्रान्ताओं की आततायी प्रवृत्ति व सिख धर्म के सूरमाओं की वीरता और कुर्बानियों का लम्बा और गौरवपूर्ण इतिहास सुनाते हुए संग्रहालय की व्यवस्था देख रहे भाई दर्शन सिंह जी बहुत भावुक हो उठे और उनकी आँखे नम हो गयी. संग्रहालय में सिक्खों के गौरवमयी इतिहास को घटना क्रमानुसार सचित्र प्रदर्शित किया गया है..
              क्यों न हम ऐसे स्थानों पर जाकर अपने गौरवमयी अतीत से रूबरू हों ? यहाँ प्रदर्शित तस्वीरों से आप यातना की पराकाष्ठा और सिक्ख वीरों की वीरता की पराकाष्ठा को एक साथ अनुभव कर रोमांचित हो उठेंगे और आप स्वाभाविक रूप से सिक्ख वीरों के प्रति श्रृद्धा से नतमस्तक हो जाएंगे.. 

शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके देशभक्त मतवाले साथियों की कर्म स्थली



शहीदे आज़म भगत सिंह 

और उनके देशभक्त मतवाले साथियों की कर्म स्थली

शहीद पार्क : फिरोजशाह कोटला ; दिल्ली 

           इस स्थान की तस्वीर लेने की इच्छा लम्बे समय से मन में थी लेकिन संयोग ही नही बन पा रहा था, जबकि फिरोज शाह कोटला क्रिकेट स्टेडियम के पास सड़क के किनारे इस स्थान (अब शहीदी पार्क) से कई बार आना जाना होता है ! पहले पार्क न होने के कारण सड़क से ही दिख जाता था लेकिन आज मुझे पार्क के अंदर शहीद भगत सिंह से जुड़ा मूल स्थान खोजना पड़ा. आश्चर्य तो तब हुआ जब पार्क में बैठे पढ़े-लिखे लोगों को इस शहीद पार्क की मूल आत्मा इस एतिहासिक भूमि के टुकड़े से अनभिज्ञ पाया. पार्क को भव्य प्रतिमा लगाकर सुन्दर बना दिया गया है लेकिन पार्क की आत्मा, इस मूल स्थान पर लगी स्मारक पट्ट की उखड़ी टाइलें, उपेक्षा स्वयं बयां कर रही है !!
           आज धूप तो बहुत तेज थी पर संयोग बना और मन इच्छा पूर्ण हुई इस स्थान पर बैठकर ऐसी अनुभूति   हुई, जैसे आज़ादी के मतवालों से साक्षात्कार हो गया हो !!,
                उस समय इस निर्जन स्थान पर बैठकर 8 व 9 सितम्बर सन 1928 को चंद्रशेखर आज़ाद से प्रेरणा लेकर भगत सिंह और उनके साथियों ने भारत में स्वतंत्र समाजवादी गणतंत्र की स्थापना हेतु “हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र एसोसिएशन (सेना ) के गठन का निर्णय लिया गया था ...

प्रेम का प्रतीक : अतुल्य ताज महल



प्रेम का प्रतीक : अतुल्य ताज महल

                 मिर्जा ग़ालिब साहब के बचपन के शहर आगरा में ग़ालिब तो बेगाने से हो गए लेकिन अद्भुत स्थापत्य कला के लिए दुनिया के आधुनिक विलक्षण कृतियों में ताजमहल पहले स्थान पर बना चर्चा का विषय है. शाहजहाँ द्वारा अपनी प्रिय बेगम की याद में राजकोष की लगभग सारी धनराशि ताजमहल बनवाने में लगा दी गयी थी 22 वर्षों की अवधि में ( मुख्यद्वार पर लगे 22 गुम्बद,निर्माण में लगे 22 वर्षों के प्रतीक हैं) , एशिया भर के अलग-अलग फनों में माहिर 37 फनकारों ( मुख्य वास्तुकार : उस्ताद अहमद लाहौरी व उस्ताद ईसा ) की देखरेख में 20 हज़ार मजदूरों की मेहनत आज दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है ...
               ताजमहल का आगरा में निर्माण संयोग भी कहा जा सकता है क्योंकि मुमताज महल की मृत्यु चौदहवीं संतान को जन्म देते हुए बुरहान पुर, मध्य प्रदेश में हुई थी और वहीँ मुमताज को दफनाया भी गया था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था, दीमक की अधिकता और संगमरमर लाने में होने वाली असुविधा ने शाहजहाँ को ताजमहल निर्माण के लिए आगरा को चुनना पड़ा, जिसके बदले में राजा जय सिंह को आगरा के मध्य में महल दिया गया.
                 यमुना के किनारे खादर की इस जमीन को मलबे और कूड़े-करकट द्वारा भराव कर, नदी की सतह से 50 फीट ऊँचा किया गया साथ ही नमीं सोखने के लिए,50 कुंए भी खुदवाए गए कहा जाता है कि ताज महल की बुनियाद के लिए टीक और रोज वुड का उपयोग किया गया ..
               मुख्य गुम्बद में ऊपरी भाग में पर्यटकों के दर्शनार्थ, मुमताज व शाहजहाँ की अलंकृत कब्रें हैं उनके ठीक नीचे दोनों की असली कब्रें हैं जो धर्मानुसार सामान्य हैं. जिनको वर्ष में केवल तीन दिनों में ही देखा जा सकता है . दरअसल बुरहानपुर में मुमताज को दफ़नाने के छ: महीने बाद, मुमताज के शरीर को वहां से निकालकर यहाँ लाकर पुन: दफनाया गया था. इस अद्भुत सममितीय सरंचना में केवल शाहजहाँ की कब्र ही असममितीय सरंचना है क्योंकि ये मकबरा केवल मुमताज के लिए बनवाया गया था, शाहजहाँ को यहाँ बाद में दफनाया गया. शाहजहाँ स्वयं के लिए, ठीक सामने, यमुना के दूसरी ओर काले संगमरमर का एक और अद्भुत मकबरा बनवाना चाहता था लेकिन नियति देखिये उससे पहले ही औरंगजेब ने शाहजहाँ को कैद कर पास में ही स्थित ऐतिहासिक लाल किले में बंदी बना दिया ..
               इस अद्भुत निर्माण के पीछे कई किंवदन्तिया कही और सुनी जाती है लेकिन तथ्यपरक सत्यता के अभाव में, साझा करना उचित नही समझता..कभी ताजमहल जाने का विचार बनें तो बाहरी सुन्दरता के अवलोकन के साथ इसके निर्माण से जुडी जानकारी का भी अध्ययन कीजियेगा तो जिज्ञासा परिपूर्ण आनंदानुभूति निश्चित है ...


हजरत ख्वाजा बुद्रद्दीन समरकंदी चिस्ती साहब की दरगाह फिरोजशाह कोटला : दिल्ली




 
बादशाह की बादशाहत खंडहर हो गयी,
झोपड़ी में फ़कीर की चिराग रोशन रहा !!
रूहानी ताकत का असर हुआ इस कदर,
फ़कीर की खुदाई ने मंजर बदल दिया !!
^^ विजय जयाड़ा
 
                     सन 1354 में फिरोजशाह तुगलक ने, आज के पुराने किले और शाहजहाँ की पुरानी दिल्ली के बीच या कहिये खुनी दरवाजे के समीप, पांचवी दिल्ली, अर्थात फिरोजाबाद शहर बसाया और फिरोजशाह कोटला ( कोटला=किला ) बनाया तो हजरत ख्वाजा बुद्रद्दीन समरकंदी चिस्ती साहब की दरगाह किले की बाहरी दीवार के बीच आ गयी लेकिन खवाजा साहब के नूर के आगे बादशाहत को झुकना पड़ा.. और किले की दीवार को उस जगह पर सीधा न ले जाकर समकोण की तरह मोड़ दिया गया .. आज दरगाह रोशन है, हर धर्म के लोग मन्नत मांगने आते हैं लेकिन किला पूरी तरह से खंडहर में तब्दील हो चूका है.तस्वीर में आसमानी रंग की संरचना ख्वाजा साहब की दरगाह है किले की मुड़ी हुई दीवार को भी देखा जा सकता है....

Sunday, 27 March 2016

हेमवती (ह्यूँल नदी ) - गंगा संगम शिवपुरी, ऋषिकेश




हेमवती (ह्यूँल नदी ) - गंगा संगम

शिवपुरी, ऋषिकेश
            ये पवित्र संगम ऋषिकेश से लगभग 9 किमी.आगे, ऋषिकेश-बदरीनाथ मार्ग पर है. श्री स्कन्द पुराण ( केदार खंड ) अध्याय 139 में इस स्थान का महातम्य वर्णित है. संक्षिप्त में कहा जाय तो इस शिव तीर्थ संगम, भूतेश्वर महादेव,शिवपुरी पर स्नान की पवित्रता, केदार क्षेत्र से सौ गुना अधिक बताई गयी है. मेरे दायें हाथ की तरफ बह रही गंगा नदी इस शिव तीर्थ, भूतेश्वर महादेव को अर्ध चंद्रकार रूप में सीमांकित करती है. बाएं हाथ की तरफ से ह्यूँल नदी गंगा में मिल रही है. कुछ वर्षों पूर्व 84 गाँव के लोग इस घाट का इस्तेमाल, शवों के अंतिम संस्कार के लिए करते थे लेकिन कालान्तर में यातायात सुलभता के कारण अब स्थानीय निवासी परंपराओं से अधिक सुविधा को प्राथमिकता देने लगे हैं इसलिए अब यहाँ पहले वाली बात नहीं रही ...
             ये स्थान अब रीवर राफ्टिंग संचालकों के व्यावसायिक कैम्प का स्थान बनकर रह गया है. कैम्प में आने वाले युवा लोगों को इस स्थान की धार्मिकता व प्राचीनता से कमोवेश कोई सरोकार नहीं होता !! धार्मिक दृष्टि व घाटों के विकास से उपेक्षित, पुराण वर्णित इस पवित्र स्थान के महत्व को प्रसारित व प्रचारित कर धार्मिक दृष्टि से भी इस स्थान की तरफ श्रृद्धालुओं व पर्यटकों का रुख किया जा सकता है..
जब भी ऋषिकेश या आस-पास के क्षेत्र में घूमने के इरादे से जाइएगा तो मुख्य सड़क के बिलकुल पास, इस पवित्र व रमणीक स्थान पर अवश्य जाइएगा .. 27.03.14
 
 

शाही हमाम (Royal Bath) ; पुराना किला : दिल्ली



शाही हमाम (Royal Bath) ; पुराना किला : दिल्ली

       दिल्ली का अस्तित्व यूँ तो महाभारत काल से इन्द्रप्रस्थ के रूप में माना जाता है लेकिन एक बहुत बड़ा काल खंड, इतिहास के पन्नों में दर्ज न हो सका. उपलब्ध दस्तावेजी प्रमाणों के अनुसार दिल्ली की बसत, अनंग पाल प्रथम द्वारा सन 737 में मानी गयी है तब से अंग्रेजों के काल तक दिल्ली सात बार उजड़ी और बसी... फलस्वरूप आठवीं दिल्ली के रूप में लुटियन की दिल्ली अर्थात नई दिल्ली अस्तित्व में आई. संभवत: सन 737 से पूर्व के, लोक कथाओं और महा काव्यों तक सीमित कालखंड को तर्कपूर्ण साक्ष्यों के माध्यम से परिदृश्य पर लाने के उद्देश्य से और इस क्षेत्र के महाभारत काल से जुड़े होने की लोक मान्यता की पृष्ठभूमि में सर्वे आफ इंडिया ने 1954-55 और 1969 से 1973 में पुराने किले की खुदाई की थी और वहां उन्हें 1000 ईसा पूर्व शहर के अस्तित्व के होने की जानकारी मिली थी. इस के अलावा, मौर्य काल से ले कर मुगलकाल के बीच के शुंग, कुशाण, गुप्त, राजपूत और सल्तनत काल के दौरान इस शहर के होने की जानकारी हासिल हुई.
     अब विषय पर आता हूँ ... 1913-14 तक पुराना किले की मोटी-मोटी खंडहर में तब्दील होती जा रही दीवारों के अन्दर इन्द्रपत गाँव हुआ करता था, जिसे किले के जीर्णोद्धार के समय अंग्रेजों ने हटा दिया था. मुग़ल बादशाह द्वारा इस क्षेत्र को त्यागने के बाद किला उपेक्षित हालत में हो गया जिससे किले के अन्दर ग्रामीणों ने तत्कालीन निर्माणों के ऊपर नए निर्माण कर दिए.
            तस्वीर में भूस्तर के नीचे दबा मुग़ल कालीन 3.2 वर्गमीटर आकार के कमरे वाल शाही हमाम, किले के जीर्णोद्धार के समय परिदृश्य में आया. इस हमाम में टेराकोटा निर्मित पाइपों से जलागमन प्रणाली है साथ ही कमरे में दीवारों के सहारे गर्म और ठन्डे पानी के प्रवेश के लिए ढलानदार प्रवणिकायें (नालियाँ) आज भी अस्तित्व में हैं. इस हमाम का उपयोग बादशाह व उनकी बेगमें किया करती थी.
          
मैं न इतिहासकार हूँ न पुरातत्वविद.. व्यक्तिगत रूप से मैं पुराना किला को एक किले के रूप में ऐतिहासिक धरोहर से कहीं बढ़कर देखता हूँ ! इस क्षेत्र की भूमि की हर सतह कुछ बयाँ करने को आतुर दिखती है. पुराना किला मूल रूप से यमुना नदी के किनारे है. यमुना से किले को जोड़ने के लिए नहर हुआ करती थी. सोचता हूँ अधिकाँश मानव सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ, बेशक ! कभी दीनपनाह नाम से राजधानी के रूप में शक्ति केंद्र रहे पुराने किले में अब शेरमंडल व किला-ए- कुहना मस्जिद, सिर्फ दो ऐतिहासिक इमारतें अस्तित्व में दिखाई देती हैं लेकिन इस क्षेत्र में हुई खुदाई के उपरांत निरन्तर मिलते पुरावशेषों के कारण महाभारत काल से जुड़े होने की अवधारणा को बल मिला है. सभ्यताओं के विकास को जोड़ने के क्रम में पुराना किला क्षेत्र में होने वाली पुरातात्विक खुदाइयां.. परत दर परत दबी इतिहास की दास्ताँ बयाँ करते हुए मानव सभ्यता विकास के सफर में भी मील का पत्थर साबित हो सकती हैं.



Friday, 25 March 2016

पुराना किला : शेर मंडल: हुमायूँ का पुस्तकालय व मृत्यु का मूक गवाह





पुराना किला : शेर मंडल

हुमायूँ का पुस्तकालय व मृत्यु का मूक गवाह 

       मूल विषय पर चर्चा से पूर्व एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा .. महाभारत काल में पांडवों ने कौरवों से पांच गांव मांगे थे. ये वे गाँव थे जिनके नाम के अंत में “ पत “ आता है. जो संस्कृत के " प्रस्थ " ( समतल भूमि) का हिंदी साम्य है। ये “ पत " वाले गांव इंद्रपत, बागपत, तिलपत, सोनीपत और पानीपत थे.
इन सभी स्थानों की भाँति पुराना किला में भी महाभारत कालीन भूरे रंग के मिट्टी के बर्तन मिले हैं साथ ही मौर्य, गुप्त व राजपूत कालीन पुरावशेष भी मिले हैं, जिससे इस क्षेत्र के महाभारत काल से जुड़े होने की अवधारणा को बल मिला है.
     1913 तक पुराना किला में इंद्रप्रस्थ के अपभ्रंश " इंद्रपत " नाम का गांव स्थित था. राजधानी, नई दिल्ली निर्माण के समय अन्य गांवों के साथ इन्द्रपत गाँव को भी हटा दिया गया था.
सोचता हूँ पांडवों को यमुना किनारे दिए गए पथरीली व ऊबड़-खाबड़ भूमि खांडव प्रस्थ के अंतर्गत इन्द्रप्रस्थ क्षेत्र में सोलहवीं सदी में ऊंचे टीलेनुमा स्थान पर वर्तमान पुराना किला बनाया गया होगा ! तब ये किला यमुना से जुड़ा हुआ था, बहरहाल अब विषय पर आता हूँ..
    तस्वीर में पुराना किला परिसर की 2.4 किमी.लम्बी मोटी-मोटी खँडहर में तब्दील होती दीवारों के से घिरा और किले की भूमि के सबसे ऊचे स्तर पर किला-ए-कुहना मस्जिद के पास शेरशाह सूरी द्वारा 1541 बनवाए गए अष्टभुजाकार, बुर्जनुमा लाल बलुआ पत्थर से निर्मित दुमंजिला ईमारत “ शेर मंडल “ है. कहा जाता है कि शेरशाह सूरी ने आरामगाह के रूप में बनाया था. हुमायूँ ने निर्वासन उपरान्त जब शेरशाह सूरी को परास्त कर पुन: अपना साम्राज्य प्राप्त किया तो इस ईमारत का उपयोग, खगोल विषयक जानकारी हेतु व पुस्तकालय के रूप में करने लगा. कुछ इतिहासकार मानते है कि शेरशाह द्वारा छोड़े गए इस अपूर्ण निर्माण को हुमायूं ने पूर्ण करवाया था। वर्तमान में इसके अन्दर प्रवेश वर्जित है.
           इस ईमारत में हुमायूँ राज कार्यों से फुर्सत के क्षणों में यहाँ अध्ययन किया करता था और आराम के क्षण बिताया करता था.
           इतिहासकार हुमायूँ के बारे में लिखते हैं .... “ हुमायूँ, जीवन भर ठोकरें खाता रहा और उसके जीवन का अंत भी ठोकर खाकर ही हुआ !!”
          24 जनवरी 1556 की शाम को अज़ान की पुकार सुनाई देने पर हुमायूँ हाथों में कई किताबों के भारी बोझ के साथ तेजी से इस इमारत की खड़ी सीढियां उतर रहा था कि अचानक उसका पैर अपने चोगे में उलझ गया फलस्वरूप संतुलन बिगड़ जाने के कारण वह कई सीढियां नीचे सिर के बल लुढ़कता हुआ गिर गया. इस घटना से सिर पर आई गहरी चोटों के कारण, 27 जनवरी 1556 हुमायूँ चल बसा ..




Tuesday, 22 March 2016

सहज संवाद ....




सहज संवाद ....

उद्यमोपरांत भी न्यूनतम संसाधन अनुपलब्धता .. विद्रोही प्रवृत्ति विकसित कर सकती है !!

Saturday, 19 March 2016

किंवाणी गाँव प्राकृतिक जल श्रोत , नरेन्द्र नगर, टिहरी





विकास की गंगा में
जितना ---
  ईंट गारा बढ़ा है !
  जल श्रोत हुए कुंद !
पानी ---
   उतना ही घटा है !!
... विजय जयाड़ा

         किंवाणी गाँव, नरेन्द्र नगर, टिहरी का ये जल श्रोत कभी जल से लबालब रहता था. जल कि विशिष्टता व शुद्धता के कारण, टिहरी महाराजा के राजमहल में इसी श्रोत से जल ले जाया जाता था .. लेकिन वर्तमान में .. अंजुली भर पानी लेने में वक्त लगता है !!!


Thursday, 17 March 2016

रुद्राक्ष ( Elaeocarpus granitrus ) एक ऊर्जा कवच





रुद्राक्ष ( Elaeocarpus granitrus ) 

 एक ऊर्जा कवच

              बचपन से घर में रुद्राक्ष को देखकर उसके पेड़ के बारे में तरह-तरह की कल्पना करता था लेकिन प्रत्यक्ष रूप से पेड़ नहीं देखा था. ऋषिकेश में अबकी बार जिक्र किया तो 4-5 जगह रुद्राक्ष के पेड़ों को प्रत्यक्ष देख पाया. रुद्राक्ष अर्थात रूद्र (भोले) की आँखों से गिरी बूँद, जो वृक्ष के रूप में विकसित हुई. भारतीय अध्यात्म में रुद्राक्ष के महत्व में आप सभी किसी न किसी रूप में परिचित हैं.
रुद्राक्ष, अखरोट की तरह फल की गुठली है अध्यात्म में इसका महत्व इस पर उपस्थित स्पष्ट फलकों के आधार पर सुनिश्चित किया गया है. गंगा की तराई में उगने वाले रुद्राक्ष के वृक्ष 3 - 4 साल में फल देने लगते हैं. रुद्राक्ष का प्रयोग जप व धारण करने में किया जाता है. रुद्राक्ष को मुख्य रूप से स्व उर्जा क्षरण या अपव्यय को रोकने व विषम उर्जा के संपर्क में आने पर उस उर्जा से टकराव के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले दोषों जैसे व्यग्रता, उत्तेजना, घबराहट से बचाव के लिए, धारण किया जाता है. रुद्राक्ष व्यक्ति के चारों तरफ अदृश्य उर्जा आवरण (cocoon) बना देता है. जिससे व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से नकारात्मक या विषम उर्जा के संपर्क में नहीं आ पाता..
           प्राचीन काल में सन्यासियों का एक स्थान पर एक से अधिक बार रुकना वर्जित था जिस कारण उनको विभिन्न स्थानों पर अलग- अलग उर्जा क्षेत्रों के संपर्क में आना होता था अत: उन क्षेत्रों के विषम उर्जा से टकराव उत्पन्न होना स्वाभाविक था, इस परिस्थितियों में धारण किया गया रुद्राक्ष उनके चारों तरफ अदृश्य उर्जा आवरण बनाकर उस स्थान की विपरीत उर्जा से दूर रखने में सहायक होता था.इस तरह सन्यासी अपना ध्यान निर्विघ्न केन्द्रित कर पाते थे. व स्थान से बिना व्यग्रता, उत्तेजना, घबराहट आदि दोषों के साम्यता बना पाते थे. आज की तेज रफ़्तार जिंदगी में गृहस्थ को भी कार्यवश् अकसर स्थान परिवर्तन कर अलग-अलग स्थानों पर जाना होता है जिस कारण विषम उर्जा के संपर्क में आने पर व्यग्रता, उत्तेजना, घबराहट जैसे दोष आने की सम्भावना होती है इस स्थिति में रुद्राक्ष का महत्व और भी बढ़ जाता है..
         रुद्राक्ष को विधि सम्मत धारण करने, तामसी भोजन से दूरी व शुद्धता बनाये रखने पर ही उचित फल प्राप्त हो सकता है.. शास्त्रों में 1 से 21 मुखी तक के रुद्राक्षों के बारे में कहा गया है लेकिन प्रमाणिक तौर पर 14 मुखी तक ही रुद्राक्ष पाए जाते हैं.
             कुटिल तरीकों से लाभार्जन की व्यावसायिक मनोवृत्ति रुद्राक्ष व्यापार में भी हावी है. इतना बताना चाहूँगा शुद्ध रुद्राक्ष जल में डूब जाता है, 6 घंटे तक पानी में उबालने पर भी क्षरित नहीं होता . खरीदते समय ध्यान रखियेगा, रुद्राक्ष आंवले के सदृश हो व उस पर घाटियाँ व पर्वत सदृश रचनाएँ एवं फलक स्पष्ट हों. अस्पष्ट व अविकसित फलक वाले व खंडित रुद्राक्ष धारण नहीं करने चाहिए.
आयुर्वेद के अनुसार रात में रुद्राक्ष को जल में भिगोकर सुबह उस जल को पीने से उच्च रक्त चाप से पीड़ित व्यक्तियों को काफी लाभ होता है.
               आजकल तेज रफ़्तार होती जिंदगी में सामान्य रूप से, अनिश्चितता, मन उचाट, मानसिक दबाव व एकाग्रता की कमी से जूझते हैं. इस स्थिति में आसानी से व कम दामों पर मिलने वाला पांच मुखी रुद्राक्ष बहुत ही लाभदायक है .................16.03.15

Sunday, 13 March 2016

अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !! पर्यावरण पर एक मंथन : भाग - तीन




अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !!

पर्यावरण पर एक मंथन : भाग - तीन

यह कदम्ब का पेड़ अगर होता यमुना तीरे
    मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे !!

        वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाय तो दिल्ली में निष्प्राण व बेहाल यमुना को देखकर सुभद्रा कुमारी चौहान जी की ये पंक्तियाँ दुर्भाग्यवश अप्रासंगिक सी जान पड़ती हैं !!
         ये दृश्य गंगा नदी का है लेकिन सोचता हूँ क्या दिल्ली में यमुना इतनी ही निर्मल व स्वच्छ दिख सकेगी !! यमुना की इलाहबाद तक की कुल 1376 किमी. तक की यात्रा के दिल्ली में यात्रा के दौरान वजीराबाद से ओखला बैरेज तक 22 किमी. की दूरी का क्षेत्र का यमुना के कुल प्रदूषण में लगभग 79 % (साभार: इण्डिया वाटर पोर्टल) का हिस्सा है. यदि इस हिस्से को गन्दगी मुक्त करने की जिम्मेदारी, राजनीतिक पूर्वाग्रहों को त्यागकर, राज्यपाल, शहरी विकास, पर्यटन मंत्री रह चुके कुशल व सख्त प्रशासक श्री जगमोहन साहब को सौंप दी जाय तो निश्चित ही निष्प्राण यमुना फिर से प्राणवान हो सकती है (व्यक्तिगत विचार). इस क्रम में विभिन्न राजनीतिक दबावों के बावजूद भी अपने काम को निर्भीकता और कुशलता से अंजाम देने वालों में पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन साहब व मेट्रो एम डी. श्रीधरन साहब भी उल्लेखनीय नाम हैं.
        दिलों में अपनी खूबसूरत पहचान खोती जा रही प्राकृतिक व सांस्कृतिक धरोहर, यमुना को पुनर्जीवित करने के निहितार्थ विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा अब तक किये गए प्रयासों में हजारों करोड़ रूपये यमुना में बहाए जा चुके हैं ! लेकिन यमुना की स्थिति बद से बदत्तर होती जा रही है !! इस कारण अब युद्ध स्तर पर प्रयास किये जाने आवश्यकता है. जिससे लन्दन की खूबसूरती बढ़ाती, टेम्स नदी की तरह यमुना भी दिल्ली की खूबसूरती में चार चाँद लगा सके और यमुना के गौरवमयी अतीत की वापसी सुनिश्चित हो सके.
         गंगा और यमुना को यदि परिदृश्य से हटा दिया जाय तो हमारी संस्कृति व कृषि निष्प्राण सी लगती है. सोचता हूँ दृढ राजनीतिक इच्छा शक्ति के आगे कुछ भी असंभव नहीं !! अकेले टेम्स ही नहीं दुनिया की कई नदियां ऐसे ही साफ़ की गईं हैं. जर्मनी में राइन, दक्षिण कोरिया में हान और अमरीका में मिलवॉकी नदियों को दृढ राजनीतिक इच्छा शक्ति के बल पर ही पुनर्जीवित किया जा सका है ..


Friday, 11 March 2016

निभाना भी धरम है ..


   > निभाना भी धरम है <

जीवन में अगर गम हैं
तो खुशियाँ भी कम नहीं
पथ में अगर शूल हैं
   फूलों की भी कमी नहीं ..

अंधेरों के बाद उजाले
   जब उसका ही करम है !
विश्वास है भगवान् पर
     तो निभाना भी धरम है ...
 ... विजय जयाड़ा

Thursday, 10 March 2016

अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !! पर्यावरण पर एक मंथन : भाग - दो



अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !!

पर्यावरण पर एक मंथन : भाग - दो

         नदियाँ, संस्कृति व समृद्धि का पर्याय ही नहीं बल्कि प्राकृतिक सौन्दर्य की पूरक भी हैं. लन्दन के बीचों-बीच बहकर शहर की खूबसूरती बढ़ाती टेम्स नदी भी कभी यमुना की तरह मृत होकर बीमारियों की जड़ बन चुकी थी. टेम्स नदी इतनी प्रदूषित हो गयी थी कि 1858 में इससे उठती भयंकर दुर्गन्ध के कारण संसद की कार्यवाही तक रोकनी पड़ी.. इसके बाद वहां की सरकार चेती और ईमानदारी से लगातार 50 वर्षों के सघन प्रयासों के उपरांत टेम्स पुन: अपने खूबसूरत स्वच्छ निर्मल रूप में आ सकी.
       अब मूल विषय पर चर्चा की जाय .. हिमालय के कालिंद शिखर से उद्गम से लेकर इलाहाबाद में गंगा में मिलने तक के यमुना के लगभग 1376 किमी. के सफ़र को पांच क्षेत्रों में बांटा गया है. इस सफ़र के अंतर्गत यमुना बहाव का सबसे छोटा व तृतीय क्षेत्र जो कि मात्र 22 किमी. का है दिल्ली महानगर के अंतर्गत आता है. यही क्षेत्र प्रदूषण की दृष्टि से यमुना के सफर में सबसे भयानक पड़ाव है जहाँ मैले नालों का पानी और कूड़ा-कचरा, कुल प्रदूषण में 79 % का हिस्सेदार बनकर, यमुना को सबसे अधिक विषैला करके उसे मृत घोषित करने को मजबूर कर देता है !! अकेले इस क्षेत्र में 22 गंदे नालों के जरिये प्रतिदिन लगभग 300 करोड़ ली. अपशिष्ट जल यमुना में छोड़ा जाता है. इसी कारण यमुना सफाई के लिए चलाया गया द्वितीय यमुना एक्शन प्लान केवल दिल्ली में यमुना की सफाई पर केन्द्रित किया गया था.
     दिल्ली, यमुना में केवल गन्दगी ही नहीं डाल रही है बल्कि यमुना के तटीय क्षेत्रों में अतिक्रमण करके, यमुना बैंक व शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन अक्षरधाम मन्दिर, मिलेनियम बस डिपो, कॉमनवेल्थ खेल गाँव, इन्दिरा गाँधी इनडोर स्टेडियम सहित हजारों झुग्गी-झोपड़ियाँ भी बन गई है.
     DND पुल के पास यमुना खादर में “ आर्ट ऑफ़ लिविंग “ के सौजन्य से एक ताजा अस्थायी अतिक्रमण आजकल सुर्ख़ियों में है. 11 मार्च से 13 मार्च तक ध्वनि विस्तारक यंत्रों व तेज प्रकाश की पृष्ठभूमि में विश्व प्रेम और शान्ति का सन्देश के देने नाम पर श्री श्री रविशंकर और उनके अनुयायियों द्वारा आयोजित किये जा रहे विश्व सांस्कृतिक महोत्सव, का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री और समापन माननीय राष्ट्रपति करेंगे. इस कार्यक्रम में शामिल होने वाले अनुमानित 35 लाख लोगों की व्यवस्था हेतु नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ((एनजीटी) के आदेशों का खुलम्म खुल्ला उल्लंघन करते हुए शांत यमुना खादर के एक बड़े भाग की प्राकृतिक भू स्थिति को अर्थ मूवर, जेनरेटर, जे सी वी, ट्रकों के उपयोग से रौंदकर और अशांत करके जैव विविधता को समाप्त कर स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र को ध्वस्त कर दिया गया है ! 

         आयोजन के माध्यम से प्रेम और शान्ति के सन्देश के देने के क्रम में न जाने कितने पशु-पक्षी और जीवों के प्राकृतिक आवास समाप्त हो जायेंगे और तेज प्रकाश व ध्वनि विस्तारक यंत्रों द्वारा उच्च आवृत्ति वाली ध्वनियों के उपयोग से किस हद तक क्षेत्र के बचे-खुचे जीव व पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित होगा इसका अनुमान आप स्वयं ही लगा सकते हैं. ध्यान देने योग्य यह भी है कि जिन क्षेत्रों में आर्ट ऑफ़ लिविंग संगठन कार्य कर रहा है उनमे एक क्षेत्र “ पर्यावरण स्थिरता “ भी है !!
      हालांकि गठित प्रिंसिपल कमेटी ने NGT को जमा की गयी रिपोर्ट में कहा है कि आर्ट ऑफ़ लिविंग संगठन से कार्यक्रम प्रारंभ होने से पूर्व 120 करोड़ रुपये का क्षतिपूर्ति हर्जाना वसूला जाय और सम्बंधित क्षेत्र में पूर्ववत भौगोलिक पुनर्स्थापना भी सुनिश्चित की जाय ..
        अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत ! प्रदूषण नियंत्रण के लिए नियुक्त कलयुगी “ कृष्ण “.. दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी और जिला आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण ने यदि कार्यक्रम के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र देते हुए इतनी जल्दबाजी न दिखाई होती तो ये स्थिति न आती ..
प्रश्न उठता है कि यदि हर्जाना वसूल भी लिया जाय तो क्या हम स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र को पुन: उसी रूप में स्थापित कर पायेंगे !! हम इसी लचर इच्छा शक्ति के बल पर दिल्ली में बहती यमुना को टेम्स की तरह खूबसूरत और स्वच्छ बना पायेंगे !! क्या हम इसी लचर इच्छा शक्ति के बल पर यमुना सफाई पर हजारों करोड़ रुपये व्यय करने के बाद भी हम मृत यमुना को टेम्स की तरह पुनर्जीवित कर इस प्राकृतिक धरोहर का गौरवशाली अतीत लौटा पायेंगे !!
विभिन्न यमुना एक्शन प्लान्स, जिनमें 2015 तक यमुना को पूर्णतया प्रदूषण मुक्त करने की कार्य योजना तय की गई थी के बाद यमुना की वर्तमान स्थिति देखकर सोचता हूँ ! जब टेम्स नदी की तरह यमुना की सडांध संसद तक पहुंचकर संसदीय कार्यवाही रोककर स्वयं को स्वच्छ करने को गरियाएगी ! शायद ही हमारे सफेदपोश राजनेताओं की नींद खुलेगी !!
         अंत में सोचता हूँ शायद !! प्रागैतिहासिक काल से निरंतर प्रेम - शांति - समृद्धि का सन्देश देती माँ यमुना को कलयुग में हमने अनियंत्रित " विकास " के कारण उस लायक अब नहीं रखा !! और अब माँ यमुना के स्थान पर हम स्वयं ही विश्व शांति और प्रेम का सन्देश देने इसके तट पर भव्य अतिक्रमण कर डेरा डाल कर पहुँच गए हैं ..

 

आयोजन की तैयारियों में जुटे अर्थ मूवर, जे सी वी,जेनरेटर


आयोजन हेतु समतल कर दिया गया खादर क्षेत्र 

आवाजाही के लिए निर्माणाधीन पन्टून पुल

आयोजन स्थल के पास से बहती मृतप्राय यमुना 

यमुना खादर 

कूड़े-कचरे और गंदे नालों के अपशिष्ट  ढोती यमुना 

DND फ्लाई ओवर पर लगाया गया बोर्ड







भादों मंडप : लाल किला : दिल्ली





भादों मंडप : लाल किला : दिल्ली

        आज साथी अध्यापक श्री गिरीश जी ने दिल्ली में कहीं घुमक्कड़ी पर चलने की इच्छा जताई तो हम सहज व सुगम्य लाल किला पहुँच गए. संग्रहालय, बावड़ी आदि देखने के बाद हयात बख्श बाग़ में पहुंचे तो भादों मंडप के सामने बिछी इस हरियल चादर पर कुछ देर बैठ कर सुस्ताने का लोभ संवरण न कर सके..
        दरअसल शाहजहाँ द्वारा काफी बड़े क्षेत्र में बनाया गया, हयात बख्स बाग़, लाल किला परिसर का सबसे बड़ा बाग़ था. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इसके काफी बड़े भाग को नष्ट कर अपने सैनिकों के लिए बैरक बना दिए थे. इस सुंदर बाग़ में हौज़, मंडप, वॉटर चैनल के अलावा दो मंडप हैं जिनका नाम हिन्दू कैलेण्डर महीनों के नाम पर, “सावन मंडप” और “भादों मंडप” रखा गया था.        
            बादशाह इन मंडपों में बैठकर सावन और भादों महीनों में प्रकृति के शानदार नज़ारे देखा करता था और फनकार, सावन और भादों महीनों के स्वागत में साज और आवाज का जादू बिखेरते थे.
          तस्वीर में ठीक मेरे पीछे भादों मंडप है इन मंडपों पर झरने के रूप में गिरते पानी के कुछ पीछे प्रकाश पात्र और मोमबत्ती रखने के लिए आले बने हैं. रात के समय बहते पानी में सतरंगी झिलमिलाते प्रकाश में दृश्य और भी मनोहारी बन जाता था इन बगीचों में मौसमी फलों के पेड़ों के अलावा .. नीले, सफ़ेद और बैंगनी रंग के फूल बाग़ की सुन्दरता बढ़ाते थे ..
         आज हयात बख्स बाग़ ही नहीं बल्कि दिल्ली में दूर-दूर तक, निरंतर फैलते कंक्रीट के जंगलों के कारण ऋतु फल वृक्षों के दर्शन दुर्लभ हो चुके हैं !!


नक्कार खाने में तूती !! "संग्रहालयों व स्मारकों में थूकना सख्त मना है।"




 

नक्कार खाने में तूती !!

"संग्रहालयों व स्मारकों में थूकना सख्त मना है।"

      विश्व धरोहरों के प्रति, प्रतिदिन आने वाले हजारों स्वदेशी पर्यटकों की संजीदगी व रुझान का अनुमान आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया द्वारा हाल ही में लगायी गयी तथा हिंदी में लिखी .. " संग्रहालयों व स्मारकों में थूकना सख्त मना है " निषेधात्मक चेतावनी पट्टिकाएं, बखूबी बयाँ करती हैं !! साथ ही ये पट्टिकाएँ विदेशियों के सामने हमारे सार्वजनिक स्वच्छता संस्कारों की पोल खोलती भी दिखाई देती हैं !
केवल थूकना ही परेशानी का सबब नहीं !! इन धरोहरों पर " पढ़े-लिखे " पर्यटकों द्वारा भविष्य में यहाँ आने वाले पर्यटकों को स्वयं का स्मरण दिलाने के लिए धरोहरों पर बहुत कुछ " चिर स्थायी " अंकन भी कर दिया जाता है !!
        ये निषेधात्मक पट्टिका लाल किला, नक्कार खाने पर लगी है. शायद स्वच्छता की बात करना भारत में नक्कार खाने में तूती की सी आवाज है !! इसी कारण कुछ साल पहले धरोहरों के जिन भागों को हम करीब से देखकर अनुभूत कर सकते थे ! अब उनके बहुत करीब जाना निषिद्ध कर दिया गया है!!
सोचता हूँ विदेशियों के मुकाबले हम बहुत तेजी से " तरक्की " कर रहे हैं !!
       सार्वजनिक स्वच्छता, राज्य का दायित्व अवश्य है मगर बच्चों में बचपन से ही व्यक्तिगत व सार्वजनिक स्वच्छता अनुशासन संस्कार स्थापित करना माता-पिता, अभिभावकों व शिक्षकों का राष्ट्रीय कर्तव्य भी है। केवल भारत माता की जय के जयकारों से ही देश की चहुंमुखी प्रगति सुनिश्चित नहीं हो सकती बल्कि मनसा-वाचा-कर्मणा, सुचिता अपनाकर देश की सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक प्रगति सुनिश्चित हो सकती है।

बाल-बलिदानी व शौर्य गाथा दीर्घा : लाल किला



बाल-बलिदानी व शौर्य गाथा दीर्घा : लाल किला

उम्र के उस दौर में हम
  खुश होते थे खिलौनों से खेल कर !
सीने पे खायी गोलियां और
     चूम लिया फंदा ! उन्होंने ___
   सरफरोशी की तमन्ना कह कर !!
.. ..विजय जयाड़ा
 
       लाल किला भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का मूक लेकिन चश्मदीद गवाह है. जब भी यहाँ पहुँचता हूँ हर बार कुछ नया मिल जाता है ! ब्रिटिश काल में भारत मां की आजादी हेतु कई ज्ञात-अज्ञात और हर उम्र के लोगों ने देशप्रेम की बलिवेदी पर अपना सब कुछ न्यौछावर किया. इनमें कई मासूम बच्चे भी थे ! लेकिन दुर्भाग्य ! उनकी कुर्बानियों से कवि, लेखकों, इतिहासकारों की कलम अछूती ही रही !! आज भी हम राष्ट्रीय पर्वों पर इन बाल बलिदानियों को यथोचित रूप में याद नहीं करते !
          ये बाल शूरवीर, डॉक्टर, इंजीनियर, कवि, लेखक, उद्योगपति या व्यापारी बनकर भी सुखमय जीवन जी सकते थे लेकिन इन मासूमों ने मातृभूमि के लिए बलिदान मांगने वाला पथ चुना !
           पिछले दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने लाल किले के स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय में शहीद स्मृति चेतना समिति द्वारा गहन शोध उपरांत उपलब्ध कराये गए, 7-8 से लेकर 20 वर्ष तक के बाल बलिदानियों की गाथाओं और 101 दुर्लभ मूल चित्रों के आधार पर हस्तनिर्मित चित्रों से सज्जित गैलरी का लोकार्पण कर इन गुमनाम बाल बलिदानियों को उचित सम्मान और पहचान देने की स्वागत योग्य पहल की है.
           ऐसे 440 से अधिक बाल-बलिदानी जिनके चित्र उपलब्ध नहीं हो सके उनका राज्यवार परिचय दीर्घा के अंत में प्रदर्शित किया गया है. सभी हस्तनिर्मित चित्रों के चित्रकार श्री गुरुदर्शन सिंह ‘ बिंकल ‘ हैं. इस गैलरी में बाल बलिदानियों की तस्वीरें और शौर्य गाथाएं तो रोमांचित करती ही हैं साथ ही चित्रकार ‘बिंकल‘ साहब द्वारा स्वयं के रक्त से बनाये गए 28 बाल बलिदानियों के हस्त निर्मित चित्र कौतुहल और चित्रकार की देशप्रेम से ओतप्रोत भावना से परिचय भी करवाते हैं..
              चित्रकार 'बिंकल' साहब स्वयं की भावना व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि राष्ट्र की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले ये बाल बलिदानी मेरे लिए देव तुल्य हैं. अत; ऐसे देव तुल्य बाल-बलिदानियों के चित्रों का अपने रक्त से श्रृंगार कर मैं स्वयं को धन्य समझता हूँ....
             सोचता हूँ कि जिला स्तर भी पर इस तरह की गैलरियां बनायीं जानी चाहिए और इन गैलरियों में छात्रों को शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत लाया जाना चाहिए, साथ ही बाल बलिदानियों को स्कूली पाठ्यक्रम में भी स्थान दिया जाना चाहिए। जिससे जापान और ऑस्ट्रेलिया की तरह भारत में भी बाल्यकाल से ही बच्चों में बचपन से ही देश प्रेम के संस्कार विकसित हो सकें..
             गैलरी में छायांकन निषिद्ध है लेकिन देशप्रेम की शौर्य गाथाओं व तस्वीरों से ओतप्रोत इस गैलरी से अधिक से अधिक लोग परिचित हो सकें. इस मन: स्थिति में बिना फ्लैश के छायांकन करने से स्वयं को न रोक सका.. इस दृष्टता हेतु सम्बंधित अधिकारियों से क्षमा प्रार्थी हूँ..
           जब भी लाल किला आइयेगा तो लाल किले में प्रवेश उपरांत छत्ता बाजार पार करते ही नौबत खाने से पहले ही बाएं मुड़कर एक बैरक को छोड़ अगली बैरक में पर्यटकों के आकर्षण से वंचित, स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय में बाल-बलिदानी गैलरी में इन बाल-बलिदानियों के जज्बे और देशप्रेम को अवश्य अनुभूत कीजियेगा..


कृतज्ञता ....









कृतज्ञता ....

  देहरादून से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र , न्यू एनर्जी स्टेट, परिवार का कृतज्ञ हूँ । साथ ही मेरे आलेख " अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !! " भाग - एक के बाद भाग दो को भी ज्यों का त्यों अपने संपादकीय कॅालम में स्थान देने योग्य मूल्यांकित करने हेतु संपादक श्री गणेश प्रसाद जुयाल जी का विशेष आभारी हूँ।

Friday, 4 March 2016

धन्यवाद ज्ञापन



धन्यवाद ज्ञापन

        परसों, 2 मार्च को यमुना प्रदूषण पर भाग-एक के अंतर्गत, “अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !!” शीर्षक के अंतर्गत पोस्ट किया था, जिसे देहरादून से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र, New Energy State के संपादक श्री गणेश प्रसाद जुयाल जी ने ज्यों का त्यों अपने पत्र में संपादकीय कॉलम के अंतर्गत प्रकशित करने योग्य समझा, साथ ही अपनी सम्पादकीय कलम से मेरे प्रति जो उदगार व्यक्त किये उससे अभिभूत हूँ. ज्ञातव्य है कि संपादक श्री जुयाल जी 1992-93 में मेरे छात्र रह चुके हैं, और लगन, ईमानदारी व परिश्रम से पत्रकारिता में संलग्न हैं. लम्बे समय के बाद फेसबुक पर ही उनसे मुलाकात हुई थी. आलेख प्रकाशन हेतु New Energy State परिवार व श्री जुयाल जी का हार्दिक धन्यवाद करते हुए यह भी कहना चाहूँगा, साथ  ही पाठक गानों का भी हार्दिक धन्यवाद..

Wednesday, 2 March 2016

अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !! .. एक विवेचना .: भाग - एक





अथ श्री यमुना कथा ! या व्यथा !! .. 

एक विवेचना .: भाग - एक

          आज DND (  दिल्ली – नोएडा ) फलाई ओवर के ऊपर से गुजर रहा था. मन हुआ यमुना नदी की पृष्ठभूमि में एक तस्वीर क्लिक की जाय ! बाइक रोकी .. पुल के नीचे जल राशि पर नजर डाली तो विश्वास नहीं हुआ कि ये यमुना नदी है ! सोचा ! शायद, बरसात में जमुना खादर के किसी कुंड में इकठ्ठा हुआ पानी है जो कई महीनों तक इकठ्ठा रहने के कारण काला कीचड़ बन गया है !! तभी पुल पर लगा एक सुन्दर सा बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था .... 
                                   “ मेरी दिल्ली.. मेरी जमुना .. गन्दगी हटाओ .. जमुना बचाओ “
.....अब पूर्ण विश्वास हो गया कि ये यमुना नदी ही है !!
           यमुना नदी की बात चले और चिर-परिचित, श्री कृष्ण द्वारा कालिय नाग मर्दन प्रसंग का जिक्र न हो तो शायद बात अधूरी ही रह जायेगी !! प्रसंग से तो आप अच्छी तरह विज्ञ हैं लेकिन मैं इस प्रसंग की पूर्व क्षमा सहित वर्तमान सन्दर्भ में विवेचना अवश्य करना चाहूँगा .....
            रमण द्वीप निवासी पन्नग वंशी और कद्रू का पुत्र कालिय द्वापर युग में कोई बाहुबली भू माफिया ही रहा होगा, अतिक्रमण और प्रदूषण फ़ैलाने की प्रवृत्ति के कारण ही प्रचलित प्रसंग में उसे प्रतीक रूप में नाग के रूप में प्रस्तुत किया गया होगा. रमण पर्वत पर पर्यावरण विपरीत कार्यों के चलते जब वहां के राजा गरुड़, कालिय पर क्रोधित हुए तो कालिय नाग अपनी जान बचाने के लिए अपने गैंग के साथ यमुना के किनारे सुनसान खादर क्षेत्र में आकर रहने लगा. लेकिन उसने अपनी मूल प्रवृत्ति को यहाँ आकर भी नहीं त्यागा !!
            कालिय ने अपने गैंग के साथ मिलकर आस पास के लोगों में भय उत्पन्न कर यमुना खादर में अतिक्रमण करके और पर्यावरण विपरीत कृत्यों से जमुना खादर जल कुंडों में इतना अधिक रासायनिक प्रदूषण फैलाया की उन कुंडों का जल अति विषाक्त हो गया जो रासायनिक क्रियाओं के कारण गर्म होकर खौलता रहता था. इस कारण क्षेत्र की जैव विविधता नष्ट होने लगी और जल पीने वाले पक्षी और पशुधन मृत्यु को प्राप्त होने लगा ..
                  उस काल में पशु धन को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था. कालिय के कुकृत्यों के कारण जब जन जीवन बहुत अधिक प्रभावित होने लगा तो श्री कृष्ण ने क्रोधित होकर इस बाहुबली भू माफिया कालिय का मर्दन करके स्थानीय लोगों को राहत दिलाई तथा यमुना क्षेत्र के पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त किया ..
                आज के सन्दर्भ में सोचता हूँ कि आज कलयुग में कालिय की वंश वृद्धि बहुत बहुत तेजी से हुई है ! एकाधिक कालिय और उनके गैंग साथियों को पकड़ने के लिए एक नहीं बल्कि कई कृष्ण तैनात किये गए हैं !! और इस कार्य के लिए उनको अच्छा खासा वेतन भी दिया जाता है लेकिन लगता है कलयुगी कृष्णों ने कालिय से मिलीभगत कर गठबंधन बना लिया है !!

               जब खेत की बाड़ ही खेत को खाने लगे तो भला खेत को कौन बचा सकता है !! यमुना किंकर्तव्यविमूढ़ है !! हम कलियुगी पुत्र उसको समय-समय पर धमकाते रहते हैं !! साथ ही सुबह-सुबह ये मन्त्र उच्चारित कर स्वयं को नदियों के प्रति आस्थावान होने का भी खूब " प्रदर्शन " करते हैं .. लेकिन शायद !! ये मन्त्र हम नदियों के प्रति आस्था भाव से नहीं बल्कि उन पर धौंस जमाते हुए आज्ञा भाव में उच्चारित करते हैं !! 

                                       " गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
                                    नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु.. "

                              लेकिन “ पुत्रो कुपुत्रो जायते माता कुमाता न भवति” 
              यमुना आज भी निश्छल भाव में हम छली पुत्रों की प्यास बुझा रही है ! शांत प्रवाहमय है !!
मन में प्रश्न उठा !! कि क्या कलयुग में फिर श्री कृष्ण के अवतरित होने तक यमुना यूँ ही विषाक्त होती रहेगी ? या यमुना को माँ का दर्जा देने वाले हम पुत्रों को माँ यमुना के निरंतर मैले कुचैले होते आंचल को साफ़ रखने में आत्मा की आवाज़ पर आगे बढ़कर योगदान देना होगा ?


DND (  दिल्ली – नोएडा ) फ्लाई ओवर से यमुना का दृश्य



यमुना जल !! 
जय हो यमुना मैया !!
हम सबने मिलकर क्या हाल कर दिया है यमुना का !!


ऋषिकेश के पास गंगा नदी का स्वच्छ जल.. 
जब यमुना उत्तराखंड क्षेत्र में बहती है तो बिलकुल ऐसा ही स्वच्छ जल यमुना नदी का भी दिखाई देता है .. क्या कभी मैदानी क्षेत्र में ये दोनों नदियाँ इतनी ही स्वच्छ दिख पाएंगी