कामाख्या देवी मंदिर, गुवाहाटी : तंत्र सिद्धि व मातृ शक्ति का केंद्र ..
कल समय अधिक हो गया था जिस कारण नवरात्रि पर्व पर श्रृद्धालुओं की भीड़ को देखते हुए गुवाहाटी से लगभग 8 किमी. दूर स्थित कामाख्या देवी दर्शन हेतु आज का दिन तय हुआ. प्रात: 6.30 पर हम कामाख्या पहुँच गए.इस दौरान कामाख्या का स्थानीय बाजार देखने को मिला. दुकानों में स्थानीय हस्त-शिल्प से बनी वस्तुओं की भरमार थी.मंदिर परिसर में जिस तरफ से हमने प्रवेश किया वहां ज्यादा लम्बी लाइन न थी, दरअसल वह लाइन VIP टिकट खरीदने वालों की लाइन थी. जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ की सामान्य दर्शनार्थियों की लाइन अलग से है और वो काफी लम्बी है. मां कामाख्या दर्शन के बाद हमारा काजीरंगा नेशनल पार्क पहुंचना पूर्व-निर्धारित था इस कारण समयाभाव के कारण हम सभी ने 500 रूपये प्रति सदस्य की दर से VIP टिकट खरीद लीं लेकिन इसके बावजूद भी दर्शन करने में लगभग पांच घंटे का समय लग गया.
इक्यावन शक्ति पीठों में से एक,सर्वोच्च कौमारी तीर्थ और दुनिया में तंत्र सिद्धि के लिए प्रसिद्ध कामाख्या मंदिर के बारे में इससे पहले काफी सुना और पढ़ा था इसलिए करीब से देखने की जिज्ञासा थी. कामाख्या मंदिर, नीलाचल पर्वत पर है. भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन: जीवनदान मिला था. इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है.जन श्रुतियों के अनुसार...
जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ आद्यशक्ति के अम्बूबाची पर्व का “ पूर्व के कुम्भ “ के रूप में महत्व है यह पर्व स्त्री शक्ति और उसकी जनन क्षमता को गौरवान्वित करता है इस दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं.
पूरे भारत में रजस्वला यानी मासिक धर्म को अशुद्ध माना जाता है। लेकिन कामाख्या के मामले में ऐसा नहीं है. हर साल अम्बुबाची मेला के दौरान पास की नदी ब्रह्मपुत्र का पानी का रंग तीन दिन के लिए लाल हो जाता है ऐसी मान्यता है कि पानी का यह लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है। अम्बू बाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट तीन दिन के लिए बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है. इस पर्व में यहाँ पूरे विश्व से तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना व सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटि के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है. तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है. इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं. मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं
इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय व पूजनीय हैं. ऐसा माना जाता है कि वर्ण जाति का भेदभाव -जाति का भेद करने पर साधक की हैं सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं. तराशे गए बड़े-बड़े शिलाखंडों से बने इस .मंदिर के गर्भ गृह में देवी की कोई तस्वीर या मूर्ति नहीं है गर्भगृह में सिर्फ योनि के आकार का पत्थर है. योनि रूप, देवी की महामुद्रा कहलाता है.. मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे एक गुफा में स्थित है
नीलाचल पर्वत पर आठवीं सदी में बना यह मंदिर भी पंद्रहवीं शताब्दी में आक्रान्ताओं के कहर से महफूज़ न रह सका, कालांतर में बिखरे पड़े शिलाखंडों व अवशेषों द्वारा मंदिर का पुनर्निमाण व पुन: पूजा अर्चना प्रारंभ की गई. इतिहासकार इसका श्रेय नर नारायण व चिला राय को देते हैं.. मंदिर में आज भी बलि प्रथा है आज अष्टमी है, देवी को समर्पित करने के लिए काफी बकरे व भैंसे भी बलि देने के लिए बांधे गए हैं. प्रथम बलि दिए जाने वाले भैंसे की कीमत एक लाख रुपये है. इन पशुओं की उम्र हमारे यहाँ बलि दिए जाने वाले पशुओं से काफी कम थी अर्थात ये पूर्ण वयस्क नहीं हैं. यहाँ अष्टमी के दिन कबूतरों की बलि देने की भी परम्परा है . इनके अलावा मछली, लौकी, कद्दू जैसे फल वाली सब्जियां भी बलि के माध्यम से देवी को समर्पित की जाती हैं.
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