बैठे ठाले .... ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
इलैक्ट्रोनिक मीडिया जब से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यवस्था के गुण गान करने वाला और व्यवस्था के अनुरूप नकारात्मक ख़बरों का भोंपू बन गया तब से मैंने टी वी देखना छोड़ दिया. इनका काम है येन केन प्रकारेण मुनाफा कमाना ! बेशक उनके द्वारा प्रसारित व्यवस्था को पोषित करती ख़बरें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित क्यों न करती हों ! तो भला हम क्यों स्वयं में निगेटिविटी को प्रश्रय दें !
आलम ये है कि गप-शप की चौपाल, सोशल मीडिया भी भावुक नागरिकों के माध्यम से इन भोंपुओं की गिरफ्त में आने लगा है. यहाँ भी हर राजनीतिक दल का एक अलग किला नज़र आता है ! जिनमें उनके सैनिकों के साथ वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ आम नागरिक भी खड़ा नज़र आता है ! अलग-अलग राजनीतिक दलों के आई टी सेल उन किलों में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर सामग्री के रूप में असलाह बारूद मुहैय्या करवा रहे हैं. आपसदारी खत्म होती जान पड़ती है ! प्रायः हर कोई एक भोंपू लिए और अपने किले की सुरक्षा में बंदूक ताने खड़ा है !
हर काल में किलों से बाहर सूफी विचारक रहे वे व्यवस्था की आक्रामकता या चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना तथ्यपूर्ण और तर्क संगत दृष्टिकोण से चौपालों में अपनी बात को बेखौप रखते थे. किलेबंदी की मन: स्थिति से हटकर हर कोई उनकी बात को सम्मान दिया जाता था और मनन भी किया जाता था.. इसी तरह के लोगों ने भटके हुए लोगों और समाज को नयी दिशा भी दी .. लेकिन अब देखता हूँ स्थिति उलट है ! अब ऐसे सूफियों को ही संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है ! भटके हुए समाज को दिशा देने वाले लोगों पर ही प्रहार किया जा रहा है . उनका मखौल उड़ाया जा रहा है ! अक्सर कहा जाता है.. “ बी पॉजिटिव “ लेकिन जब केवल नकारात्मक ही परोसा जाय तो साधनों के अभाव से जूझता आम नागरिक कब तक .. बी पॉजिटिव “ पर टिका रह सकता है !.
पहले और अब भी अपने स्वार्थों के चलते विदेशी शक्तियां स्व पोषित दलालों से भड़काऊ बयानबाजी या कार्य करवाकर देश में क्षेत्रीय, धार्मिक, जातीय व भाषाई अफरा तफरी और असुरक्षा का वातावरण बनाने की कोशिश करती थी .. लेकिन मुझे कहने की जरुरत नहीं !! आज उनका काम बहुत आसान हो गया है आज वही काम ............... !!
आखिर हम किस तरफ जा रहे हैं ? क्या दल गत किलेबंदी के चलते हम उसी युग में तो नहीं पहुँच रहे हैं.. सेना में भी सैनिकों के अलग-अलग चूल्हे हुआ करते थे और विदेशी आक्रान्ताओं ने उसका फायदा उठाया ! येन केन प्रकारेण अपने स्वदेशी राजाओं को हारने के लिए विदेशी बहशियों से समझौते किये ! इन मौका परस्त राजाओं और आम जनता का हश्र क्या हुआ ? इससे हम अनभिज्ञ नहीं !!
राजनीतिक आस्था, व्यक्ति आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रहती हैं ... यदि ऐसा न होता तो एक ही दल की सरकार बनी रहती ! सोचता हूँ धरातल पर हमें एक ही बना रहना चाहिए .. धार्मिक अन्धता के चलते धर्म क्षेत्र में आशाराम, राम रहीम जैसे व्यक्ति पूजित होने लगते हैं.. राजनीति में भी कमोबेश इसी आचरण के लोग आने लगे हैं जो भावना प्रधान भारतीय समाज का भावनात्मक दोहन करने का हुनर रखते हैं.. उनसे हमें सावधान रहने की आवश्यकता है ! राजनीतिक मतभेद और मतैक्य देश काल माहौल से प्रभावित अवश्य हो सकते हैं लेकिन हर परिस्थिति में विवेक का रोशनदान खुला रखना भी जरूरी है. जिससे भविष्य में अपनी मानसिक अन्धता के लिए पछतावा न करना पड़े ..
ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ियां भोंपू वाद के समर्थक होने के लिए हमें कोसें !
हम सभी को परम् पिता ने ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं ! भला हम किसी का भोंपू क्यों बनें ! क्यों हम किसी के पिछलग्गू बनें !! सोचता हूं भोंपू बनने से बेहतर, स्व विवेक से सार्थक चर्चा का हिस्सा बनना है।
भावना प्रधान होना मानव सुलभ गुण है लेकिन भावनाओं में बहकर कहीं फिर ऐसा न हो... " लम्हों ने खता की थी... सदियों ने सजा पायी !
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