Monday, 27 August 2018

अतीत में बावलियों का शहर ; दिल्ली : निज़ामुद्दीन बावली


अतीत में बावलियों का शहर ; दिल्ली : निज़ामुद्दीन बावली 

( मूल रूप से ये आलेख मैंने SBS रेडियो ऑस्ट्रेलिया के लिए लिखा है. सोचा, आपके साथ साझा कर लूँ. )
दिल्ली को अगर अतीत का बावलियों (Step Well) का शहर कहा जाय तो शायद अतिश्योक्ति न होगी. बावलियां एक ओर जहाँ आम जन की प्यास बुझाती थी वहीँ गर्मियों में लोग इन बावलियों में बने कक्षों में ठंडक का अहसास पाकर तेज गर्म लू से राहत पाते थे. बावलियां सामजिक सौहार्द, हाल-समाचार जानने, किस्सागोई और गपशप का सार्वजनिक स्थान हुआ करती थी.
समय ने करवट ली अंधाधुंध अनियोजित शहरीकरण के कारण अधिकतर बावलियों का अस्तित्व मिट गया शेष बची कुछ बावलियां आज भी अपने पुनरुद्धार और संरक्षण की गुहार लगाती जान पड़ती हैं.
ऐतिहासिक हुमायूँ के मकबरे से कुछ दूरी पर निज़ामुद्दीन बस्ती में हजरत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह से कुछ दूरी पर ऐसी ही एक बावली है, निज़ामुद्दीन बावली ! 
पुराने समय में यह इलाका गयासपुर गाँव के नाम से जाना जाता था. दिल्ली के सुलतान गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल (1320-25) में दिल्ली की सबसे बड़े आकार की इस आयताकार बावली का निर्माण सन 1321-22 में, बाइस ख्वाज़ाओं की चौखट कही जाने वाली दिल्ली में सबसे अधिक शोहरत प्राप्त चिश्ती सिलसिले के सूफी संत, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने करवाया था. हज़रत औलिया इसी बावली के जल से वज़ु करने के बाद नमाज अता करते थे. लोक मान्यता के अनुसार बावली के जल को पवित्र व कई बीमारियों से मुक्त करने वाला माना जाता है.
दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक, फकीरी में बादशाही करने वाले हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को नहीं चाहते थे ! जब तुगलक, तुगलकाबाद किला बना रहा था उसी दौरान हज़रत औलिया भी बावली का निर्माण करवा रहे थे. इससे चिढ़कर तुगलक ने शाही फरमान जारी किया कि कोई भी कामगीर किले के निर्माण के अलावा किसी दूसरी जगह काम नहीं करेगा. ऐसा न करने पर उसे दंड दिया जाएगा. लेकिन हजरत साहब के प्रति लोगों में इतनी श्रृद्धा व आस्था थी कि कामगीर दिन में किले में और रात में बावली में काम करने लगे. जब तुगलक को ये पता लगा तो उसने रात में प्रकाश करने हेतु प्रयुक्त किए जाने वाले तेल के दाम बढ़ा दिए. इस पर नाराज हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने तुगलकाबाद किले को लक्षित करते हुए कहा ..
“ या रहे ऊसर या बसे गुज्जर “ (“Either it remains barren or be inhabited by nomads”)
आज भी चारों तरफ उपनगरीय क्षेत्रों से घिरा संत शापित विस्तृत तुगलकाबाद किला वीरान और सुनसान है . यहाँ अगर कुछ दीखता है ! तो वो हैं खंडहर, झाड़ियां और मवेशियों को चराते महज कुछ पशुपालक !! 
कहा जाता है कि हजरत औलिया साहब ने बावली के प्रकाश हेतु पात्रों में तेल के स्थान पर जल का प्रयोग किया. इस तरह बावली का काम निर्बाध जारी रहा. कुछ इतिहासकार बावली का निर्माण चांदनी प्रकाश में बताते हैं. 
लगभग 700 साल से ज़ियारत के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह पर आने वाले हर ज़ायरीन की गवाह, इस बावली के संरक्षण की आवश्यकता तब महसूस की गयी जब जुलाई 2008 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधीन इस ऐतिहासिक बावली की दीवारों से सटे मकानों के सीवर रिसने से बावली की दीवार ढह गयी. इस घटना के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (AKTC) के माध्यम से इस बावली का पुनरुद्धार व संरक्षण कार्य तेजी से किया गया, भारत में पहली बार बावली का लेजर स्कैन, ग्राउंड पेनेट्रेटिंग राडार सर्वे तकनीक से बावली में जल आपूर्ति करने वाली भूमिगत अवरुद्ध जल वाहिकाओं का पता लगाया गया. प्राकृतिक व मानवीय श्रोत से उत्पन्न सात शताब्दियों से जमा मलबे को कठिन मानवीय श्रम द्वारा भूतल से 80 फीट की गहराई तक हटाकर, बावली के आसपास के संकरे रास्तों से निकालने में 8000 मानव कार्य दिवसों का समय लगा. 
बावली की दीवारों से सटकर बनी कई बहुमंजिली इमारतों का कूड़ा करकट, ऊचे स्थानों से बावली में छलांग लगाते तैरते बच्चे, वजु का बावली में गिरता पानी, बावली के जल को प्रदूषित कर रहे हैं. लेकिन बावली के हरे और धूमिल जल के प्रति श्रद्धालुओं की श्रद्धा बरक़रार है.

No comments:

Post a Comment