Tuesday 2 February 2016

महाभारत कालीन योगमाया मंदिर, महरौली, दिल्ली



महाभारत कालीन योगमाया मंदिर, महरौली, दिल्ली

             भले ही ढ़िल्लू की दिल्लिका का सफ़र लाल कोट से लगभग 1000 वर्षों का सफ़र तय करता हुआ रायसीना की पहाड़ियों पर नई दिल्ली के रूप में परिवर्तित होकर थम गया लेकिन इस दीर्घ कालावधिक यात्रा में उसने कई राजवंशों का उत्कर्ष व पराभव देखा. लगभग 5000 साल पूर्व महाभारत काल में इन्द्रप्रस्थ से प्रारंभ दिल्ली का इतिहास अनुमानों, कहानियों व श्रद्धा तक ही सीमित रहकर लाल कोट ( प्रथम दिल्ली) से पहले ही न जाने कहाँ समाप्त हो गया ! ! केवल 1100 के बाद का इतिहास ही क्रमबद्ध रूप से उपलब्ध है.
        महाभारत काल का जिक्र किया तो ये भी कहना चाहूँगा कि दिल्ली में पांच स्थान महाभारत काल से जुड़े माने जाते हैं .. योगमाया मंदिर, महरौली.. पुराना किला, कालका जी मंदिर, यमुना बाजार स्थित, मरघट वाले बाबा, हनुमान मंदिर और निगम बोध घाट.
        रविवार को बदली भरे मौसम में महरौली का रुख किया. लेकिन अबकी बार क़ुतुब मीनार से 100-150 गज की दूरी पर स्थित महाभारत कालीन योगमाया मंदिर पर पहुँच गया. मूल रूप में इस मंदिर का निर्माण, महाभारत उपरान्त पांडवों द्वारा किया गया माना जाता है. जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार इस स्थान पर रहने वाले बासिंदों की माँ योगमाया (कंस ने धोखे में कृष्ण के स्थान पर जिस कन्या को मारने की कोशिश की थी) में अटूट श्रद्धा के कारण इस स्थान को योगनीपुरा नाम से जाना गया है. कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान को परास्त करने के बाद मुहम्मद गौरी ने जिन 27 हिन्दू और जैन मंदिरों को ध्वस्त करवाया उनमे योगमाया मंदिर भी था, बाद में हिन्दू सेनापति हेमू ने पुन: इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया.
        मंदिर के गर्भ गृह में संगमरमर के छोटे कुंड में माँ योगमाया की काले पत्थर से बनी मूर्ती है. मंदिर परिसर से सटे ऊँचे आवासीय मकानों व मंदिर के नवीनीकरण के कारण मंदिर की पुरातन छवि परिदृश्यत नहीं होती. काफी खोजने के बाद भी मंदिर में कोई पुरातन अवशेष न मिल सका जिसका मुझे मलाल अवश्य रहा.. सोचता हूँ पौराणिक मंदिरों का जीर्णोद्धार इस तरह किया जाना चाहिए की उनकी पुरातन छवि बनी रहे.. उनसे उस काल की महक आती रहे.
        1812 में प्रारंभ धार्मिक सौहार्द के उत्सव, “फूल वालों की सैर” या “सैर-ए-गुल फरोशा” के कारण इस मंदिर में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय दोनों की पहुँच है. बांटो और राज करो की नीति के अंतर्गत अंग्रेजों ने 1942 में सामाजिक सौहार्द के पर्व “फूल वालों की सैर” या सैर-ए-गुल फरोशा के आयोजन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसे पंडित नेहरु के आग्रह पर 1961 में पुन: प्रारंभ कर दिया गया. इस उत्सव में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग मन्दिर में फूलों का पंखा चढ़ाते हैं।( फूल वालों की सैर बारे में फिर कभी )


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