Saturday, 2 April 2016

उचककर देखती...





उचककर देखती
नि:शब्द दीवारें यहाँ !
गहरे जल का वो पुराना
नजारा अब नहीं !
परछाई रोज निकलती हैं
दीवारों से शाम-ओ-सहर
बतियाकर दीवारों से
दीवारों में ही खो जाती हैं यहाँ
छोड़ गया ___
जीवन अधूरे में इन्हें !
मगर बादल अब भी
ठहरते हैं यहाँ
लिपट जाते हैं ___
अतीत से बतियाते हुए
बरसते हैं___
रो पड़ते हैं यहाँ !!
साथ दिया किसने
दुनिया में सदा के लिए
खुद में __
मशगूल रहते हैं सब यहाँ !
मजबूरियाँ होती हैं
कारण जुदा होने का
मगर__
जान कर भी
मुसीबत में अकेला
छोड़ देते हैं कुछ लोग यहाँ !!

.... विजय जयाड़ा
 

No comments:

Post a Comment