Tuesday, 26 April 2016

पहाड़ !!



          पहाड़ धरा पर एक उन्नत भूखंड मात्र ही नहीं है बल्कि पवित्र निश्छल प्रेरक समष्टि भी है जो साधक को झंझावातों में ईमानदारी व जीवट बनाए रखकर अडिग व अविचलित रहते हुए परिश्रम के मार्ग पर चलकर साध्य तक पहुंचने की प्रेरणा भी देता है।
            इसे पहाड़ का दुर्भाग्य कहा जाय !! या नीति निर्धारकों की अदूरदर्शिता !! लेकिन मर्मस्पर्शी कटु सत्य है कि आजादी के कई दशक बाद भी .. " पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी, अब तक भी पहाड़ के काम नहीं आ पाये हैं !! ..
             इस उक्ति को बदलने के संजीदगी भरे वादे किए गए मगर ...
             उक्ति बदले या न बदले ! फिलहाल ! अपना भाग्य बदलना "भाग्य विधाताओं" की प्राथमिकताओं में है ! ये जगत् जाहिर सत्य है!!
               हालिया लोकतंत्र महापर्व (चुनाव) मनाए लगभग दो साल हो लिए ! अब शायद ! नए महापर्व की आहट पर कोई नई "सार्थक" पहल हो !!
मगर पहाड़ न निराश है ! न हताश !! न कुंठित ही है !!! अडिग है और निरंतर अपना सहज धर्म निभा रहा है।
              फिलहाल, भीषण गर्मी में पहाड़ के रस से तर, इस प्राकृतिक स्रोत के शुद्ध जल से गले को तर कर लिया जाए !!


पहाड़ पर रात का सजग-समझदार व बहादुर प्रहरी : भोटिया कुत्ता



स्माइल प्लीज़ ...
         हालांकि दुआधार में अभी शाम के समय मौसम सुहावना है मगर ये महाशय गर्मी से परेशान से दिख रहे हैं !!.
         ठंडी जलवायु में रहने वाले, गंभीर स्वभाव के वफादार भोटिया प्रजाति के कुत्ते, अनावश्यक भौं-भौं या कुं-कूं किए बिना पहाड़ पर रात के सजग-समझदार व बहादुर प्रहरी हैं. ये अकेले ही बाघ से टक्कर लेने की हिम्मत रखते हैं और अगर दो हों तो बाघ जैसे बुद्धिमान व बलशाली जानवर को धराशायी कर देने की कुव्वत भी रखते हैं.
        भेड-बकरी पालने वाले घुमंतू लोग, जिन्हें गद्दी कहा जाता है इन भोटिया कुत्तों को अपनी व बकरियों की सुरक्षा की दृष्टि से सदैव अपने साथ रखते हैं. ये कुत्ते भेड़-बकरियों के झुण्ड के आगे-पीछे और दायें-बाएं, स्वाभाविक सुरक्षा व्यूह रचना में अपना-अपना मोर्चा संभाले साथ-साथ चलते रहते हैं.
          मौसम के अनुसार घुमंतू गद्दी लोगों का अपनी बकरियों के झुण्ड के साथ ठन्डे स्थानों की तरफ प्रवास जारी रहता है, एक ओर ठन्डे स्थान भेड़-बकरियों के शरीर क्रिया के अनुकूल होते हैं वहीँ व्यावसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भेड़ों के शरीर पर महीन ऊँन, बहुत ठन्डे स्थानों पर ही उग पाती है.
            गद्दी लोग बकरियों के झुंडों को लेकर साथ-साथ चलते हैं लेकिन ये भोटिया कुत्ते सैकड़ों भेड़-बकरियों के अलग-अलग झुंडों में भी अपने झुण्ड की सैकड़ों भेड़-बकरियों को बखूबी पहचानते हैं. क्या मजाल जो कोई इनके झुण्ड की बकरियों, सामान या गद्दियों के बच्चों को हाथ लगा सके ! ऐसा करने पर बिना किसी पूर्व चेतावनी के उस व्यक्ति या जानवर पर तुरंत आक्रमण कर सकते हैं !
गद्दियों की विशेष सांकेतिक आवाज को समझने वाले ये कुत्ते विला-वज़ह न भौंकते हैं ! न आक्रमण करते हैं !!
       मैंने भोटिया कुत्तों को कई वर्ष पाला है इसलिए इनकी आदतों व व्यवहार से वाकिफ हूँ। इनकी वफादारी सजग पहरेदारी पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभूत कई रोचक किस्से भी हैं .. प्रसंग आने पर फिर कभी ! फिर भी कहूंगा कि बकरियों के साथ शांत व मस्त चाल में चलते इन भोटिया कुत्तों से सावधान रहने में ही भलाई है !!





Friday, 22 April 2016

स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएँ .. हमारी पहचान : पगत भोज




 बरात पौन्छ्दा ही सरोळा जी की खरोळा खरोळ !!

                           स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएँ .. हमारी पहचान


      एक ओर जहाँ शहर के तेज रफ़्तार और दिखावे भरे जीवन में हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ दम तोडती जा रही हैं वहीँ गांवों में अब भी ये परम्पराएँ जीवित हैं. शायद इसी लिए कहा जाता है कि यदि वास्तविक भारत को देखना और समझना है तो गाँव के जन जीवन का अध्ययन आवश्यक है. वास्तव में असली भारत अब भी गाँव में ही बसता है.
    बेशक आधुनिकता की चकाचौंध गाँव तक पहुँच गई है जिसके कारण शहर की तरह गाँव के छोटे बच्चे भी आपको अंकल कहकर संबोधित कर सकते हैं ! लेकिन राह चलते अजनबी व्यक्ति को भी गाँव के छोटे-छोटे बच्चे जब दोनों हाथ जोड़कर शालीनता से .. “ अंकल जी ... प्रणाम “ कहते हैं तो उन बच्चों के प्रति सहज स्नेह छलक जाता है और अनकहे भी दिल से आशीर्वाद भाव उमड़ पड़ता है.
     अब मूल विषय पर आता हूँ .. यात्रा क्रम में विवाह में भी शामिल होना था. शहर की शादियों में व्यंजनों की भरमार बेशक देखने को मिलती है लेकिन जो आनंद व संतुष्टि, गाँव की शादी में खुले प्राकृतिक वातावरण में पंगत अनुशासन में बैठकर सादे चावलों से बने भात और भडू में बनी नौरंगी (मिक्स) दड़बड़ी दाल में आता है वो शहरों की शादियों के व्यंजनों में नहीं आता (आपकी पसंद की बात तो नहीं कह सकता लेकिन मुझे तो बिलकुल नहीं आता). आज भी भडू की दाल के सामने किसी भी नामचीन सेफ द्वारा बनायीं गयी दाल नहीं टिकती !!
     इस संतुष्टि कारक दाल- भात को पकाने वाले एक विशेष जाति से सम्बन्ध रखते हैं जिन्हें “ सरोला “ कहा जाता है. ग्राम्य समाज में उच्च सम्मान प्राप्त ये लोग पीढ़ी दर पीढ़ी ये कार्य करते आ रहे हैं. जिस स्थान पर खाना बनाते हैं उस स्थान पर एक निश्चित सीमा के अन्दर अन्य लोगों का प्रवेश वर्जित होता है बेशक मालिक ही क्यों न हो !! इनके श्रम साध्य व धर्म निष्ठ व्यक्तित्व परआश्चर्य की बात ये भी है कि चिलचिलाती गर्मी हो या कड़कड़ाती सर्दी !! ये बिना किसी सहायक के अकेले ही कुशलता पूर्वक भोजन बना लेते हैं और अकेले ही गाँव के सभी लोगों को पंगत में अपने हाथों से भोजन भी परोस लेते हैं !!
       आधुनिकता की चकाचौंध और दिखावे की होड़ अब गाँव तक भी पहुँच गयी है. शादियों में शहरों से टेंट और हलवाई लाये जा रहे हैं. पंगत भोजन की जगह बूफे भोजन लेने लगा है परिवार की बढती आवश्यकतों की पूर्ति के लिए सरोला लोग शहरों में नौकरियां व अन्य व्यवसाय करने लगे हैं. लेकिन ऐसी परिस्थितियों में भी जो लोग अपने शुभ कार्यों में इस तरह की भाई-चारा व परस्पर सौहार्द बढ़ाने वाली स्वस्थ परम्पराओं को अपनाकर जीवित रखे हुए हैं वे वास्तव में बधाई के पात्र हैं ..
       दगड़ियो्ं, अब यन बता दौं कि दाळ भात कि रस्याण आप तक भि पौंछि कि नि पौंछि !! चला बैठा पंगत मा.. शुरू करा ..सपोड़ा.. सपोड़ !!

भडू में पकती दाल का जायजा 

भोजन तैयार करते सरोला जी 


भोजन परोसते सरोला जी 

पंगत में भोजन 


Thursday, 21 April 2016

विश्राम



       तूफानी भ्रमण उपरांत ऋषिकेश वापसी के दौरान रात होने लगी तो देखा सूर्य देव दिन भर की यात्रा पूर्ण कर के कुछ सुस्ताते हुए विश्राम के लिए पहाड़ी की दूसरी तरफ जा रहे थे ..
     सूर्यदेव के आँखों से ओझल होने से पूर्व !! इस मनोहारी दृश्य को अपने छुटकू कैमरे में समेटने का लोभ संवरण न कर सका..


इधर जाऊं या उधर जाऊं !!







इधर जाऊं या उधर जाऊं  !!


       ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर खाड़ी के समीप पत्थरों पर पैर रखकर नागणी गाड पार करते हुए कुछ ऐसी ही स्थिति बन गयी !!
       जीवन में कई बार असमंजस में अनिर्णय की मन:स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं, तब व्यक्ति का जीवट व विवेक ही उसका वास्तविक साथी सिद्ध होता है.
        बेटी दीपिका ने इस मन:स्थिति को कैमरे में कैद कर लिया !! ये दिल्ली वापस आने पर ही पता लगा.



चरैवेती चरैवेती !!



चरैवेती चरैवेती !!


            ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर मैदानी भागों से उत्तरकाशी से भी आगे ठन्डे स्थानों की तरफ अपने माता-पिता के साथ ग्रीष्मकालीन प्रवास के लिए बढ़ती इन बच्चियों से रूबरू हुआ. रात के अंधेरों में परिवार और मवेशियों के साथ अपने नन्हे-नन्हे क़दमों से कई किमी. की कठिन चुनौतीपूर्ण दूरी को मजबूत इरादों के साथ तय करती इन बच्चियों के पिता ने प्रारंभिक हिचकिचाहट के बाद मेरे मंतब्य को भांपते हुए, अंतत: इन बच्चियों, शाजमा और रेशमा, को मेरे साथ तस्वीर क्लिक करने की अनुमति दे ही दी.
         पूरी रात गंतव्य की ओर चलते हुए जहाँ कहीं भी इन घुमन्तू लोगों को सुबह के दीदार होते हैं वहीँ पानी के श्रोत के आसपास ये लोग अपने लिए भोजन व मवेशियों के लिए चारे की व्यवस्था के लिए व कुछ समय आराम करने हेतु वहीँ डेरा डाल देते हैं.गर्मी की आहट इन घुमंतू गुर्जर लोगों को पहाड़ी ठन्डे भागों की ओर, और सर्दी की इनके द्वार पर दस्तक, इन्हें मय पशुधन मैदानी भागों की ओर बढ़ने को मजबूर कर देती है !!
         पारंपरिक पाठशाला तो शायद इनके लिए स्वप्न सदृश ही है !! प्रकृति की गोद ही इन बच्चियों की वास्तविक व व्यावहारिक पाठशाला है ! और वही कर्मभूमि भी है. प्रकृति ही इन बच्चियों को कठिन परिस्थितियों में धैर्य पूर्वक सामंजस्य बना कर जीना सिखाती है, आत्मविश्वास उत्पन्न करती है.
        चरैवेती चरैवेती ... शायद यही जीवन मंत्र इन घुमंतुओं ने व्यावहारिक रूप में आत्मसात कर लिया है ..नहीं थकना .. नहीं रुकना .. सतत चलना सदा चलना ..
   प्रवास पर ये भी हैं ! और मैं भी !! लेकिन दोनों के प्रवास की प्रकृति में काफी भिन्नता है !!


सेवा और सेवा के अलग-अलग स्वरुप !!

 

सेवा और सेवा के अलग-अलग स्वरुप !!

         आधुनिक जीवन शैली में एक ओर महंगे विदेशी नस्ल के कुत्तों को पालना, सेवा की तुलना में स्व वैभव प्रदर्शित करने का जरिया अधिक बनता जा रहा है वहीँ मानव तिरस्कार झेलते भोजन की तलाश में सड़कों पर आवारा घूमते देशी नस्ल के कुत्ते बहुतायत में देखे जा सकते हैं जो कई बार परेशानी का सबब भी बन जाते हैं.
        हमारे आध्यात्मिक दर्शन व संस्कृति में कण-कण में और हर जीव में ईश्वर का अंश व वास माना गया है. इजराइल से आई ये तीन उम्रदराज पर्यटक महिलाएं उसी दर्शन को मूर्त रूप में चरितार्थ करती जान पड़ती हैं.
        राम झूला से लक्ष्मण झूला की तरफ बढ़ते हुए गंगा किनारे भीषण गर्मी में एक बीमार आवारा कुत्ते की ग्लूकोज लगाकर सेवा में मग्न, पशु चिकित्सा से जुडी इन तीन इजराइली महिलाओं ने बरबस ही ध्यान आकर्षित कर दिया !! जानकारी लेने पर पता लगा कि ये इस कुत्ते की कई दिनों से लगातार चिकित्सा कर रही हैं. केवल इस कुत्ते की ही नहीं ! बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर, अपने वतन से बहुत दूर, प्रचार, सरकारी अनुदान या दान आदि की बिना चाहत के, इस धार्मिक व पर्यटन क्षेत्र के हर आवारा बीमार कुत्ते की पिछले तीन माह से व्यक्तिगत रूप से नि:स्वार्थ चिकित्सा कर रही हैं. सोचता हूँ पशु सेवा के माध्यम से ये अप्रत्यक्ष रूप से मानव सेवा ही है .
       विडंबना जानिए ! विदेशियों के इस पशु सेवा भाव में व्यावसायिक मानसिकता रखने वाले कुछ स्थानीय लोगों ने अपनी आमदनी का जरिया भी खोज लिया है ! इस क्रम में कुछ बाबा टाइप व कुछ स्थानीय लोगों ने आवारा कुत्ते पाल लिए हैं. विदेशियों को आकर्षित करने के लिए ये लोग विदेशियों के सामने पाल्य कुत्ते की सेवा करने का खूब ढोंग करते हैं !! विदेशी इस सेवा भाव के छलावे में आकर मालिक को कुत्ते की सेवा के लिए खूब धन देते हैं ! लेकिन विडंबना !! विदेशियों के स्वदेश लौटते ही ये स्वार्थी लोग उन कुत्तों को फिर कहीं दूर आवारा छोड़ देते हैं !! शायद ये लोग भूल जाते हैं कि इस तरह के आचरण से विदेशों में हमारी संस्कृति व सभ्यता को लेकर गलत संदेश भी जाता है !


Sunday, 10 April 2016

अमूर्त नहीं !



अमूर्त नहीं !
धरती पर उग आये
संवेदनारहित पौधे मूर्त हैं !
महानगरों में
चलते फिरते बुतों ने
फितरत के मुताबिक
अब__
स्टील के दरख्त उगाये हैं !!
... विजय जयाड़ा


गुज़रे हुए ज़माने के



मेरे कैमरे की नज़र ... आपस में बतियाते इतिहास के दो काल खंडों के मूक गवाह ... लौह स्तम्भ व क़ुतुब मीनार, महरौली, दिल्ली।
गुज़रे हुए ज़माने के
निशां बहुत हैं यहाँ,
     तारीख़ ने सदा दी__
दो गवाह अब भी खड़े हैं यहाँ ..
.. विजय जयाड़ा

Monday, 4 April 2016

मेरी प्रेरणा स्रोत पुस्तक ; “ मेरी दिल्ली “








मेरी प्रेरणा स्रोत पुस्तक ; “ मेरी दिल्ली “

        प्रेरणा या उत्प्रेरण किस माध्यम से कब और किस दिशा में मिल जाय कुछ कहा नहीं जा सकता !! ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व, घटना या पुस्तक भी प्रेरणा या उत्प्रेरण का काम कर सकते हैं.
आप मेरे यात्रा वृत्तांत पढ़ते हैं दिल से सराहते हैं इसके अलावा आपके प्रोत्साहन के फलस्वरूप इन यात्रा वृतांतों का रेडियो से प्रसारण व समाचार पत्रों में भी प्रकाशन हो चुका है. कई साथी यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि विभिन्न ऐतिहासिक स्थानों पर जाकर वहां का यात्रा वृतांत लिखने कि प्रेरणा मुझे कहाँ से मिली ??
     अदना सा व्यक्ति हूँ इसलिए इस सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बात नहीं करना चाहता ! हालाँकि इस सम्बन्ध में रूचि तो पहले से ही थी लेकिन 2014-15 में जब मेरे पास कक्षा तीन थी तो मुझे पाठ्यक्रम में सामजिक विषय के रूप में सम्मिलित पुस्तक, “ मेरी दिल्ली “ भी पढ़ानी थी ! इस पुस्तक में कक्षा आयु वर्ग के मानसिक स्तरानुरूप, बच्चों का दिल्ली की बसावट व कुछ ऐतिहासिक स्थानों से संक्षिप्त परिचय करवाया गया है.
        इस पुस्तक ने ही मेरी रूचि को विस्तार दिया या यूँ कह लीजिये प्रेरणा या उत्प्रेरण का काम किया. फलस्वरूप मैं दिल्ली का इतिहास करीब से टटोलने निकल पड़ा !! दिल्ली ही नहीं इस पुस्तक की प्रेरणा उपरान्त कई अन्य प्रदेशों से सम्बंधित, अब तक 150 से अधिक यात्रा वृत्तांत लिख चुका हूँ..
      सोचता हूँ, देख-सुन-पढ़ कर उस दिशा में हमारे अन्दर कौतुहल उत्पन्न होता है और यही कौतुहल, प्रेरणा या उत्प्रेरण का काम करता है लेकिन दृढ इच्छा शक्ति, अथक परिश्रम व लगन ऐसे कारक हैं जो प्रेरणा को मूर्त रूप देते हैं और सम्बंधित क्षेत्र में सफलता सुनिश्चित करते हैं..


Saturday, 2 April 2016

जय गढ़ दुर्ग : जयपुर : राजस्थान



जय गढ़ दुर्ग : जयपुर : राजस्थान

        घुम्मकड़ी के क्रम में जोधा-अकबर फिल्म में दिखाए गए इन कड़ाहों को खोजते-खोजते, जयपुर में " चील का टीला " (Hill Of Eagles) पर 1726 में जय सिंह द्वितीय द्वारा बनाये गए जयगढ़ किले में पहुँच गया.
       कभी जोधाबाई ने इन कड़ाहों में पकवान बनाये होंगे ..सोच रहा हूँ कौन सा पकवान बनाऊं !!  पीछे “भड्डू “ तीन धातुओं ( ताँबा। जस्ता। पीतल से बना मोटी परतदार बर्तन) भी रखा है .
भड्डु दर्शन से उसमें पकी दाल की लज्जत पर स्थानीय प्रचलित सूक्ति याद आ गई ...


" रास्ता चलना सड़क का चाहे फेर क्यों न हो
और ____
       दाल खानी भड्डु की चाहे देर क्यों न हो !! 


अशोक स्तम्भ, फिरोजशाह कोटला दुर्ग : दिल्ली



अशोक स्तम्भ, फिरोजशाह कोटला दुर्ग  : दिल्ली

        अक्सर जब रिंग रोड़ से गुजरता था तो ये लाट अपनी और ध्यान आकर्षित करती थी, तब मुझे ये दूर से ये चिमनी सी प्रतीत होती थी !! जिज्ञासा हुई !! पहुँच गया ..
      पुराने समय में संचार के माध्यमों का अभाव होने के कारण, प्रजा को जानकारी देने के लिए लोहे व पत्थर के ऊँचे स्तम्भों पर राजाज्ञा या किसी विशेष घटना के बारे मे संक्षिप्त वृतांत उत्कीर्ण कर ऐसे स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था, जहाँ से आम आदमी आसानी से पढ़ सके।
        इतिहासकारों के अनुसार, सम्राट अशोक के दो स्तंभों को फिरोजशाह तुगलक दिल्ली लाया. 13.1 मीटर लम्बा और 27 टन भार वाला यह स्तम्भ पोलिश किये हुए बलुआ पत्थर का है लेकिन देखने में धातु सी चमक लिए हुए है जो तीन शताब्दी ईसा पूर्व का है और यह फिरोजशाह द्वारा टोपरा(अम्बाला) से उठवाकर दिल्ली लाया गया है और फिरोजशाह कोटला दुर्ग में वर्तमान स्थान पर जामी मस्जिद के समीप स्थापित किया गया. जिस पुराने ढाँचे पर ये स्तम्भ स्थापित है अब वह जीर्ण हो चुका है।
दूसरे स्तंभ को मेरठ के पास से लाकर कुश्क ए शिकार पर स्थापित किया गया।
       इस पर सम्राट अशोक की राजाज्ञाएं, पाली, प्राकृत और ब्राही लिपि में सात अभिलेख उत्कीर्ण है। इस पर चौहान शासक बीसलदेव, भद्रमित्र और इब्राहीम लोदी के भी अभिलेख उत्कीर्ण हैं।


दिल्ली के ऐतिहासिक स्थल : जामा मस्जिद




दिल्ली के ऐतिहासिक स्थल : जामा मस्जिद

         कल रविवार था तो साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले कम क्रय शक्ति के पाठकों के लिए सस्ते दाम पर उच्च कोटि के साहित्य व पाठ्यक्रम सम्बंधित पुस्तकें उपलब्ध करा कर साहित्य की सेवा करने वाले दरियागंज पटरी पुस्तक बाज़ार का रुख किया.धूप में तेजी बहुत थी. किलो के भाव साहित्य बिकता देख कष्ट अवश्य हुआ !!       
         दिल्ली गेट से दुकानों को टटोलता पैदल ही जामा मस्जिद तक पहुँच गया. दिल्ली में रहते 20 साल हो गए लेकिन कई ऐसे ऐतिहासिक स्थान हैं जो आते जाते तो दिख जाते हैं लेकिन उनको करीब से देखने का अवसर नहीं मिला !
            मन में कौतुहल उत्पन्न हुआ ! पूर्व शहरी विकास मंत्री जगमोहन सिंह जी का शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने कई ऐतिहासिक स्थलों के आस-पास सौन्दर्यीकरण की मुहीम चलायी थी,काश वो कुछ समय और मंत्री रह पाते !!
खैर गेट न.1 की 39 सीढियां चढ़ता जामा मस्जिद परिसर में दाखिल हो गया. तेज गर्मी से मेरा बुरा हाल था लेकिन पहाड़ी पर होने के कारण बहती ठंडी हवा ने काफी राहत पहुंचाई .
           शाहजहाँ द्वारा करवाए गए इस निर्माण में 6000 मजदूरों ने 6 वर्ष (1550-1556) तक कार्य किया. उस समय निर्माण लागत 10 लाख रुपए आई. भारत की इस सबसे बड़ी मस्जिद में एक बार में 25000 लोग नमाज अदा कर सकते हैं . साथ ही यहाँ पर इस्लामिक मान्यता के अनुसार पत्थर पर हजरत मोहम्मद साहब के पैर के निशान, दाढ़ी का बाल और आरंभिक समय की हस्त लिखित कुरान शरीफ भी प्रदर्शित की जाती है.


उग्रसेन की बावड़ी : दिल्ली




उग्रसेन की बावड़ी : दिल्ली

सूनी खड़ी ताकती दीवारें बयां करती कुछ ख़ास हैं,
रौनकें बस्ती थी यहाँ , अब फिर उनका इंतज़ार है... 
                                                              ^^ विजय जयाड़ा

          कभी दिल्ली खूबसूरत बावडियों का शहर हुआ करता था लेकिन बढ़ते कंक्रीट के जंगल ने उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया .. आज ये बावड़ियाँ सुनसान हैं
        दरअसल आज कनाट प्लेस के पास हेली लेन क्षेत्र में स्थित, दिल्ली की बेहतरीन बावडियों में से एक ‘ उग्रसेन की बावड़ी ‘ अवलोकन का मन था लेकिन साथी ने ऐन वक्त पर साथ चलने में असमर्थता व्यक्त कर दी लेकिन मैं कहा रुकने वाला था अकेला ही ‘ उग्रसेन की बावड़ी ‘ पहुँच गया. उत्साह में बावड़ी के मुख्य द्वार को न देख कुछ आगे बढ़ गया ! दिल्ली के सबसे महंगे स्थान पर अब भी धोबी घाटों को देखकर आश्चर्य हुआ !! खैर कपडे सुखाते धोबियों ने ही मुझे बावड़ी के प्रवेश द्वार के लिए वापस मुड़ने को कहा.
       तुगलक व लोधी कालीन स्थापत्य कला को उकेरती,60 मी. लम्बी,15 मी. चौड़ी और 185 फीट गहरी इस बावड़ी का निर्माण मूल रूप से महाभारत कालीन पौराणिक राजा अग्रसेन द्वारा जल आपूर्ति में आई अनियमितता के कारण जल संग्रहण हेतु किया गया था लेकिन कुछ इतिहास कार इसका निर्माण 14 वीं सदी का स्वीकारते हैं, मुझे तो लगता है पांडव कालीन पुराने किले की तरह ही बाद में इसका भी महाराजा अग्रसेन को पूर्वज मानने वाले अग्रवाल समाज द्वार जीर्णोद्धार कर नया स्वरुप प्रदान किया गया होगा।
      अलग-अलग कोणों से तस्वीर उकेरने में बावड़ी की 105 सीढियां 3-4 बार उत्साह में जल्दी-जल्दी चढने-उतरने से सांस फूलने लगा और पसीना आने लगा तो वहीँ स्थित काफी पुराने नीम की छाँव में सुस्ताने को लेट गया।
      स्थानीय निवासी ऋषि जी जो बचपन से अब तक इसी क्षेत्र में रह रहे हैं उनका साथ मिला तो उनके अनुभवों से रोचकता बढ़ गयी. ऋषि जी के साथ मैं जिस सीढ़ी पर खड़ा हूँ, ऋषि जी के ही अनुसार 30 साल पहले वहां तक पानी होता था , तैराकी के शौक़ीन दूर-दूर से यहाँ तैरना सीखने आते थे लेकिन भूमिगत जल स्तर गिरता गया और आज सबसे अंत में भी पानी के दर्शन नहीं हो पाते !! सबसे नीचे का तल, बहुत छोटे संकरे मार्ग से जल संचयन हेतु बनाये गए मुख्य पक्के कुंए जैसी आकृति के टैंक से जुड़ता है हालाँकि मार्ग दुरूह होने के कारण उस सूखे कुंए को कम ही लोग देखने जाते हैं लेकिन मैं लोभ संवरण न कर सका. ऋषि जी के अनुसार स्वयं उन्होंने व अन्य लोगों ने समय-समय पर यहाँ आस-पास अदृश्य आत्माओं की उपस्थिति का भी आभास किया गया है . 10.09.14 के नभाटा में भी पढ़ा जा सकता है. जब इस बावड़ी में जब पानी था तो कहा जाता था कि इसका काला पानी बलिदान की पुकार लगाता था. यमुना के करीब स्थित इस बावड़ी का सूख जाना भूमिगत जल स्तर के सम्बन्ध में खतरे की घंटी है इसका कारण आस-पास बहुमंजिला इमारतों का निर्माण व उनके 2-3 मंजिला भूतल हैं.. इस बावड़ी में वर्षा जल संचयन द्वारा इस बावड़ी की रौनक वापस लाये जाने का प्रस्ताव शायद पुरानी रौनकें फिर से लौटा दे ...
      बहरहाल, ऋषि जी के रूप में उत्साही युवा साथी मिला. विदा लेने से पूर्व अदृश्य शक्तियों के लिए मशहूर राजस्थान में भानगढ़ किले जाने का कार्यक्रम तय हुआ. धन्यवाद ऋषि जी ...  

                                                              विजय जयाड़ा 21.09.14
 

मुसाफिर



 मुसाफिर

हाड माँस का ये ढांचा
खंडहर हो जाना है
चलता चल मुसाफिर
   बहुत दूर जाना है ..

धूप छाँव भी मिलेगी
बारिश भी कम नहीं
    हर राह तुझे चलना__
बस चलते ही जाना है..


हमसफर साथ है तो
सफर कट ही जाएगा
मंजिल तक है पहुंचना
   तो अकेले भी जाना है ..


चलता चल मुसाफिर
बहुत दूर जाना है
  हर राह तुझे चलना__
  बस चलते ही जाना है ...


.. विजय जयाड़ा

उचककर देखती...





उचककर देखती
नि:शब्द दीवारें यहाँ !
गहरे जल का वो पुराना
नजारा अब नहीं !
परछाई रोज निकलती हैं
दीवारों से शाम-ओ-सहर
बतियाकर दीवारों से
दीवारों में ही खो जाती हैं यहाँ
छोड़ गया ___
जीवन अधूरे में इन्हें !
मगर बादल अब भी
ठहरते हैं यहाँ
लिपट जाते हैं ___
अतीत से बतियाते हुए
बरसते हैं___
रो पड़ते हैं यहाँ !!
साथ दिया किसने
दुनिया में सदा के लिए
खुद में __
मशगूल रहते हैं सब यहाँ !
मजबूरियाँ होती हैं
कारण जुदा होने का
मगर__
जान कर भी
मुसीबत में अकेला
छोड़ देते हैं कुछ लोग यहाँ !!

.... विजय जयाड़ा