मोहन चट्टी: महादेव सैण, ऋषिकेश
गुज़रते थे काफिले, रौनकें बस्ती थी कभी यहाँ
पुकारते, इमारत जर्जर हुई--कोई तो ठहरे यहाँ !!
.. विजय जयाड़ा
पिछली बार मैंने गरुड़ चट्टी (चट्टी = यात्रियों के नि:शुल्क
भोजन,ठहरने व चिकित्सा का स्थान) पर पोस्ट की थी, उसके बाद इन चट्टियों के
सम्बन्ध में जानने की जिज्ञासा और बढ़ गयी. “ चंडी घाट, हरिद्वार से नोढ
खाल, बन्दर भेल “ तक के अभियान में इन चट्टियों पर भी स्वयं को केन्द्रित
किया.
पुराने समय में चार धाम यात्रा पैदल व संकरे मार्गों से होती थी.
पूरे देश के श्रद्धालु मुनि की रेती (राम झूला), ऋषिकेश पर एकत्र होते थे,
प्रात: गंगा जी में स्नान उपरांत वहीँ गंगा किनारे बने शत्रुघ्न मंदिर में
यात्रा सफलता का आशीर्वाद प्राप्त कर यात्रा पर निकल पड़ते थे. हर दो कोस
(1कोस=8000 हाथ या दो मील या तीन किमी.) पर बाबा काली कमली पंचायत क्षेत्र
की तरफ से श्रद्धालुओं की व्यवस्था तथा असमर्थ श्रद्धालुओं व साधु सन्तों
की नि:शुल्क भोजन, ठहरने व चिकित्सा की व्यवस्था होती थी. गरुड़ चट्टी पहली
चट्टी थी ... इस बार व्यास घाट तक की चट्टियों के नाम याद कर लाया, भाषा
श्रवण अपभ्रंश त्रुटि संभव है, परिमार्जन आमंत्रित है.. शेष फिर कभी ..
....गरुड़ चट्टी --> फूल चट्टी --> मोहन चट्टी --> बिजनि चट्टी
--> नोढ़खाल चट्टी --> कुंड चट्टी --> बन्दर चट्टी --> महादेव
चट्टी --> सिमला चट्टी --> काड चट्टी --> व्यास घाट ( ऋषिकेश-श्रीनगर पैदल मार्ग )
ऋषिकेश से 15 किमी. आगे मोहन चट्टी (नाइ मोहन) पर
चट्टी जैसे अवशेष नहीं दिखे !! लेकिन मोहन चट्टी से आधा किमी पहले “ महादेव
सैण “ में आज भी काली कमली द्वारा प्रशासित लेकिन जर्जर हालत में धर्मशाला
दिखी. संभवत: यही चट्टी रही होगी. आज भी इसमें एक चौकीदार है जो तत्कालीन
निर्माण व 30 नाली जमीन (1 नाली= 360 वर्ग गज), (जो कि श्री राम गिरी जी ने
13.06.1927 को काली कमली पंचायत क्षेत्र को दान दी थी) की देखरेख करता है.
मैं जिस समय इस जर्जर धर्मशाला में पहुंचा तब चौकीदार न था लेकिन अन्दर
देखने की उत्सुकता में संगल खोल कर अन्दर प्रवेश कर लिया ..
आज भी
यात्रियों के लिए काली कमली ट्रस्ट राशन भेजता है लेकिन पैदल यात्री अभाव
में उस राशन की मूल्य राशि को चौकीदार के वेतन में समायोजित कर लिया जाता
है.
जैसा कि मैंने पहले भी सुझाव दिया था कि अपनी स्वस्थ
सांस्कृतिक विरासत को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने हेतु इन जर्जर हालत में पड़ी
धरोहरों को भी सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए.
इस तरह की धरोहरें केवल उत्तराखंड से ही सम्बन्ध नहीं रखती इन धरोहरों में पूरे भारत का गौरवशाली अतीत भी समाया हुआ है ..
युवाओं में साहसिक यात्राओं के प्रति बढ़ते लगाव को देखते हुए, इन पैदल
मार्गों का जीर्णोद्धार कर, प्रकृति के सानिध्य में चरणबद्ध पैदल यात्रा के
लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. इससे जहाँ यातायात से होने वाले प्रदूषण
पर नियंत्रण किया जा सकेगा वहीँ धार्मिक शहरों की तरफ यात्रियों से
सम्बंधित रोजगार प्राप्त करने हेतु रुख करते युवाओं को अपने ही क्षेत्र व
परिवेश में रोजगार भी मिल सकेगा.
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