Wednesday, 29 July 2015

2000 साल पुरानी सभ्यता व संस्कृति से पोषित करता एक लुप्त महानगर : वीरभद्र, ऋषिकेश

 2000 साल पुरानी सभ्यता व संस्कृति से पोषित करता 

एक  लुप्त महानगर : वीरभद्र क्षेत्र , ऋषिकेश


        ऋषिकेश और आस-पास का क्षेत्र केवल धार्मिक महत्व को ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक व पौराणिक महत्व को भी समेटे हुए है. ऋषिकेश में सीमा डेंटल कॉलेज के पास से बायीं तरफ मुड़कर लगभग तीन किमी. चलकर, रम्भा नदी के किनारे, लगभग 2000 सालों का इतिहास समेटे, इस उत्खनन स्थल, आम बाग़, वीरभद्र तक पहुंचा जा सकता है. मूल रूप से नागा सम्प्रदाय के निरंजनी अखाड़े की इस भूमि में खेती करने की प्रक्रिया के दौरान स्थल का पता लगा. इस के बाद पुरातत्वविद श्री. एन. सी. घोष की देख रेख में इस स्थल की 1973 से 1975 तक पुरातात्विक खुदाई की गयी थी.
      आठवीं सदी तक यहाँ महानगर हुआ करता था. कालांतर में अज्ञात कारणों से इस क्षेत्र की सभ्यता व संस्कृति लुप्त हो गयी !! खेतों  में प्राचीन अवशेष व छोटे-छोटे मंदिर इस स्थान पर मिलते थे लेकिन कुछ दशक पूर्व इस क्षेत्र में आश्रम निर्माण व टिहरी विस्थापितों के पुनर्वास की प्रक्रिया के दौरान इनका सही रूप में संरक्षण नही हुआ !! कितनी ही दुलर्भ पुरातात्विक  महत्व की वस्तुएं नष्ट हो गयी !! केवल ये छोटा सा हिस्सा ही पुरातत्व विभाग ने संरक्षित किया है.
         गुप्त काल में यह उत्खनित स्थान प्रसिद्ध शैव तीर्थ था. चीनी यात्री हृवेनसांग की यात्रा के दौरान भी यहाँ मंदिर और बौद्ध मठ थे. इस उत्खनन स्थल के ठीक सामने प्रसिद्ध वीरभद्र मंदिर है जिसे दक्ष प्रजापति के यज्ञ स्थल कनखल से जोड़ा जाता है. इस दृष्टि से ये क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है.
         इस उत्खनन स्थल से आठवीं सदी से तीसरी सदी की प्राचीन मुद्राएँ,मिटटी के बर्तन, मूर्तियाँ व अन्य अवशेष प्राप्त हुए हैं. जिन्हें पुरातत्व विभाग द्वारा देहरादून में संगृहीत किया गया है. पहली सदी से तीसरी सदी के दौरान, दीवारों में प्रयुक्त कच्ची ईंट, चौथी से पांचवीं सदी में पक्की ईंटों से निर्मित फर्श तथा शैव मंदिर, सातवीं व आठवीं सदी के पक्की ईंटों से निर्मित कुछ आवासीय संरचनाएं इस उत्खनित स्थल से प्राप्त हुई हैं. दो शिवलिंग आज भी यहाँ मौजूद हैं.
         कहा तो ये भी जाता है कि तैमूरलंग के आक्रमण के समय यहाँ विध्वंस किया गया लेकिन इसके ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं..
       आलेख दीर्घ होता जा रहा है लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि जिस क्षेत्र की पूरी सभ्यता व संस्कृति लुप्त हो गयी, उस क्षेत्र का अन्य ऐतिहासिक स्थलों की तरह सूक्ष्मता से उत्खनन व विश्लेषण कर के यह पता अवश्य लगाया जाना चाहिए कि आखिर अचानक ही एक समृद्ध सभ्यता व संस्कृति लुप्त क्यों और कैसे हो गयी !!
        वर्तमान स्थिति को देखकर बहुत दुःख हुआ 2000 साल का इतिहास समेटे यह उत्खनन स्थल खुले आकाश के नीचे आज भी प्रकृति के थपेड़े सह रहा है. समीप ही वीरभद्र मंदिर दर्शन हेतु असंख्य श्रद्धालु पहुँचते हैं  !! लेकिन स्थानीय निवासियों को भी इस उत्खनन स्थल के महत्व का ज्ञान नहीं !! न इस स्थल को देखने के लिए कोई उत्सुक पर्यटक यहाँ दिखा !! 
       पहले उत्खनन को सुरक्षित रखने के लिए टिन शेड था लेकिन प्रकृति की मार से शेड  गिर गया जिसे चार साल से अब तक पुनर्स्थापित नहीं किया जा सका है !! दिल्ली में देखता हूँ सरकारी शौचालयों व सडकों के किनारे पर कीमती ग्रेनाइट पत्थर के इस्तेमाल पर भरपूर धन व्यय किया जा रहा है !! लेकिन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक
स्थल उपेक्षा के शिकार हैं ..

        ऐतिहासिक धरोहरो की उपेक्षा एक अतुलनीय हानि है। इन अमूल्य प्राचीन सभ्यताओं की वास्तुकला के नमूने व संस्कृति को दर्शाने वाले ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है. 
.... 29.07.15

Monday, 20 July 2015

जिजीविषा


_\ जिजीविषा /__


पाषाण भेदकर
ज्यों वो__
धरती से उठा
जीत का उल्लास
उसके चेहरे पर दिखा,
ऋतुएँ अब आएँगी
अनुकूल और
प्रतिकूल भी
संघर्षों से जूझकर
स्नेह बरसाना__
फितरत में है
उसके जन्म से ही गुंथा..
.. विजय जयाड़ा 20.07.15


Saturday, 18 July 2015

सर सब्ज दयार

सर सब्ज दयार

 न हिन्दू है, न मुसलमान ही कोई यहाँ
  न सिख और बौद्ध बसर दीखती यहाँ,
ईसाइयों की दूर तक कोई खबर नहीं
  अमन औ खुशहाली की यहाँ बसर है।
नाम अलग हैं मगर कोई शोर नहीं है
   मजहबी बिसात, मोहरों का खेल नहीं है,
आपस में रहते हैं सभी मेल-जोल से
   छोटे और बड़े का भी यहाँ भेद नहीं है !!
धर्म जाति पंथ का बसेरा यहाँ नहीं
फिरका पसन्दों का भी बोलबाला नहीं,
दैरोहरम भी दूर तक दिखते नहीं यहाँ
      मगर,सर सब्ज दयार में__
     हर कोई दुनिया की खिदमत में लगा है यहाँ !!
... विजय जयाड़ा
 
 
 
 
 

Thursday, 16 July 2015

प्रकृति से संवाद

 

 प्रकृति से संवाद 

        यात्रा के दौरान प्राय: प्रतिकूल मौसम, थकान और उदिग्नता घर करने लगती है !! उस स्थिति में प्रकृति के सुरम्य मनोहारी दृश्य मानसिक शीतलता प्रदान करते हैं. मार्ग में मिलने वाले पालतू जानवरों से कमोवेश अनकहे व अनसमझे संवाद कौतुहल, उत्साह व ताजगी उत्पन्न करते हैं ..
      मार्ग में छाँव में विश्राम कर रहे इन पालतू जानवरों से संवाद करने का लोभ संवरण नहीं कर पाता !! सोचता हूँ इनसे इस जन्म का बेशक न सही लेकिन पूर्व जन्म का मेरा कोई न कोई सम्बन्ध अवश्य है. इस जन्म में इनको बकरी के रूप में जन्म मिला !! और मुझे मनुष्य के रूप में !!
     लेकिन आत्मा तो अजर अमर है !! केवल शरीर को बदल देती है !! तभी तो इन अनजान राहों पर इनसे मेरी मुलाकात हो जाती है !! और हम एक - दूसरे से अपरचित स्थान पर अलग-अलग रूपों में मिल कर, कुछ देर ही सही लेकिन आनंदित हो मुस्करा देते हैं !! ताजगी का अहसास पाते हैं


Wednesday, 15 July 2015

चंडी घाट से बन्दर भेल, उत्तराखंड

चंडी घाट से बन्दर भेल, उत्तराखंड  : अतीत टटोलने का एक सफ़र 

कारवाँ वक्त का गुजरता है तो 
यादें हो जाती हैं गर्दसार,
    मगर ---
खामोश राहें, बखूबी बयाँ करती हैं
गुज़रे थे कई काफिले इधर से बार-बार ...
...... विजय जयाड़ा

        चंडी घाट से बन्दर भेल अभियान के क्रम में ऋषिकेश से मोहन चट्टी होते हुए लगभग 22 किमी. आगे नोढ़ खाल है. वहां से आधा किलोमीटर पहले एक दुराहे पर हमने बायीं तरफ, नोढ़ खाल माला कुंटी मोटर मार्ग अपना लिया, मार्ग पक्का था लेकिन सड़क के आस-पास काफी दूर तक आबादी न होने पर भी इतना अच्छा मोटर मार्ग देख आश्चर्य भी हुआ. सड़क जिस दिशा में बढ़ रही थी उसको लेकर मुझे शंका होने लगी ! लगभग पांच किमी. चलने के बाद सड़क पर पैदल चलता एक स्थानीय परिवार मिला. उनसे मार्ग की जानकारी लेने पर मार्ग सम्बन्धी मेरी शंका उचित थी ! हमें नोढ़खाल – नांद – सिंगट्याली मार पर चलना चाहिए था ! पुन: वापस उसी मार लौटकर अब हम सही जगह नोढ़खाल पहुँच गए.कभी नोध खाल चट्टी हुआ करता था. अब हमें मुख्य सड़क मार्ग को छोड़कर बायीं तरफ के मार्ग पर चलना था.
      ये मार्ग कच्चा और कम चौड़ा था. इस तीखे ढलानदार मार्ग पर छोटे-छोटे पत्थर थे जिससे बाइक के फिसल जाने का भय था और हमें 6 किमी. इस मार्ग पर चलना था. मार्ग में बाइक के पंक्चर हो जाने पर भीषण गर्मी में खड़ी चढ़ाई  पर बाइक को लेकर वापस आने की कल्पना मात्र से ही, यहीं से वापस हो जाने का मन बनने लगा !! उहापोह की स्थिति में धूप में खड़ा 10 मिनट तक सोचता रहा.. लेकिन अंत में स्वयं पर जीत हासिल की !! कुछ क्षण आँख बंद कर भगवान को याद कर उसके ही भरोसे बाइक पर पर साथी देवेश के साथ चलने लगा !!
      पिछली कुछ पोस्ट्स में अपने चंडी घाट से बन्दर भेल अभियान का जिक्र कर चूका हूँ इस कारण आपके मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो रही होगी कि आखिर इस अभियान को मैंने क्यों तय किया .. तो साथियों इस पोस्ट पर इतना ही बताना चाहूँगा कि चंडी घाट से बन्दर भेल पुराने समय में चार धाम यात्रा करने के पैदल मार्ग का एक भाग था जो गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर से होकर गुजरता था ..
     
इसी मार्ग को अपनाकर तैमूर लंग, शाहजहाँ के सेनापति नवाज़त अली खान और दिल्ली के दूसरे मुस्लिम शासकों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था .. राजस्थान के राजपूत राजाओं ने भी इसी मार्ग द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण किया. .प्राचीन काल में नागा साधू सम्प्रदाय के 8000 साधुओं ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए, हरिद्वार कुम्भ स्नान के उपरान्त सशस्त्र बदरीनाथ जाने का निश्चय किया था, लेकिन टिहरी के तत्कालीन राजा ने उनको सशस्त्र आगे बढ़ने की स्वीकृति नहीं दी. फलस्वरूप कुछ नागा साधू बिना हथियार के आगे बढ़ पाए ..अन्य यात्रा अधूरी छोड़ वापस आ गए ..
इस कारण इस बार इस प्राचीन पैदल मार्ग को अपनी आँखों से देखने की इच्छा हुई .. अधिक जानकारी विस्तार से समय मिलने पर अगली पोस्ट्स में साझा करूँगा. 
15.07.15


Saturday, 11 July 2015

“ सावन-भादों “ मंडप ” : लाल किला


“ सावन-भादों “ मंडप ” : लाल किला

        मैं लाल किला बोल रहा हूँ, मैं लाल पत्थरों से बना एक ढांचा ही नहीं बल्कि दीर्घ कालखंड की घटनाओं का चश्मदीद गवाह भी हूँ  . मैंने  “लाल किला ट्रायल” के दौरान लाखों देशभक्तों को अपने चारों ओर “ लाल किले से आई आवाज़.. सहगल – ढिल्लों – शाहनवाज” के गगन भेदी नारों द्वारा भारत में अंग्रेजों के साम्राज्य पर आखिरी कील गाड़ते स्वरों को भी सुना... तो मुग़ल साम्राज्य के सूरज को उगते और डूबते हुए भी देखा.
     बादशाहों के वैभव को भी देखा तो आर्थिक रूप से विपन्न हो चुके बादशाह  बादशाह जफ़र को सैनिकों का वेतन तक न दे सकने की स्थिति में लाचार होकर अपनी पगड़ी के नग-नगीनों को नीलाम करने की बात कहते भी सुना.. मैंने बादशाहों को कत्लेआम के फरमान सुनाते हुए भी सुना तो वहीँ बादशाहों को अपनी जान के लिए रहम की याचना करते हुए भी सुना !!
     मैं लम्बे समय तक हादसों और दर्दनाक मंजरों को देख बार-बार सिहरता रहा..कुछ सोचता रहा . आज मेरे आँगन में, जिस मिट्टी का मैं बना हूँ उसी मिट्टी से बने लोग आकर जब मुझे निहारते हैं और मुझसे बातें करते हैं तो मैं बहुत खुश होता हूँ और अब   भारतीय लोकतंत्र को फलता-फूलता देख कर गौरवान्वित महसूस कर सदैव मुस्कराता रहता हूँ ..साथियों  कोई भी स्थान शुभ या अशुभ नहीं होता, मनुष्य ही उसे अपने कार्यों से शुभ या अशुभ बनाता है.. 

      अब मूल विषय पर आता हूँ.. जिस चबूतरे पर बैठा हूँ कभी इस चबूतरे पर सावन और भादों के स्वागत में फनकार, अपने साजों से स्वर झंकृत कर व मधुर कंठ से स्वरों की स्वरलहरियों का जादू बिखेरकर, सावन-भादों को मद-मस्त हो बरसने को मजबूर कर देते थे. मेरे पीछे दो बाग़ दिखाई दे रहे हैं इनका नाम हिन्दू कैलेण्डर के महीनों के नाम पर रखा गया था, “सावन” और “भादों”. इन्हीं नामों से दोनों बागों के प्रारंभ में मंडप भी बने हैं, जिनमे बैठकर बादशाह सावन-भादों का नजारा देखा करता था.      तस्वीर में सफ़ेद "सावन" मंडप दिखाई दे रहा है मंडप पर प्रकाश पात्र रखने के लिए आले बने हैं  जिनका प्रकाश रात में नीचे पानी में प्रतिबिंबित होकर दृश्य को शानदार बना देता था .दोनों मंडपों के मध्य में पानी के बीच में लाल पत्थर का बना जफ़र महल है.. जिसमे बैठकर बहादुरशाह जफ़र ने “जफरनामा “ लिखा था. इस बाग़ में मौसमी फलों के अलावा .. नीले, सफ़ेद और बैंगनी रंग के फूल बाग़ की सुन्दरता बढ़ाते थे..    15.06.15

आओ मिलकर एक तस्वीर ली जाए !!

 आओ मिलकर एक तस्वीर ली जाए !!


                    साथियों, चंडी घाट, हरिद्वार से ऐतिहासिक बंदर भेल, मोढखाल  तक के, वर्षा बाधित, व्यस्त यात्रा कार्यक्रम के दौरान, चीला, राजा जी राष्ट्रीय अभ्यारण्य से गुजरते समय मार्ग पर मिले गौधन के सानिध्य में बाइक से उतरकर कुछ सुखद व सुकून के पल बिताने का लोभ संवरण न कर सका  ....


उत्तरखंड का पारंपरिक स्वाद; “बाल मिठाई” : अल्मोड़ा


  उत्तरखंड का पारंपरिक स्वाद; “बाल मिठाई” : अल्मोड़ा 

            ईश्वर की लीला अपरम्पार है !! कभी हम खुशमिजाजी में घुमक्कड़ी को प्रेरित होते हैं तो शायद कभी ईश्वर प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर हमें स्वाम के सृजन को देखने के लिए मजबूर करता है !!
            तीन-चार साल पहले मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ कुमायूं क्षेत्र मैंने कभी नहीं देखा था लेकिन ईश्वर ने ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की, कि मैंने दिल्ली से हल्द्वानी होते हुए अल्मोड़ा. बेरीनाग , मुनस्यारी , थल, पिथौरागढ़, ग्वालदम, बागेश्वर सीमान्त गाँव होकरा आदि स्थानों का चप्पा-चप्पा छान मारा, बरसात के मौसम में भीषण आवाज करते उफनते बरसाती गधेरे (नाले) !! खिसकते समूचे पहाड़, भयावह बादलों की गर्जन !! भू-स्खलन के कारण रोड का कहीं अता-पता नहीं !! इस भयानक माहौल के बीच मुझे बीसों किमी. पैदल चलने को मजबूर होना !! ये सब तब मेरे लिए दिवा-काल में भी किसी दु:स्वप्न से कम न था !
          अस्थिर व सशंकित मन:स्थिति में मैंने 12 दिन गुजारे. लेकिन कुमायूं के लोगों के आत्मीयता भरे सहयोगपूर्ण व्यवहार और प्राकृतिक सौंदर्य ने मेरे दिलो दिमाग पर जो अमिट छाप छोड़ी वो आज भी सुखद यादों के रूप में जीवंत है, सच कहूँ तो अपनी गौरवमयी संस्कृति के साक्षात दर्शन करने हैं तो आपको सलाह दूंगा कि कुछ दिन पिथौरागढ़ में रूककर वहां के अप्रतिम सौंदर्य का आनंद लीजिये और वहां के लोगों के सरल व्यवहार का मूल्यांकन अवश्य कीजियेगा..आप निश्चित ही सुखद अंतर महसूस कीजियेगा..
         अब विषय पर आता हूँ ..अल्मोड़ा बस अड्डे से गुजरते हुए सड़क के किनारे दुकानों में रखी “बाल मिठाई”, अपने विशिष्ट स्वाद के कारण सबके आकर्षण का केंद्र होती है प्रसिद्ध कुमायूँनी उपन्यासकार, साहित्यकार व जनमानस में "धर्मयुग " मासिक पत्रिका में प्रकाशित अपनी कहानियों से लोकप्रिय पदम् श्री गौरा पन्त "शिवानी" अपनी यादगारों में "अल्मोड़ा बाज़ार" की बाल मिठाई" का सन्दर्भ देना नही भूलतीं थीं ... शिवानी जी का पैतृक निवास होने के कारण गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर, अल्मोड़ा कई बार आये थे.
          कहा जाता है जोगा लाल शाह हलवाई ने सबसे पहले इस मिठाई को तैयार किया.इसे तैयार करने के लिए खोये और चीनी को गहरे भूरे होने तक पकाया जाता है.ठंडा होने के बाद काटकर..चीनी के छोटे-छोटे सफ़ेद दानों से सजाया जाता है....पहले पोस्ता दाना जिसे खस-खस भी कहते हैं... को चीनी के राब में मिलाकर लपेटा जाता था.पर मंहगाई के कारण अब इसका उपयोग नही किया जाता.... अल्मोड़ा की बाल मिठाई उसी प्रकार लोकप्रिय है जैसे पुरानी टिहरी की यादों में बसी “सिंगोरी “ और लैंसडाउन की “चॉकलेट” मिठाई...
       आज भी कोई परिचित अल्मोड़ा जाता है तो हर कोई उनसे " बाल मिठाई "लाने की हर कोई अपेक्षा रखता है. 17.06.15



खंडहर और मीनार

     खंडहर और मीनार  


 खंडहर और_
मीनारों की शक्लों में,
बयां तारीख करती है,
ना बादशाह ही सलामत
  ना तख़्त-ओ-ताज ही बाकी,
इंसानियत से ज्यादा__
    गुमाँ था__
दौलत और तलवारों पर,
   छूट गई दुनिया..
हुए वो भी यहाँ मिटटी,
    रह गए केवल__
   गढ़े किस्से__कुछ खंडहर,
     लटकती मीनार__ही बाकी !!

.. विजय जयाड़ा

लक्ष्मण झूला, ॠषिकेश


निरंतर बढ़ता जल स्तर ; लक्ष्मण झूला, ॠषिकेश
 
                 साथियों, कल यहाँ ॠषिकेश में भी दिन भर वर्षा होती रही, आज धूप निखर आयी है लेकिन केदारनाथ क्षेत्र मे वर्षा के कारण, कल रात से ही लक्ष्मण झूला पर गंगा जी का जल स्तर उठने लगा है।
युवाओं का मुख्य आकर्षण " रिवर राफ्टिंग ", को पूर्व निर्धारित तिथि 30 जून की बजाय, केदारनाथ क्षेत्र में वर्षा के कारण कल 25 जून को ही बंद कर दिया गया है । नदी में जल राशि की अधिकता के  साथ- साथ प्रवाह व स्वर में तेजी है। वर्षा के कारण यातायात भी बाधित हुआ है।
          दोनों तस्वीरों में तटों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा बढ़े जल स्तर का, स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है। 26.06.15


लक्ष्य

_____\ लक्ष्य /____
 
हो तम घनघोर कितना
जुगनू घबराते नहीं !

टिमटिमाहट ही सही,
       चमकना____
बिसराते वे नहीं !
     लक्ष्य बेशक__
दूर और दुर्गम,
करीब आ ही जायेगा,
कदम बढ़ाकर
   अगर राही__
         पथ में थम जाता नहीं____
 
.... विजय जयाड़ा

लक्ष्मण झूला < मोहन चट्टी < मोढ खाल, प्राचीन पैदल यात्री बद्रीनाथ मार्ग।

टिहरी महाराजा का पेय जल स्रोत : तल्ला किन्वाणि, नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड




                           टिहरी महाराजा का पेय जल स्रोत :
          तल्ला किन्वाणि, नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड


          साथियों, 29 जून की रात को दिल्ली वापसी तय थी लेकिन कुछ विशेष कारणों से स्थगित करनी पड़ी. इस तरह प्रवास के अंतिम दिन, घुमक्कड़ी का कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम न होने के कारण पूरा दिन घर पर ही मेहमानदारी में निठल्ला और बेचैन रहा. आखिर शाम को ऋषिकेश से 14 किमी आगे चम्बा मार्ग पर ज्योतिष के जनक ऋषि पुरश्र की, ग्रहों और तारों की गति पर प्रयोग भूमि, नरेन्द्र नगर (ओडाथली) की तरफ बढ़ चला. 

         हालांकि टिहरी रियासत 1949 में भारतीय गणराज्य में विलय के पश्चात एक जिला भर रह गया लेकिन उसकी तत्कालीन राजधानी नरेन्द्र नगर ,जिसे टिहरी शहर से 1903 में महाराजा नरेन्द्र शाह द्वारा राजधानी बनाया गया था, के राज महल का आज भी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व है. आज भी प्रति वर्ष बसंत पंचमी के दिन स्वयं रानी, बदरीनाथ मंदिर की जोत के लिए तिलों से तेल निकालने यहाँ आती है और क्षेत्र की अन्य महिलाओं के साथ मिलकर उस दिन मंदिर की जोत के लिए वर्ष भर के लिए तेल निकाला जाता है. तेल की शुद्धता व पवित्रता बनाये रहने के लिए रानी सहित सभी महिलाएं मुंह पर कपडा लपेट कर रखती हैं और आपस में बात नहीं करती हैं . बाद में एकत्रित तेल, शोभायात्रा के रूप में  पात्रों में बदरीनाथ के लिए रवाना किया जाता है.   
         ये तस्वीर स्वयं में इतिहास को समेटे तल्ला किन्वाणि गाँव के जल स्रोत की है.महल से लगभग एक किमी. पहले , पहाड़ों की नसों के माध्यम से बहकर यहाँ पर स्रोत के रूप में प्रस्फुटित  इस स्रोत के जल का उपयोग महाराजा द्वारा पेय जल के रूप में किया जाता था. पास में ही महाराजा के तत्कालीन कर्मचारियों के अब खंडहर हो गए आवास भी हैं, जिनमें अब मजदूर रह रहे हैं। कभी जल प्रवाह, खनिज लवण तथा जड़ी- फूट के रस से भरपूर इस जल स्रोत के ठीक ऊपर सड़क निर्माण होने के कारण इसकी जल धारा सिकुड़ती चली जा रही है. यहीं नहीं पूरे उत्तराखंड में पेड़ों के अंधाधुंध कटान, सड़क निर्माण व सम्बंधित विभाग द्व्रारा जल स्रोतों के अप्राकृतिक संरक्षण के कारण सदियों से ग्रामवासियों व पशुधन की जल तृष्णा शांत करते अधिकतर प्राकृतिक पेय जल जल स्रोत सूख चुके हैं या सूखने के कगार पर हैं !!
                       जल ही जीवन है, अतः इस दिशा में ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है !!
समय बलवान है ! कभी राजसी आकर्षण का केंद्र रहे इस स्रोत के नीचे आज एक फूटे कनस्तर में पानी इकठ्ठा होता दिखा !! ये दृश्य बदले हालात में इस जल स्रोत की दारुण व्यथा बयान कर रहा था !!
ग्रीष्मावकाश यात्रा के इस अंतिम पड़ाव पर रात होने लगी और मैं वापस ऋषिकेश लौट चला 

                                         मैन् त धीत भरि तैं पाणि पियेळि अब आप भी प्या !     01.07.15

मेरी यात्रा डायरी के कुछ जाने-अंजाने सम्मानित सूत्रधार



         मेरी यात्रा डायरी के कुछ जाने-अंजाने सम्मानित सूत्रधार


      साथियों, यात्रा डायरी सम्बंधित पोस्ट पढ़कर कुछ जिज्ञासु साथी अक्सर इन   जानकारियों का सूत्रधार व सम्बन्धित स्थान तक पहुंचने की प्रक्रिया को जानने की चाह रखते हैं. सोचा, आज इसी सम्बन्ध में पोस्ट करूँ !
    घुमक्कड़ी में जिज्ञासु, खोजी प्रवृत्ति, सहिष्णुता, व्यवहार कुशलता के साथ-साथ दृढ इच्छा शक्ति का होना भी आवश्यक है क्योंकि आवश्यक नहीं कि जहाँ की यात्रा पर आप जाना चाह रहे हैं वहां आपको पूर्व कल्पित सुविधाजनक वातावरण मिल सके !
यदि अल्प अवधि में जिज्ञासा पूर्ण यात्रा में कवर करना है तो यात्रा से पूर्व मस्तिष्क में कच्ची रूपरेखा बना लेना आवश्यक है.
    अब प्रश्न उठता है की कच्ची रूपरेखा कैसे तैयार की जाय ! पत्र-पत्रिकाओं के आलेख, फेसबुक पोस्ट्स व गूगल सर्च आपको कार्यक्रम की रूपरेख बनाने में सहायता कर सकते हैं.
    मेरी कई पोस्ट्स में प्रस्तुत तस्वीरें व जानकारी आपको गूगल सर्च करने पर भी नहीं मिल पाएंगी !! इस पर आप कहेंगे कि इस तरह के स्थानों की जानकारी कैसे मिल पाएगी ! तो साथियों, जहाँ आप जा रहे हैं वहां के स्थानीय लोगों से संवाद आवश्यक है. मिलने वाले लोग आपसे सहजता से व्यवहार करें इसके लिए हमें अपने पहनावे, व्यवहार में शालीनता व शिष्यत्व भाव लाना आवश्यक है. जरूरी नहीं कि पढ़े-लिखे लोगों से ही संवाद सार्थक हो सकता है .सम्बंधित क्षेत्र में मिलने वाले, निरक्षर, वृद्ध , चालक, ग्वाले, पंडित.छोटे दुकानदार, बच्चे, सन्यासी, सेवानिवृत्त कर्मी, अध्यापक, चौकीदार, मजदूर आदि भी आपको महत्वपूर्ण जानकारी दे सकते हैं..
    जहाँ भी जाएँ वहां वृद्धों से संवाद करने की आदत बना लेना हमारी उत्कंठा को शांत करता है. सुनी-सुनाई बातें लक्ष्य तक पहुँचने का साधन अवश्य बन सकती हैं लेकिन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी को तथ्यपूर्ण विश्लेषण हेतु क्रॉस चैक करना आवश्यक है .. जिससे यात्रा उपरान्त जुटाई गयी जानकारी भविष्य में सार्थक मानक रूप में प्रयोग की जा सके ..
    यात्रा में हर क्षण का उपयोग आवश्यक है. ऐसी जगह पर चाय-पान, भोजन व ठहरने की व्यवस्था की जानी चाहिए जहाँ पर बैठने या रहने से हमें वहां उपस्थित अधिक से अधिक लोगों से संवाद हो सके. बेशक इसके लिए हमें अपनी रहन-सहन की आदतों से समझौता ही क्यों न करना पड़े.
    यात्रा में स्वास्थ्य का साथ देना आवश्यक है इसलिए मौसमानुकूल वस्त्रादि साथ हों, स्वादु साथियों को भोजन सम्बन्धी लोभ संवरण करने की परम आवश्यकता है, यात्रा में हल्का भोजन लिया जाना चाहिए. स्थानीय शिष्टाचार व परंपरा अनुरूप व्यवहार हर तरह के लोगों में स्वीकार्यता के लिए अनिवार्य है .. दूसरे की बात को सुनना और सुनना सबसे महत्वपूर्ण है..
    साथियों, जब मैंने इस पोस्ट के साथ ग्राफिक तैयार कर ली तो सम्मानित मित्र श्री Kamala Kant Mishra जी ने मेरे सूत्रधारों में पत्नी की फोटो के नदारद होने पर ऐतराज जताया !
    ऐतराज जायज था !! वास्तव में मेरी धर्म पत्नी का मेरी यात्राओं और लेखन में पारिवारिक सहयोग के साथ-साथ विषय से सम्बंधित महत्वपूर्ण तकनीकी योगदान भी होता है. खैर, पुन: तस्वीर बनाकर गलती दूर की .. अत: यात्रा में हर संभावित स्रोत का अधिकतम उपयोग किया जाना आवश्यक है. शेष पहलुओं पर फिर कभी .. 02.07.15



“ रानी का तालाब “, नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल .. भाग - 1


       “ रानी का तालाब “, नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल .. भाग - 1


         बाइक खड़ी कर मैं और मेरा भतीजा धर्म सिंह, टिहरी महाराजा की रानी के “ रानी का तालाब “ की खोज में घने जंगल में निकल पड़े. जमीन में वर्षा के कारण ऊंची घास व झाड़ियाँ उग आई थी .. घास के कारण जमीन बिलकुल भी नहीं दिख रही थी ऐसे में ऊंची-ऊंची घास पर चलना..    जोखिम को निमंत्रण देने से कम न था !! हम किसी भी रेंगने वाले जंतु का कोपभाजक बन सकते थे !
    ढलती शाम और घने बादलों के बीच अँधेरा गहराने लगा था ! हम दोनों के मन में निर्जन घने जंगल में आक्रामक जंगली जानवरों द्वारा घात लगाकर हमला करने का अज्ञात भय था लेकिन इस भय को एक दूसरे से व्यक्त नहीं कर रहे थे !
     काफी देर खोजने के बाद भी जब “ रानी का तालाब “  न मिला तो  निराशा स्वाभाविक थी .. इतने में ये सेमल का पेड़ दिखा ऐसा महसूस हुआ मानों वह विचलित मन को शांत करने हेतु अपने सानिध्य में आने का निमंत्रण दे रहा हो !! उद्दिग्न मन को जैसे थाह मिली !!
     मन हुआ कि पहले तस्वीर क्लिक कर निराश मन: स्थिति को बदल कर  उत्साह संचरित किया जाय !! उसके बाद नए जोश के साथ " रानी का तालाब ' खोजा जाय !! अंत में " रानी का तालाब ' मिल ही गया .. ... 03.07.15



“ रानी का तालाब “, नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल .. भाग -2



        “ रानी का तालाब “, नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल .. भाग -2

      साथियों, ऋषिकेश से चंबा मार्ग पर 10 किमी. दूर, प्लास्डा क्षेत्र व पॉलीटेक्निक परिसर के पीछे जंगल में काफी खोजने के बाद एक वृक्ष रहित ऊंची बरसाती घास वाला समतल भूखंड दिखा, मन में विचार आया कि शायद कभी यही तालाब रहा होगा जो कि समय के साथ मिटटी और पत्तियों से भर गया होगा !! लेकिन तभी सोचा कहीं तो तालाब की किनारों के अवशेष दिखने चाहिए ! पूरे भूखंड को खोजी नजरों से देखा लेकिन कहीं तालाब के किनारों के अवशेष न मिले !!
    तभी मेरे साथी धर्म सिंह, जो की खोजने के क्रम में मुझसे कुछ दूर चला गया था, ने आवाज दी, “ मामा जी ! मुझे नीचे कुछ बजरी सी दिख रही है “ ये सोचकर कि तालाब तो अब मिलेगा नहीं !! चलो उधर से ही घर को चल देंगे, मैं कौतुहल में उस तरफ बढ़ा. वह बदहाल हालत में 10-12 फुट चौड़ी सीमेंट की सड़क थी. हम उस पर 100 मी. ही चले होंगे कि तालाब पर पहुंचकर सड़क समाप्त हो गयी. अब हम अनजाने में ही लक्ष्य “ रानी का तालाब “ तक पहुँच चुके थे.
     हमारे सामने चारों तरफ साल, कुसुम, हल्दू, खैर आदि वृक्षों व कुछ ऊँची पहाड़ियों से सुरक्षित, गहराई में, सुर्खी (चूना+पत्थर मिश्रण) से पटा, करीब 500 वर्ग मी. क्षेत्रफल व वर्तमान में 8 फीट गहरा, “रानी का तालाब“ था, मूल रूप में इसकी गहराई 12-15 फीट थी.
     महाराजा नरेन्द्र शाह के काल (1913-1946) में यहाँ रानी नौका विहार के लिए आती थी. उस समय तालाब में बड़ी-बड़ी मछलियाँ भी हुआ करती थी. काफी खोजने के बाद भी तालाब से जल निकासी व्यवस्था नहीं मिल सकी! लगता है तालाब का फर्श कच्चा रहा होगा, और जल के स्थायी संचयन के कारण ही मत्स्य पालन संभव हो पाता होगा. खैर ! इस सम्बन्ध में मानसिक द्वन्द बना रहा !! पहाड़ियों से नीचे की तरफ बहने वाले जल को संकरी नहर के द्वारा तालाब में लाया गया है. नहर से तालाब में जल गिरने का मुहाना, दीवारों के सहारे तालाब के जल स्तर से लगभग 30 फीट ऊपर है. ज्ञात हुआ कि पहले मिला समतल भूखंड, सामरिक दृष्टि से सैनिकों की छावनी के रूप में प्रयोग किया जाता था .
     दरअसल महाराजा, प्लास्डा क्षेत्र को बागवानों के रूप में विकसित करना चाहते थे.. आज भी उस समय लगाये गए आम के बड़े-बड़े वृक्ष हैं. जिस नहर का निर्माण किया गया था ..सड़क निर्माण के कारण अब दिखाई नहीं देती. नहर निर्माण के समय, ऋषिकेश, तपोवन ग्राम वासियों द्वारा नहर के जल से अपने उन्नत बासमती के खेतों के कटाव के भय से नहर निर्माण का विरोध किया गया था,
     1949 में टिहरी रियासत का भारतीय संघ में विलय के बाद, महाराजा के प्लास्डा क्षेत्र को बागवानों के रूप में विकसित करने का सपना अधूरा रह गया ..
साथियों, राज परिवार के आकर्षण और प्रजा के कौतुहल का केंद्र रहा ये रमणीक स्थल, आज जलरहित है और जंगली घास व कंटीली झाड़ियों से पटा बदहाल अवस्था में अपने जीर्णोद्धार की बाट जोह रहा है ! .
     जिस सीमेंट के जर्जर मार्ग से हम तालाब तक पहुंचे थे वो राजशाही काल का नहीं लगता.. वर्तमान स्थिति देख कर लगता है कि पर्यटन विकास के लिए इस तालाब को चिह्नित किया गया होगा .. और कार्य प्रारंभ करने के बाद योजना अधूरी छोड़ दी गयी !
     बहुत ही सुरम्य भौगौलिक स्थिति में होने के कारण उत्तराखंड सरकार को तालाब को स्मारक के रूप में संरक्षित रखने के साथ-साथ बागवानी क्षेत्र व पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करना चाहिए, इससे क्षेत्र में स्थानीय रोजगार भी उपलब्ध हो सकेगा .. 04.07.15


तलाश

तलाश

इंसान मंगल तल पर
जिंदगी तलाशता है !
मगर धरती के तल पर

इंसानियत खोजता हूँ__
भटकता हूँ तलाश में
हर खंडहर से पूछता हूँ
दरिया और तटों से
वो तहजीब पूछता हूँ__
बदली नहीं ये धरती
न आसमां ही बदला !
बदल गया क्यों इंसान !
वजह तलाशता हूँ__
गुजरता हूँ उधर से
जिधर से कभी चला था
गुम गया बहुत पहले
वो सामान खोजता हूँ__
तलाश न जाने कब तक
ठौर है न ठिकाना !
किनारों की तलाश में अक्सर
         उतराता और डूबता हूँ____

.. विजय जयाड़ा 05.0715

Friday, 10 July 2015

“बंगी जम्पिंग" (Bungee Jumping), मोहन चट्टी ऋषिकेश

 

 “बंगी जम्पिंग" (Bungee Jumping), मोहन चट्टी ऋषिकेश




       साथियों, उत्तराखंड में,गंगा नदी में रीवर राफ्टिंग के बाद, साहसिक खेलों की ओर लगातार उन्मुख युवा मनोवृत्ति का व्यावसायिक रूप में अब “ बंगी जम्पिंग “ ( Bungee Jumping ) के माध्यम से उपयोग होने लगा है. 
        ॠषिकेश से 15 किमी. दूर मोहन चट्टी में भारत में इस 
तरह के खेल को विकसित करने का ये प्रथम प्रयास है, न्यूजीलैंड के David Allardice द्वारा डिजाइन किये गए व न्यूजीलैंड के ही जम्प मास्टर्स की देख रेख में, चट्टान पर स्थिर क्रेन सदृश लौह सरंचना से, प्रति व्यक्ति 2500 रुपये से 3500 रुपये की दर पर स्थिर प्लेटफॉर्म से व्यक्ति को सीट पर झूलने वाली रस्सियों से बांधकर लगभग 83 मी. ऊँचाई से पहाड़ियों के सौंदर्य के मध्य, हियुंल नदी के ऊपर कुदाकर पांच मिनट तक झुलाया जाता है. वीडियो क्लिप बनाने हेतु अलग से 1500 रुपये शुल्क निर्धारित है।
        इस साहसिक खेल में ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड के सुरक्षा मानकों को अपनाया गया है.
        इस साहसिक खेल हेतु ऑनलाइन बुकिंग सुविधा भी है और प्रबंधकों द्वारा ऋषिकेश से इस स्थान तक प्रतिव्यक्ति 200 रुपये की दर से कैब सेवा की भी व्यवस्था की गयी है.. 
        साथियों, विगत की भाँति एक बार पुनः बताना चाहूँगा कि मैं तस्वीर कौतुहल जगाने व स्थान साक्षी बनने हेतु विवरण के साथ पोस्ट करता हूँ. तस्वीर के साथ प्रस्तुत विवरण अधिक महत्वपूर्ण है. 
        सोचता हूँ, राज्य की सांस्कृतिक व सामजिक व्यवस्था के अनुरूप मानदंड अपनाकर, राज्य में पर्यटन से राजस्व उन्नयन हेतु पर्यावरण मित्र इस साहसिक व सुरक्षित खेल का प्रसार, उत्तराखंड के अन्य रमणीक क्षेत्रों तक भी किया जाना चाहिए. साथ ही उत्तराखंड सरकार को इस साहसी खेल में प्रयुक्त होने वाली तकनीक व प्रशिक्षण को न्यूजीलैंड से आयात कर स्थानीय निवासियों को उपलब्ध करा कर प्रशिक्षित भी करना चाहिए। इस प्रकार, रीवर राफ्टिंग की तरह इस खेल से भी स्थानीय निवासियों को व्यवसाय व रोजगार मुहैया हो सकता है। 07.07.15


"जलेबी वाला", चांदनी चौक. दिल्ली


इतिहास के झरोखे से दिल्ली : दिल्ली का ऐतिहासिक जायका ;
"जलेबी वाला", चांदनी चौक
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                साथियों, वर्तमान में दिल्ली का काफी विस्तार हो चुका है लेकिन आज भी पुराने लोग, चांदनी चौक को ही दिल्ली संबोधित करते हैं मुग़ल काल में आज का चांदनी चौक क्षेत्र ही शाहजहानाबाद के रूप में दिल्ली कहलाता था. एक बार यहाँ मलेरिया का प्रकोप, महामारी की तरह फैला तो देशी हकीम और वेदों ने आम लोगों को मलेरिया से बचने के लिए भोजन में तीखे स्वाद वाले मसालों का प्रयोग करने की सलाह दी .. सोचता हूँ तब से ही चांदनी चौक में तीखे स्वाद वाले लज्जतदार पकवानों का दौर और मसालों का कारोबार भी परवान चढ़ा होगा !!
         अब विषय पर चर्चा हो जाय ! हालाँकि दिल्ली के आधुनिक स्वरुप में खाने-पीने के क्षेत्र में कई नयी दुकानें अपना स्थान बना चुकी हैं लेकिन यदि इतिहास की चाशनी में भीगी, गैस की तेज धु–धु करती लौ से हटकर कोयले की नर्म आग में स्वपालित भैंसों के देशी घी से निर्मित स्वादिष्ट जलेबियों का आनंद लेना है तो शीशगंज गुरुद्वारा के पास, दरीबा (आभूषण बाजार) के नुक्कड़ की दुकान “ जलेबी वाला “ पर स्वादिष्ट समोसे व नर्म जलेबियों का स्वाद लेना न बिसर जाइएगा..
        एक सौ दस साल से आम लोगों के साथ-साथ लगभग सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों तथा भारत और पकिस्तान के क्रिकेट खिलाडियों व राजकपूर के अलावा कई फ़िल्मी सितारे, इस दुकान की स्वादिष्ट नर्म जलेबियों के स्वाद का आनंद उठा चुके हैं. दुकान की जलेबियों के पुराने शौक़ीन बताते हैं कि जो लाजवाब स्वाद पहले था ..आज भी वही है ..
        1905 में श्री नेमी चंद जैन ने जब यहाँ पर दूकान चलाना शुरू किया तो कई तरह के खान-पान बनाकर स्वयं को आजमाया लेकिन अंत में समोसे और जलेबी तक ही स्वयं को सीमित कर दिया. आज भी यहाँ पर समोसों का स्वाद लिया जा सकता है।
       जलेबी बनाने का ख़ास नुस्खा केवल परिवार के सदस्यों तक ही सीमित है. जलेबियों के लिए सामान्य शक्कर की जगह देशी खांड का इस्तेमाल किया जाता है. एक फिरनी (125 ग्राम) का दाम 50 रुपये अर्थात 400 रुपये किलो के भाव बेचने वाले “जलेबी वाला”, कई यूरोपीय देशों में भी अपनी नर्म जलेबियों के स्वादिष्ट स्वाद से वहां के बासिंदों की जुबान पर अपना स्थान बना चुका है ..9.06.15


मोहन चट्टी: महादेव सैण, ऋषिकेश


मोहन चट्टी: महादेव सैण, ऋषिकेश

गुज़रते थे काफिले, रौनकें बस्ती थी कभी यहाँ
    पुकारते, इमारत जर्जर हुई--कोई तो ठहरे यहाँ !!
.. विजय जयाड़ा

      पिछली बार मैंने गरुड़ चट्टी (चट्टी = यात्रियों के नि:शुल्क भोजन,ठहरने व चिकित्सा का स्थान) पर पोस्ट की थी, उसके बाद इन चट्टियों के सम्बन्ध में जानने की जिज्ञासा और बढ़ गयी. “ चंडी घाट, हरिद्वार से नोढ खाल, बन्दर भेल “ तक के अभियान में इन चट्टियों पर भी स्वयं को केन्द्रित किया.
    पुराने समय में चार धाम यात्रा पैदल व संकरे मार्गों से होती थी. पूरे देश के श्रद्धालु मुनि की रेती (राम झूला), ऋषिकेश पर एकत्र होते थे, प्रात: गंगा जी में स्नान उपरांत वहीँ गंगा किनारे बने शत्रुघ्न मंदिर में यात्रा सफलता का आशीर्वाद प्राप्त कर यात्रा पर निकल पड़ते थे. हर दो कोस (1कोस=8000 हाथ या दो मील या तीन किमी.) पर बाबा काली कमली पंचायत क्षेत्र की तरफ से श्रद्धालुओं की व्यवस्था तथा असमर्थ श्रद्धालुओं व साधु सन्तों की नि:शुल्क भोजन, ठहरने व चिकित्सा की व्यवस्था होती थी. गरुड़ चट्टी पहली चट्टी थी ... इस बार व्यास घाट तक की चट्टियों के नाम याद कर लाया, भाषा श्रवण अपभ्रंश त्रुटि संभव है, परिमार्जन आमंत्रित है.. शेष फिर कभी ..

        ....गरुड़ चट्टी --> फूल चट्टी --> मोहन चट्टी --> बिजनि चट्टी --> नोढ़खाल चट्टी --> कुंड चट्टी --> बन्दर चट्टी --> महादेव चट्टी --> सिमला चट्टी --> काड चट्टी --> व्यास घाट ( ऋषिकेश-श्रीनगर पैदल मार्ग )

     ऋषिकेश से 15 किमी. आगे मोहन चट्टी (नाइ मोहन) पर चट्टी जैसे अवशेष नहीं दिखे !! लेकिन मोहन चट्टी से आधा किमी पहले “ महादेव सैण “ में आज भी काली कमली द्वारा प्रशासित लेकिन जर्जर हालत में धर्मशाला दिखी. संभवत: यही चट्टी रही होगी. आज भी इसमें एक चौकीदार है जो तत्कालीन निर्माण व 30 नाली जमीन (1 नाली= 360 वर्ग गज), (जो कि श्री राम गिरी जी ने 13.06.1927 को काली कमली पंचायत क्षेत्र को दान दी थी) की देखरेख करता है. मैं जिस समय इस जर्जर धर्मशाला में पहुंचा तब चौकीदार न था लेकिन अन्दर देखने की उत्सुकता में संगल खोल कर अन्दर प्रवेश कर लिया ..
      आज भी यात्रियों के लिए काली कमली ट्रस्ट राशन भेजता है लेकिन पैदल यात्री अभाव में उस राशन की मूल्य राशि को चौकीदार के वेतन में समायोजित कर लिया जाता है.
      जैसा कि मैंने पहले भी सुझाव दिया था कि अपनी स्वस्थ सांस्कृतिक विरासत को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने हेतु इन जर्जर हालत में पड़ी धरोहरों को भी सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए.
       इस तरह की धरोहरें केवल उत्तराखंड से ही सम्बन्ध नहीं रखती इन धरोहरों में पूरे भारत का गौरवशाली अतीत भी समाया हुआ है ..
       युवाओं में साहसिक यात्राओं के प्रति बढ़ते लगाव को देखते हुए, इन पैदल मार्गों का जीर्णोद्धार कर, प्रकृति के सानिध्य में चरणबद्ध पैदल यात्रा के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. इससे जहाँ यातायात से होने वाले प्रदूषण पर नियंत्रण किया जा सकेगा वहीँ धार्मिक शहरों की तरफ यात्रियों से सम्बंधित रोजगार प्राप्त करने हेतु रुख करते युवाओं को अपने ही क्षेत्र व परिवेश में रोजगार भी मिल सकेगा.

                 


साहिल पर मुन्तजिर हैं


   साहिल पर मुन्तजिर हैं
   ख्वाइश-ए-दीदार हम,
  कभी तो लहर आएगी
     तपते हैं धूप में हम__
  अरमान कम नहीं हैं
   जुनूं भी है इधर बहुत,
मंजिल पास आएगी
        हसरत में फिरते हैं हम___



--- विजय जयाड़ा 09.07.15