जयपुर की सरहदों का तन्हा निगहबां.. नाहर गढ़ दुर्ग , जयपुर ....
( Nahar Garh Fort, JAIPUR )
जयपुर , आमेर के किले के चप्पे-चप्पे से रूबरू हो जाने के बाद इस किले की सुरक्षा हेतु बनाये गए जयगढ़ दुर्ग पहुंचा. जयगढ़ दुर्ग के बियावान में अतीत के वैभव और सांस्कृतिक झलक के दीदार कर ही रहा था कि तभी अरावली पर्वत में दूर से ही तन्हाई में झीनी चादर ओढ़े बुजुर्ग नाहरगढ़ दुर्ग अपनी लम्बी-लम्बी बाहें पसारे मुझे अपने पास बुलाता महसूस हुआ.
" आमेर के किले के बाद आमेर से कुछ ऊपर बने जयगढ़ दुर्ग से वाकिफ होते हुए पहाड़ी पर्यटन स्थल का आभास दिलाती कनक घाटी के सर्पिलाकार संकरे ऊंचे नीचे रास्ते से गुजरता हुआ तन्हाई में डूबे नाहरगढ़ दुर्ग पहुंचा.
मीलों लम्बी सुरक्षा दीवार के रूप में बाहें फैलाये नाहरगढ़ दुर्ग की छत पर बैठकर 282 साला बुजुर्ग दुर्ग दादा के साथ बातों का दौर शुरू हुआ. स्वर्णिम अतीत को सुनाते दुर्ग दादा के तन्हा मुरझाये चेहरे पर अब चमक परिदृश्यत होने लगी थी।
दुर्ग दादा अतीत की यादों से रूबरू करते हुए बोले ... “ जयगढ़ दुर्ग से आ रहे हो न ! वहां दुनिया की सबसे बड़ी तोप “ जय बाण “ जरूर देखी होगी ? “ मैंने सहमती में सिर हिला दिया. बात को आगे बढ़ाते हुए दुर्ग दादा ने बताया, “ ‘जय बाण’ तोप का निर्माण, मुझे तामीर करने वाले महाराजा सवाई जय सिंह ने करवाया था. महाराज कई भाषाओँ के ज्ञाता थे गणित और खगोल विज्ञान में तो उनका कोई सानी न था ! महाराजा के नाम से पहले सवाई उपाधि सुनकर जिज्ञासा बढ़ी. मैंने बात बीच में रोकते हुए प्रश्न दागा ! “ दादा.. दादा ! सुनो !! पहले ये तो बता दो ! ये “ सवाई “ क्या है ? “
" मेरा प्रश्न सुनकर दुर्ग दादा गर्वोन्मत्त मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले , “ महाराजा जय सिंह के पिता व आमेर के महाराजा विशन सिंह का देहांत तब हो गया था जब जय सिंह बहुत छोटे थे, 11 साल की बाल्यावस्था में ही जय सिंह को आमेर का राजा घोषित कर दिया गया. सन् 1700 में बाल्यावस्था में राजा जय सिंह का औरंगजेब के दिल्ली दरबार में जाना हुआ तो बादशाह औरंगजेब ने जय सिंह के दोनों हाथों को पकड़ लिया और कहा.. " अब क्या करोगे ?"
महाराजा जय सिंह बचपन से ही हाजिर जवाब और कूटनीतिज्ञ थे, वे बोले, " जहाँपनाह ! हमारे यहाँ जब शादी होती है तो वर अपनी वधू का एक हाथ थामकर उसे सात जन्मों तक सुख दुःख में साथ निभाने का वचन देता है. जहाँ पनाह ! आपने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए, अब मुझे किस बात की चिंता !" बालक जय सिंह की हाजिर जवाबी पर औरंगजेब हैरत में पड़ गया, और जय सिंह को एक आदमी से बढ़कर सवा आदमी होने की अर्थात “ सवाई “ मौखिक उपाधि दे दी, तब से हमारे महाराजा और उनके उत्तराधिकारियों के नाम से पहले सवाई लगाया जाने लगा. “
बातों-बातों में सांझ घिरने लगी, दुर्ग दादा मुझे दुर्ग के पश्चिम में बने रेस्तरां, “ पड़ाव “ में ले गए, वहीँ हमने कॉफ़ी का आनंद लिया , दुर्ग दादा जयपुर शहर के महलों से मॉल तक के सफ़र को बयाँ करते जा रहे थे और मैं चुपचाप इस सफ़र का मूक श्रोता बना अतीत में खोया सुन रहा था यादों का कारवां बहुत लम्बा था ..बातों का सिल सिला चलता रहा. ... शेष बातचीत समय मिलने पर फिर कभी साझा करूँगा।
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