जयपुर की शान : सिटी पैलेस ; विश्व के सबसे बड़े चांदी के पात्र, " गंगाजली कलश "...
(World's Biggest Silver Urns , Gangajali Kalash, City Palace , Jaipur)
वर्तमान में सामयिक चलन के अनुसार ही बच्चे का नाम रखा जाता है लेकिन मेरे युवा होने तक राजपूत लोग, बच्चे के नाम के साथ “ सिंह “ अवश्य लगाते थे. “ सिंह ” वीरता और पराक्रम का द्योतक है यही सोचकर संतोष कर लेता था लेकिन राजपूतों में नाम के साथ “ सिंह “ लगाने का चलन कब शुरू हुआ ! ये जिज्ञासा जरूर थी.. जानकारी के लिए बताना चाहूँगा राजपूतों में नाम के साथ “ सिंह “ जोड़ने का चलन लगभग 1721 वर्ष पूर्व शुरू हुआ. इससे पहले राजपूतों द्वारा नाम के साथ “ पाल “ आदि अन्य उपनाम लिखे जाते थे.
राजपूतों की बात चल पड़ी है तो आइये ! चलते हैं..पराक्रमी राजपूत प्रसूता धरती, राजस्थान के गुलाबी शहर, जयपुर !. यदि आप जयपुर जाएँ और सिटी पैलेस देखने से महरूम रह जायं ! तो समझिए.. बहुत कुछ देखने से रह गया. गुलाबी शहर में सिटी पैलेस परिसर की भव्यता में खोया पर्यटक, सर्वतो भद्र चौक पर पहुंचते ही दर्शनार्थ रखे गए शुद्ध चांदी से बने दो बड़े-बड़े चमचमाते गंगाजली कलशों की सुन्दरता और विशालता पर मुग्ध होकर उनको एकटक निहारता ही रह जाता है !
पांच फीट दो इंच ऊंचे,14 फीट 10 इंच गोलाई लिए, 4000 लीटर धारण क्षमता वाले, 340 किग्रा. वजनी शुद्ध चांदी से बने सबसे बड़े पात्र होने के कारण ये कलश गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज हैं. 1894 में बिना जोड़ के बने इन कलशों को जयपुर राज्य के खजाने से 14000 झाड़शाही चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनाने में दो वर्ष लगे. जिन्हें जयपुर राज्य के 36 कारखानों में से एक मिस्त्री खाने के दो सुनार गोविंदराम और माधव ने तैयार किया था. कलशों को सरलता से सरकाने के लिए छोटे पहिए वाली प्लेट इनके आधार में लगाई गई थी.
कलश दिखने में जितने सुन्दर हैं इनका इतिहास भी उतना ही रोचक है. वर्ष 1902 में एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह को इंग्लेंड जाना था. महाराज धर्म परायण थे नित्य कर्म में गंगा जल का प्रयोग करते थे. अब इंग्लैण्ड यात्रा व प्रवास के दौरान गंगा जल नियमित किस प्रकार प्राप्त हो ! इस समस्या के निदान हेतु महाराजा ने पवित्र गंगाजली पात्र के रूप में इन कलशों का उपयोग किया था. यात्रा के लिए समूचा पानी का जहाज, “ ओलंपिया “ भाड़े पर लिया गया. लन्दन में पूरा “ मोरे लॉज “ बुक करवाया गया. यात्रा से पूर्व पूरे जहाज को गंगा जल से धोया गया. जहाज के एक कक्ष में राधा गोपाल जी को स्थापित किया गया. इस तरह पूरा अमला इंग्लैण्ड रवाना हुआ.
लन्दन में जब महाराजा का पूरा अमला सड़कों से गुजरता तो सबसे आगे राधा गोपाल पालकी होती उसके पीछे महाराजा और फिर सेवक ! आश्चर्य से ये नजारा देख रहे अंग्रेजों की जगह-जगह भीड़ एकत्र हो जाती थी. अंग्रेजों ने इस शोभा यात्रा का मखौल उड़ाया और इसे अंध विश्वासी राजा की सनक तक कह डाला लेकिन लन्दन के मीडिया ने महाराजा को धर्मपरायण राजा कहा.
अंग्रेजों की गुलामी के दौर में 3 जून 1902 एक ऐसा ऐतिहासिक दिन था जब लन्दन की सड़कों पर किसी देवी-देवता की इस तरह शोभा यात्रा निकाली गयी. इस दिन महाराजा सवाई माधो सिंह की अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा पर लन्दन ही नहीं पूरा विश्व अचंभित हुआ.
महाराजा लन्दन प्रवास के दौरान अंग्रेजों से हाथ मिलाने के बाद जयपुर से साथ में ले जाई गयी मिट्टी से हाथ मलते और गंगाजल से हाथ धोते थे. लन्दन प्रवास के दौरान महाराजा ने इन कलशों के जल से तैयार भोजन ग्रहण किया और नित्यकर्म में भी इन पात्रों में रखे पवित्र गंगा जल का ही प्रयोग किया.