' घंटेवाला ' मिठाई की दुकान : चांदनी चौक दिल्ली ...
जब भी चांदनी चौक जाता था तो “ घंटेवाला “ मिठाई की दुकान पर कुछ हल्का-फुल्का अवश्य खा लेता था लेकिन अबकी बार गया तो... दुकान ही न मिली ! अब वहां शो रूम मिला.इन्द्रप्रस्थ-लालकोट से शुरू हुआ दिल्ली का लगभग पांच हजार वर्षों का सफ़र, रायसीना की पहाड़ियों पर जा रुका लेकिन दिल्ली का मिजाज रोज बदल रहा है. कड़ी प्रतिस्पर्धा और निरंतर तकनीकी तरक्की के दौर में आम आदमी का खान-पान भी बदल रहा है. इस कारण आखिरकार 225 साल पुरानी देश-विदेश में प्रसिद्ध “ घंटे वाला “ मिठाई की दुकान 2 जुलाई 2015 को इस बदलाव की भेंट चढ़ गयी और चांदनी चौक की विशिष्ट पहचान, जो इतिहास के कई उतार चढाव की गवाह थी , हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गयी !
जब वर्ष 1790 में लाला सुखलाल जैन आमेर से दिल्ली आए, तो उन्होंने ठेले पर मिश्री-मावा बेचना शुरू किया, उस समय उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन चांदनी चौक जैसे मशहूर बाज़ार में न सिर्फ उनकी दुकान होगी, बल्कि ' 225 साल पुरानी दुकान ' के रूप में प्रसिद्धि भी हासिल करेगी. यही नहीं, 'घंटेवाला' ने देश के कई प्रधानमंत्रियों से लेकर कई मुगल बादशाहों और विदेशी प्रतिनिधियों तक की सेवा की है, इसके देसी घी और क्रीम से बने सोहन हलवे और कराची हलवे के सभी दीवाने थे.
'घंटेवाला' नाम के पीछे भी एक कहानी है। पुराने वक्त में यह 'घंटेवाला' एक स्कूल के सामने ठेला लगाकर खड़ा हुआ करता था, जिसके घंटे की आवाज़ लालकिले तक सुनाई पड़ती थी। जब भी 'घंटेवाला' का घंटा बादशाह को सुनाई पड़ता, तत्कालीन मुग़ल बादशाह बादशाह शाह आलम अपने नौकर से 'घंटे के नीचे वाले हलवाई' से मिठाई लाने के लिए कहते थे. ये क्रम अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक चला.
अब तो यह दुकान बंद हो ही चुकी है, लेकिन इसके मिष्ठान्नों और पकवानों के अनूठे स्वाद को लोग शायद कभी नहीं भूल पाएंगे.
देश में इस तरह न जाने कितने स्वस्थ भारतीय पारंपरिक पुश्तैनी व्यवसाय, ' तरक्की ' की दौड़ में आर्थिक तंगी के कारण पिछडकर, रोज बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ रहे हैं ! घरेलू व पारंपरिक लघु उद्योगों को सस्ती तकनीकी सहायता उपलब्ध करा कर बचाना आवश्यक है, क्योंकि इन उद्यमों पर देश की बहुत बड़ी आबादी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर है.. कुछ इसी उधेड़बुन में अगले गंतव्य की ओर बढ़ गया !!
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