Monday, 30 May 2016

मनोरम ही मनोरम




   मनोरम ही मनोरम        

        चलिए, उत्तराखंड की हरी भरी सुरम्य वादियों के स्वच्छ व शांत प्राकृतिक वातावरण में पर्यावरण मित्र बनकर कुछ दिन बिता आते हैं ..
      मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि आवश्यक नहीं कि उत्तराखंड में रहन-सहन की दृष्टि से अधिक खर्चीले व बहु प्रचारित भीड़-भाड़ वाले चुनिन्दा स्थलों की ओर ही रुख किया जाय !! आप अपेक्षाकृत कम खर्च में भी प्रकृति की गोद में भरपूर आनंद का अनुभव कर सकते हैं ..
       उत्तराखंड में हर जगह अपने आप में अनुपम है.. अनूठी छवि लिए हुए है ..प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है .. जिस तरफ भी निहारियेगा .. मनोरम ही मनोरम पाइयेगा ..


राजभवन, उत्तराखंड



       राजभवन, उत्तराखंड

           देहरादून में घर पर गर्मी महसूस हो रही थी तो हरे-भरे छावनी क्षेत्र की तरफ रुख किया. मसूरी में हो रही बारिश के कारण ठंडी हवाओं से छावनी क्षेत्र में भी मौसम खुशनुमा हो गया था. राजभवन को देख बचपन में पढ़ी श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी द्वारा रचित कविता अनायास ही याद आ गयी ....

 
यदि होता किन्नर नरेश मैं
राज महल में रहता,
सोने का सिंहासन होता
सिर पर मुकुट चमकता।


तस्वीर कौतुक !!



         तस्वीर कौतुक !!

           सुबह छ: बजे ! देहरादून - मसूरी रोड पर एक-एक कर दो पेट्रोल पम्पों पर तेल भरवाने पहुंचे लेकिन कर्मचारी नदारद !! आधा घंटे इन्तजार के बाद एक महाशय आये..
         मैंने प्रश्नवाचक लहजे में कहा, " भाई !! अब तक तो कई वाहन यहाँ से बैरंग चले गए हैं !"
तेल भरने वाले महाशय ने बड़ी लापरवाही से कहा .. " कोई फर्क नहीं पड़ता !! "
       सोचता रहा ..कितने संतोषी हैं ये कर्मचारी और इस पम्प का मालिक !!
       खैर !! आप पेट्रोल पम्प की इस तस्वीर का आनंद लीजिये और हो सके तो इंडियन आयल की गर्मी से निपटने की स्कीम " 1200 का डीजल भरवाने पर एक लीटर पानी की बोतल मुफ्त पाएं " पर बिंदास कमेन्ट कीजियेगा ..
      वैसे कच्चे तेल की कीमतों को देखते हुए कायदा तो ये बनता है कि "एक लीटर डीजल भरवाने पर एक लीटर पानी की बोतल मुफ्त पाएं" का गर्मी ऑफर दिया जाय..


लीचियों से लक-धक देहरादून





लीचियों से लक-धक देहरादून 

    देहरादून में राजनीति की चौसर तो एक दो दशक से ही बिछनी शुरू हुई है लेकिन लीचियों के लिए देहरादून बहुत पहले से ही प्रसिद्ध है.. आजकल देहरादून में लीचियों से लक-धक और घनी पत्तियों से आच्छादित हरे-भरे पेड़, दून की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे हैं .. पेड़ों पर लीचियों के लटकते गुच्छे राहगीर को बरबस ही अपनी तरफ आकर्षित कर लेते हैं ..
     प्रदेश की राजधानी के रूप में अस्तित्व में आने के बाद देहरादून में कंक्रीट के जंगल जिस तेज गति से विस्तार लेने लगे ! लीचियों के बाग़ उसी गति से सिमटने लगे !!


नयी टिहरी ..




नयी टिहरी ..

            कहा जाता है कि टिहरी महाराजा के दरबार ज्योतिषियों ने 1913 में ही भविष्यवाणी कर दी थी कि सौ साल के अन्दर टिहरी शहर जल निमग्न हो जाएगा ! शायद 1915 में राजधानी को नरेन्द्र नगर स्थानांतरित किये जाने के पीछे अन्य कारणों के अलावा ये भी एक कारण था लेकिन तब किसी भीषण प्राकृतिक आपदा के अतिरिक्त टिहरी शहर के डूबने की सम्भावना न थी.
             समय ने करवट ली .. भविष्यवाणी लगभग नब्बे वर्ष बाद सच साबित हुई !! लेकिन पुरानी टिहरी डूबने का अनुमानित कारण प्राकृतिक आपदा नहीं बनीं !! बल्कि टिहरी बाँध परियोजना, पुराने टिहरी शहर के जल निमग्न होने का कारण साबित हुई !!
             पुरानी टिहरी के जल निमग्न होने के उपरांत, ॠषिकेश- पुरानी टिहरी मार्ग पर चम्बा से 12 किमी दूर उत्तराखंड का प्रथम नियोजित शहर, जिसके योजनाकार को उत्कृष्ट आर्किटेक्ट
पुरस्कार से भी नवाजा गया है.. नयी टिहरी अस्तित्व में आया ..
           हालाँकि भावनात्मक रूप से टिहरी के पुराने निवासियों के दिल में अभी वह स्थान नहीं बना पाया है जो पुरानी टिहरी के लिए था लेकिन पहाड़ियों से घिरा और सघन वन आच्छादित हरियाली की गोद में 1750 मी. ऊँचाई पर बसा प्राकृतिक सौंदर्य परिपूर्ण नयी टिहरी शहर, ठन्डे मौसम व स्वच्छ आबो हवा के कारण पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है.. पर्यटन के दृष्टिकोण से इस क्षेत्र में काफी संभावनाएं दिखाई देती है। 


Thursday, 19 May 2016

उत्तराखंड आइये ! रिचार्ज होकर जाइए !!




उत्तराखंड आइये ! रिचार्ज होकर जाइए  !!

        ये तस्वीर इन गर्मियों में अपराहन चार बजे क्लिक की गई है ! अब आप पूछेंगे कि इसमें ऐसी क्या विशेष बात है !!
       सुबह आठ बजे से बारात के साथ सफ़र और फिर खुले आसमान के नीचे आग बरसाते सूरज के सानिध्य में खेत में बैठकर बारात भोज के तुरंत बाद जेठू साहब की जिद पर धूल-धक्कड़ भरी ऊबड़-खाबड़ कच्ची-पक्की सड़क पर मौण गाँव तक पुन: कई किलोमीटर बाइक से थकाऊ सफ़र करके फिर गाँव तक चढ़ाई पर पैदल चलने के बाद ये तस्वीर ली गयी है.
        प्रारंभ में तस्वीर क्लिक करने के समय का जिक्र इसलिए किया क्योंकि तेज धूप और गर्मी के मौसम में इतने व्यस्त कार्यक्रम के बाद किसी के भी चेहरे पर मुरझाहट और थकान के भाव परिलक्षित होना स्वाभाविक सी बात है लेकिन यहाँ दिल्ली के विपरीत मुझे बिलकुल भी थकावट का अहसास नहीं हुआ क्लिक करने के बाद तुरंत ऋषिकेश तक, वापसी का लगभग 90 किमी. तक का सफ़र भी ख़ुशी-ख़ुशी बाइक से तय कर लिया.    
 
      उत्तराखंड के वातावरण में ऐसा कुछ विशेष अवश्य है जो व्यक्ति में अतिरिक्त ऊर्जा भर देता है ... शांत चित्त कर देता है और महानगरों में भौतिक सुख-सुविधाओं में रहने के बावजूद भी व्यक्ति में परिलक्षित होने वाली बोझिलता, अलसाहट, थकान, तनाव व चिडचिडाहट गायब हो जाती है..
        तो आइये !! मर्यादित, शालीन पर्यावरण मित्र व्यवहार के साथ उत्तराखंड में कुछ दिन बिताइए !! और रिचार्ज होकर मधुर स्मृतियों के साथ लौट जाइए !!


Tuesday, 17 May 2016

जब "तवा" वर्ण हुआ पाते हैं !!



व्हाट्स एप्प पर हास्य पुट लिए वार्तालाप का आप भी काव्य रूप में आनंद लीजिए

एक मोहतरमा ने घुमक्कड़ी पर मुझसे संजीदगी से पूछा ..
आग बरस रही सूरज से
कैसे गर्मी को झेल पाते हो !
गर्मी में भी भ्रमण पर रहते
बरदाश्त कैसे कर पाते हो !!
मैंने जवाब दिया ..
गर्मी सर्दी से क्या डरना
दोनो ही मुझसे घबराते हैं !
श्याम वर्ण चेहरे को मेरे
जब "तवा" वर्ण हुआ पाते हैं !!
.. विजय जयाड़ा
 

वन उपवन...





वन उपवन तुम उड़ती रहती
किसी फूल पर नहीं ठहरती
विश्राम करो अब है मधु रानी !
सारा दिन तुम मेहनत करती !!

... विजय जयाड़ा

              सफ़र में बेटी दीपिका ने लम्बे धैर्य के बाद आखिरकार जंगल में छोटे-छोटे फूलों पर मंडराती, ना-नुकुर करती इस मधुमक्खी को कैमरे में कैद कर ही लिया !!


डाळियों पर



डाळियों पर
जौंद्याल पड़ग्यन !
बल_ सड़क चौड़ी होणी छ,
कुज्याणी कब__
यन छैळु मिल्लु !
सोचि_ ज्युक्ड़ी खुदेणि छ !! 

... विजय जयाड़ा
( जौंद्याल = बलि देने से पूर्व पशु पर डाले जाने वाले अभिमंत्रित चावल )
 

Sunday, 15 May 2016

पहाड़ का मालवाहक जहाज ...



पहाड़ का मालवाहक जहाज ...

                                        अथ श्री खच्चर उवाच ! .. एक सहज संवाद
        खाड़ी से मौण गाँव की ओर 13 किमी. चलने के बाद चढ़ाई लिए, कच्ची पक्की सड़क से गुजरना हुआ। सुहावने मौसम में कुछ देर सुस्ताने की गरज से बाइक रोकी तो सड़क किनारे घास चरते इस सजे-धजे, ह्रष्ट-पुष्ट गबरु जवान, खच्चर (Mule) पर नजर पड़ी. मालिक अपने मोबाइल पर मस्त था तो सीधे ही खच्चर (Mule) महाशय से मुखातिब हुआ !
       बातचीत शुरू हुई, काम धंधे के बारे में पूछा, जनाब के चेहरे पर संतोष मिश्रित चिंता उभर आई ! बोले " सड़क निर्माण और NGT के आदेशों से काम कुछ कम है लेकिन फिर भी गुज़र-बसर हो ही रही है , दिन भर मेहनत करके 600 रुपये तक कमा लेता हूँ " . अंतरंगता बढ़ने पर खुलकर बात शुरू हुई. महाशय दिल का दर्द बयां करते हुए कहने लगे .. " पहाड़ों पर जहाँ कोई अन्य यातायात का साधन नहीं पहुंच पाता वहाँ हम विपरीत मौसम में भी पहाड़ी दुर्गम ऊबड़-खाबड़, संकरे रास्तों पर अपनी जान हथेली पर रखकर चलते हैं और बिना थके सवारी और सामान दोनों को सुरक्षित पहुंचा देते हैं ! लेकिन फिर भी हमें घोड़ों की तरह सम्मान नहीं मिलता ! हमें अलग ही नाम दे दिया है .. खच्चर !! बात यहीं तक सीमित होती तो चल जाता ! लेकिन जब किसी मंदबुद्धि को व्यंग्य में “ खच्चर “ कहा जाता है तो हमारी आत्मा बहुत दुखती है. गधों से तो हमें ज्यादा अकल होती है कि नहीं !!" खच्चर महाशय शिकायती लहजे में आँखें तरेरते हुए बोले ! मैंने हमदर्दी में सिर हिलाया और चुपचाप सुनने में ही अपनी भलाई समझी ! आगे बोले .. " मगर जब हाड–तोड़ मेहनती इंसान को “ खच्चर की तरह काम करने वाला “ की उपमा दी जाती है तो हमें खुद के खच्चर होने पर गर्व भी होता है।"
        लगे हाथों अपनी " वैल्यू " जताते हुए यह भी बता दिया कि मालिक मुझे 90,000 रुपये में खरीदकर लाया है।
      अपनी ताकत के बारे में जनाब ने बताया कि उनका वजन 450 किग्रा तक होता है और अपने वजन का 30% तक भार आसानी से ले जा सकते हैं। साथ ही अपनी सुरक्षा में दुश्मन को आगे -पीछे -दाएँ -बाएं, हर दिशा में ताबड़तोड़ लतिया कर धूल भी चटा सकते हैं।
      आगे बात चली तो जनाब घोड़े से अपनी तुलना करते हुए कुछ तन कर कहने लगे “ बेचारा घोडा तो 25-30 साल तक ही तो जीवित रह पाता है ! हम तो जीवन की सिल्वर जुबली भी मना लेते हैं ! “
आगे कहते हैं " रही बात अपनी संख्या बढाने की !!.. तो हम इसमें दिलचस्पी नहीं रखते ! पिछले 500 सालों में मात्र 60 ऐसे मौके आये जब मादा खच्चर ने बच्चे को जन्म दिया हो “
      देश की सीमाओं की सुरक्षा की बात चली तो खच्चर महाशय गर्व से कहने लगे. “ हम देश की सीमाओं की रक्षा किसी सिपाही की ही तरह करते हैं, हाँ इतना जरुर है कि सेना में हमारे खान-पान की और देखभाल की व्यवस्था बहुत अच्छी होती है वहां हमें 26 किमी. से ज्यादा लगातार नही चलना पड़ता और हमारी पीठ पर 72 किग्रा, वजन से ज्यादा बोझ नहीं लादा जाता है.”
      खैर, अब हमने जनाब से बिरादरी की उपलब्धियों पर सवाल दागा. चरना छोड़ मुझसे सीधे मुखातिब होकर बोले “ हमारे बिरादर द्वारा दुनिया के किसी देश की सेना में सबसे लम्बी सेवा करने का विश्व रिकार्ड, हमारे पकिस्तानी बिरादर के नाम था, लेकिन हमारे हिन्दुस्तान के “ पैडुगी “ नाम के बिरादर ने सेना में 28 साल से अधिक सेवा करके उस रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया औए गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करवाकर हमारा और हिन्दुस्तान का गौरव बढाया “
     सियासत पर बात चलने पर जनाब मायूस होकर बोले, " हालिया "शक्तिमान" से किए गए अमानवीय व्यवहार के बाद हमारी बिरादरी की घोड़ों जैसा सम्मान पाने की ख्वाहिश भी अब कुंद पड़ गई है ! हम ऐसे ही भले हैं !"
     मुझे आगे जाना था तो मैंने विदा लेने के अंदाज में कहा, " खच्चर भाई ! अब चलता हूँ इस तरफ फिर कभी आना हुआ तो अवश्य मिलेंगे. “ ... “खच्चर “ संबोधन सुनते ही जनाब भड़कने ही वाले थे कि मैनें भूल सुधार करते हुए तुरंत महाशय की शान में इजाफा करते हुए कहा. ओह ! सॅारी !! आप खच्चर नहीं सही मायने में “ पहाड़ के जहाज “ हैं, फिर मिलेंगे तो विस्तार से बात करेंगे अभी जल्दी में हूँ।
       अब " पहाड़ के जहाज " ने खुश होकर गर्दन में लटकी घंटियाँ बजाकर मुझे अलविदा कहा और मैं अपने गंतव्य की ओर चल दिया .


बचपन में फिसलने का..



बचपन में फिसलने का कुछ अलग ही मजा था,
फिर खुद को संभाला इतना कि फिसलना ही भूल गए !!

..... विजय जयाड़ा

बिन पानी जग सून !



बिन पानी जग सून !

       उत्तराखंड में आजकल जहाँ एक ओर स्थानीय निवासी पेय जल समस्या से जूझ रहे हैं वहीँ ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर मर्च्वाड़ी गाँव के पास सड़क किनारे जीविकोपार्जन के लिए झोपड़ी में चाय-पान की दुकान चलाने वाले श्री भगवती प्रसाद भट्ट जी ने बारहों मास के लिए पानी का, सीमित ही सही मगर समाधान निकाल लिया है.
        सफ़र में विश्राम का मन हुआ ! ज्यों ही इस झोपडी के पास पानी देखकर बाइक रोकी, भट्ट जी दुकान से बाहर आकर हमसे मुखातिब हुए. हालांकि जल संस्थान ने पाइप लाइन बिछायी हुई हैं लेकिन भीषण गर्मी में अधिकतर चूक गयी हैं. आस-पास कहीं पानी की व्यवस्था न थी तो सड़क किनारे पेड़ पर लटकते प्लास्टिक पाइप से बहते स्वच्छ शीतल जल को देखकर आश्चर्य हुआ !
       चाय के साथ इस पेय जल के मूल श्रोत के बारे में बात चली तो भट्ट जी ने बतया कि इस जगह से डेढ़ किमी. ऊपर पहाड़ी पर उस स्थान से जहाँ जल संस्थान द्वारा इस बहते पानी का कोई उपयोग नहीं, हार्ड प्लास्टिक पाइप द्वारा पानी यहाँ तक ला पाए है अब यहाँ पर गर्मियों में जब आसपास जल संस्थान द्वारा बिछाई गयी पाइप लाइनों में पानी आना बंद हो जाता है तो आस पास के ग्रामीण इसी जगह से पानी भरकर ले जाते हैं, गुमन्तु गुर्जर मवेशियों के साथ इस जल श्रोत के पास ही डेरा डालते हैं, पर्यटक सुस्ताने के लिए अपनी गाडी रोककर शीतल व शुद्ध जल पान का आनंद लेते हैं, चालक अपनी गाडी भी धोते हैं, स्वयं भोजन बनाकर खाने वाले यात्री अपना भोजन बनाने के लिए इसी स्थान को चुनते हैं.
      पहाड़ों पर गाँव तक पेय जल आपूर्ति के उद्देश्य से सरकार द्वारा जल संस्थान के माध्यम से जल संरक्षण व संचयन पर काफी व्यय किया जाता है लेकिन इसके बावजूद भी गर्मियों में पेयजल समस्या रूपी सुरसा मुंह फैलाये रहती है.
      मनरेगा योजनान्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के रास्तों के निर्माण के बाद अब गर्मियों में पानी की किल्लत झेलते गाँवों में उचित स्थान पर वर्षा जल संचयन में स्थानीय निवासियों का सहयोग लेकर पेयजल समस्या निवारण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
      हालांकि जल विशेषज्ञों की कमी नहीं !! लेकिन अपने यात्रा अनुभवों के आधार पर सोचता हूँ कि यदि राजस्थान व जल न्यूनता वाले अन्य क्षेत्रों की तरह वर्षा ऋतु में पहाड़ों से व्यर्थ बहने वाले जल को ऊंचे पहाड़ी स्थानों पर ही और ग्राम स्तर पर ग्रामीणों के सहयोग से बड़ी-बड़ी टंकियां बनाकर संग्रहण व्यवस्था की जाय तो ये संचित जल, गर्मियों में निर्बाध पेयजल आपूर्ति में सहायक हो सकता है फलस्वरूप वर्षा जल से होने वाले भूमि कटाव व वन संपदा हानि में कमी आ सकती है. साथ ही ये संग्रहित जल हर साल जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के उपयोग में भी लाया जा सकता है।
जल संरक्षण व संचयन वक्त की पुकार भी है 

              क्योंकि “ जल है तो कल है और बिन पानी जग सून ! “

Saturday, 14 May 2016

गिरने लगी हैं छत !



   गिरने लगी हैं छत !
         घरों में___
दौड़ती छिपकलियाँ
सुनसान झरोखे हैं
सूनी सूनी बीथियाँ ...
उदास___ इंतज़ार में
घर हो रहे खँडहर
 कहते है बंद किवाड़
     लौट आएँगी चाबियाँ ...
... विजय जयाड़ा


कभी मंद मंद





कभी मंद मंद
कभी उछल - उछल
बहता अविरल
निश्छल-निश्छल..
नहीं घाट बाट का
भेद कोई
ना ही अपना पराया
उसका कोई ..
जीवन मूल
   युग युगों से है
मृदुल जल निरंतर
    अविरल विमल ...
उतर उत्तुंग शिखर
भाव विह्वल
वसुधा अन्त:स्थल से
निकल-निकल
बहता निनाद कर
झल-मल कल-कल
बहता निनाद कर
     छल-छल कल-कल ....
.. विजय जयाड़ा

पास रहकर ही__





    पास रहकर ही__
रिश्ते नहीं संवरते !
    दूर रहकर भी __
दिलों में खिलते हैं !!
   धरती औ फलक का__
मिलन देखा किसने !
मगर रूहानी रूप में
  हमेशा साथ होते हैं !!
.. विजय जयाड़ा


ममता



    

                    माँ की ममता, सहज - स्वाभाविक - शाश्वत - प्रदर्शन रहित होती है !! बेशक माँ चौपाया हो या दुपाया !!
                    बच्चे को गोद में उठाया तो सशंकित माँ चरना छोड़, मेरे पास आकर बैठ गई !!


ये कहाँ आ गए हम !!



ये कहाँ आ गए हम !!

              सफ़र के दौरान प्रकृति में कुछ संरचनाएं बरबस ही अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कर कौतूहल उत्पन्न करती हैं और वहीं रुककर कुछ समय बिताने को प्रेरित करती हैं।
            चूना पत्थर और रेत से निर्मित, साथ ही अपेक्षा से अधिक विस्तृत इस गुफा सदृश आकृति को देख रोमांचित हो जाना स्वाभाविक सी बात है.
            मुख्य गुफा अन्दर की तरफ कई छोटी गुफा सदृश आकृतियों की तरफ बढ़ रही है.
            अन्दर पहुँचने पर शांत वातावरण में ऐसा महसूस हो रहा था कि यदि ऊंचे स्वर में कुछ कहा तो ऊपर की जमीन धसक कर मलबे के रूप में मेरे ऊपर गिर सकती है !!
            इस तरह की आकृतियों में प्रवेश करने से पूर्व यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि कोई वन्य जीव गुफा में न हो, अक्सर ऐसी जगह खतरनाक जंगली जानवर के अपने शिकार की ताक में घात लगाकर छिपे होने की प्रबल संभावनाएं होती हैं.
            हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के मकानों का निर्माण हो रहा हैं लेकिन कच्चे मकानों को लीपने –पोतने के लिए लाल या पीली मिट्टी का अब भी प्रयोग किया जाता है। एक ही जगह से लगातार मिट्टी निकालते रहने के कारण उस जगह जमीन के समानांतर सुरंग (मटखाणी) बन जाती है, कभी- कभी ऊपर की जमीन धसकने से मिट्टी खोदने वाला व्यक्ति मलबे की चपेट में आ जाता है ! बचपन में इस तरह की कई घटनाएँ सुनने को मिलती थीं ।


उदास बांज



पिंग्ळा सोनाकि धकाधूम !
हरयाँ बंज्याण् घटणा छन्
हरयुं सोनु होयुं छ उदास
धारा पंध्यारा सुखणा छन् !!
.. विजय जयाड़ा

भावानुवाद ...
पीले सोने की चकाचौंध में !
बाँज के जंगल सिकुड़ रहे
सोना हरा उदास बैठा है
श्रोत पानी के अब सूख रहे !!

(पीला सोना= Gold, हरा सोना= बांज, Oak का पेड़, जिसे उपयोगिता के कारण पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है)