Tuesday, 26 January 2016

बस एवें ही .. ठाले ठाले !!



बस एवें ही .. ठाले ठाले !!

                         अक्सर जब कोई भी व्यक्ति दिल्ली भ्रमण पर या किसी अन्य कार्यवश आता है तो समय मिलते ही पुरातात्त्विक स्मारकों पर जाना उसकी प्राथमिकताओं में होता है. भारत ही नहीं दुनिया में पुरातात्त्विक महत्व के स्मारकों को संरक्षित रखने में अच्छी-खासी राशि व्यय की जाती है. प्राय: इन स्थानों पर हम जाते हैं इमारतों, कृतियों को निहारते हैं .. उनको देख विस्मित होते हैं !! यादगार के रूप में तस्वीर क्लिक करते हैं और अगले गंतव्य की तरफ चल देते हैं..
                        कुछ “अति उत्साही”, कुछ स्मारकों को आक्रान्ताओं की बर्बरता के निशान कहकर, इनके महत्व को सिरे से ख़ारिज करते हुए ढेरों तर्क-कुतर्क करते हैं !
                      प्रश्न उठता है क्या सरकार, देश की आम जनता के धन में से भारी-भरकम राशि केवल क्षणिक मानसिक सुख या मनोरंजन के लिए व्यय करती है ?? या बर्बरता के निशान दिखाना ही उद्देश्य है ?
                      कई प्रदेशों के संरक्षित स्मारकों के अवलोकनोपरान्त व्यक्तिगत रूप से सोचता हूँ .. ऐसा नहीं !! पुरातत्व महत्व के स्मारक हमें जाने-अनजाने में बहुत कुछ सीख दे जाते हैं .. क्योंकि हमें इतिहास अच्छाइयों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने और अतीत में की गयी गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ने को प्रेरित करता है , यदि उन बातों पर चर्चा हो तो कितना अच्छा हो !! ... खैर !! फर्क सिर्फ नजरिये का है !!
इन स्मारकों को देखकर मानस-पटल पर महाभारत धारावाहिक का शीर्षक गीत जीवंत हो आता है ... “ .............सीख हम बीते युगों से .. नए युग का करें स्वागत .....
             बहरहाल, 1236 में बना, भारत में ये दूसरा सबसे प्राचीन इस्लामिक मकबरा है। जो इल्तुतमिश का है।
              भारत मे सबसे पुराना और पहला इस्लामिक मकबरा इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का है जो 1231 में मलकपुर गांव, दिल्ली में सुल्तान गढ़ी मकबरे के नाम से जाना जाता है।

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