इतिहास के झरोखे से दिल्ली : ग़ालिब की हवेली
महकती थी तब शायरी अब वीराना है यहाँ !
दीवारें बयाँ करती हैं कि ग़ालिब रहते थे यहाँ !!
..विजय जयाड़ा
दीवारें बयाँ करती हैं कि ग़ालिब रहते थे यहाँ !!
..विजय जयाड़ा
किताबों में पढ़ा कि चांदनी चौक (शाजहनाबाद) की गलियां जिसने नहीं देखी .. उसने दिल्ली नहीं देखी... तो मैं भी जोश में चल पड़ा, चांदनी चौक !!
पूछते-पुछाते बल्लीमारान वाली सड़क पर २०० कदम चलकर सीधे हाथ पर गली, कासिम जान की ओर मुड़ा ही था कि बाएं हाथ की तरफ, तीसरे या चौथे घर पर " ग़ालिब की हवेली ". लिखा देख लिया .. अन्दर पहुंचा तो चचा ग़ालिब मसनद पर टेक लगाये .. एक हाथ में हुक्के की लम्बी नाल लिए बुझे-बुझे से कुछ लिख रहे थे ..
न कोई तकल्लुफ न कोई चाय-पानी !! .. ऐसा लगा जैसे चचा खुद को विला वजह व्यस्त जताने की कोशिश कर रहे हैं ...
लेकिन कर भी क्या सकता था .. सोचा.. लगे हाथों क्यों न छुप्पे से चचा के साथ एक फोटो ही ले लिया जाय !! .
कैमरा देखते ही चचा फुर्सत में हो लिए तो मौके का फायदा उठाकर हाल चाल पूछने की हिम्मत की .. चचा मसनद को गोद पर रख कर मुझसे मुखातिब होते हुए शायराना अंदाज में उखड़े उखड़े से बोले.. " मास्साब !! ...
रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है.."
... चचा की मजबूरी से इशारों- इशारों में हमदर्द जताई. अब मिर्जा साहब के उखड़े उखड़े अंदाज का सबब भी समझ में आ गया !!
आज फिर मिर्जा साहब को " उस कूचे " से गुज़रते हुए बेगम साहिबा ने देख लिया होगा !! पेंसन बिना खस्ता माली हालात से जूझ रहे चचा ग़ालिब को फिर आज फजीहत नसीब हुई होगी ..
वर्ना ...चचा तो ऐसे ना थे ...
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