Sunday, 20 November 2016

म्यूटिनी मेमोरियल ( Mutiny Memorial ) Delhi


रहस्यमय (Haunted) म्यूटिनी मेमोरियल ( Mutiny Memorial ) : 
 सैन्य विद्रोह स्मारक, अजीत गढ़. नयी दिल्ली
         पिछले दिनों दिल्ली में प्रदूषण के कारण स्कूलों में छुट्टियां घोषित हुई लेकिन जुखाम-बुखार ने इस कदर घेरा की घर पर ही रहना पड़ा. छुट्टियों में दिन भर घर पर रहते हुए उकता गया तो बुखार में ही हिम्मत कर चल दिया एक ऐसे रहस्यमय स्मारक की ओर ! जिसे दिल्ली के भूतिया (Haunted) स्थानों में शुमार किया जाता है !
       जी हाँ ! कमला नेहरु रिज वन क्षेत्र में रानी झाँसी मार्ग पर बाड़ा हिंदुराव अस्पताल के दक्षिण में 500 मी. की दूरी पर सुनसान रिज इलाके में एक ऐसा ही ऐतिहासिक रहस्यमय किस्सों को समेटे हुए स्मारक है .. " म्यूटिनी मेमोरियल " अर्थात सैन्य विद्रोह स्मारक, अब परिवर्तित नाम " अजीत गढ़ " .
       30 मई से 20 सितम्बर सन 1857 के अंतराल में ब्रिटिश राज की ज्यादातियों के कारण उपजे जन असंतोष, जिसे व्यापकता व उग्रता के कारण भारत की आजादी का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है, को दिल्ली में अंग्रेजों की दिल्ली फील्ड फ़ोर्स द्वारा ब्रिगेडियर जनरल जार्ज निकोल्सन के नेतृत्व में कुचल दिया गया. इसके बाद पुरानी दिल्ली के प्रवेश द्वारों, कश्मीरी गेट व मोरी गेट पर निगरानी रखने के उद्देश्य से इस सुनसान रिज क्षेत्र में सैनिक छावनी बनायीं गयी थी..
      अंग्रेजों द्वारा पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट के माध्यम से जल्दबाजी में सन 1863 में “टेलर बैटरी “ ( तोपखाना इकाई ) के स्थान पर मजबूत पत्थर की चट्टान पर पांच फुट ऊंचे चबूतरे पर लाल बलुआ पत्थर से 29.5 मी. ऊंची, इस आलंकारिक अष्ट कोणीय मीनार को 8 जून से 7 सितम्बर 1857 के दौरान स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने में अंग्रेजों की दिल्ली फील्ड फ़ोर्स की तरफ से लड़े और मारे गए, घायल, व लापता, 2163 भारतीय तथा अंग्रेज अफसर व जवानों की औपनिवेशिक शक्तियों के प्रति वफादारी, बहादुरी व त्याग को भविष्य में स्मरण करने उद्देश्य से बनाया गया था. मीनार के अष्ट फलकों में लगे संगमरमर के शिलापट्टों पर अफसर व जवानों का विवरण अंकित है. मीनार में प्रवेश वर्जित है लेकिन पश्चिमी दिशा से प्रवेश कर घुमावदार सीढ़ियों के माध्यम से ऊपर तक पहुंचा जा सकता है. मीनार के शीर्ष पर क्रॉस बना हुआ है.
      औपनिवेशिक हिताकांक्षाओं को पोषित करते इस ऐतिहासिक संरक्षित स्मारक में अंग्रेजों की सेना, दिल्ली फील्ड फ़ोर्स के विरुद्ध लड़ रहे भारतीय नागरिकों को " शत्रु " के रूप में प्रस्तुत किया गया था लेकिन स्वतंत्रता उपरांत 15 अगस्त 1972 के दिन भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर इस स्मारक पर नए शिलापट्ट लगाकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रहे भारत माता के सपूतों को स्वतंत्रता के अमर शहीदों के रूप में उत्कीर्ण कर के सम्मान किया गया.
        रहस्यमय किस्सों से जुड़े होने के कारण यह स्मारक पर्यटकों के बीच कौतुहल का विषय भी बना रहता है ! ये किस्से हकीकत है या मन का भ्रम !! यह कह पाना संभव नहीं ! इन प्रचलित किस्सों में यहाँ सैनिक वर्दी में अंग्रेज सैनिक अफसर राहगीरों से सिगरेट सुलगाने के लिए लाइटर मांगने और सिर कटी अंग्रेज मानव आकृति देखे जाने की बात कही जाती है.. इस सम्बन्ध में “ आज तक “ कर्मियों ने इस स्मारक से जुड़े भूतिया रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश में इस स्मारक पर रात और दिन गुजारा ! लेकिन वे भी रहस्यों की पुष्टि में तथ्य न जुटा सके ! स्मारक के गार्ड से बातचीत करने पर गार्ड ने भी इस तरह की बातों को सिरे से खारिज किया.


परकोटे पर


        परकोटे पर बैठा सुस्ता रहा था तभी कुछ याद आया ! कहा जाता है कि निजाम भिश्ती के सम्मुख, वचनबद्ध बादशाह हुमायूँ की स्थिति भी कुछ-कुछ इस उक्ति के भावानुरूप ही हो गयी थी...
वचनबद्ध हुमायूँ,और उसकी प्रजा ढाई दिन के लिए ही सही ! मगर भिश्ती की " अकल " झेलने को मजबूर थे ! क्योंकि ! भिश्ती ने संकट के समय हुमायूँ की जान बचायी थी !!

         हुमायूँ शरीर मृत्यु भय से निजात पाकर भिश्ती के सम्मुख कृतज्ञतावश किंकर्तव्यविमूढ़ था और आम जनता भिश्ती के हुकुम झेलने को मजबूर ! लेकिन शायद आज तेज रफ़्तार जिंदगी में मनुष्य को शरीर मृत्यु भय की अपेक्षा, हर पल महत्वाकांक्षाओं का मृत्यु भय अधिक सताता है !! हर महत्वाकांक्षा को फलित रूप में देखना उसके लिए जीवन- मृत्यु अनुभूति सदृश है !! इसलिए आज महत्वाकांक्षाओं को फलित करने में सहयोगी व्यक्ति के प्रति व्यक्ति की कृतज्ञतावश मजबूरी क्या कुछ नहीं कर सकती !! इतिहास के इस प्रसंग से बखूबी समझा जा सकता है, साथ ही समसामयिक विचारणीय पहलु भी है...

लाल कोट से प्रारंभ हुए दिल्ली के सफ़र का पांचवां पड़ाव : फ़िरोज़ शाह कोटला, किला, दिल्ली..


लाल कोट से प्रारंभ हुए दिल्ली के सफ़र का पांचवां पड़ाव

        फ़िरोज़ शाह कोटला, किला, दिल्ली..
     दिल्ली के सफ़र के पांचवें पडाव अर्थात पांचवी दिल्ली, फिरोजाबाद में सन 1354 के दौरान फिरोज तुगलक द्वारा तामीर करवाया गया फिरोज शाह कोटला किला अपनी निर्माण सुन्दरता के कारण लोगों में कौतुहल व आकर्षण का केंद्र हुआ करता था. दूर-दूर से देखने आने वाले लोगों की सड़कों परआवा-जाही लगी रहती थी. इसके महलों व भवनों की सुन्दरता को मानो सन 1398 में नजर लग गयी जबआक्रान्ता तैमूर लंग के कहर के बाद ये खूबसूरत किला, खंडहर, उजाड़ और वीरान होता चला गया. उस समय इस शहर की आबादी डेढ़ लाख हुआ करती थी. मुगलों ने लाल किला निर्माण के लिए निर्माण सामग्री के लिए पुराना किला का रुख किया लेकिन हुमायूँ के लिए बदनसीब साबित हुआ पुराना किला, मनहूसी के साए के चलते स्वयं को बचा सकने में कामयाब हो गया !!
        इसके बाद लाल किला निर्माण सामग्री की दृष्टि से मुगलों की नजर, तैमूर द्वारा तबाह फिरोज शाह कोटला किले पर पड़ी और इस किले की बची-खुची उपयोगी निर्माण सामग्री लाल किला निर्माण में प्रयोग में लायी गयी. आज यहाँ जगह-जगह पत्थरों के ढेर, ऊंची-ऊंची ढहती दीवारें और महल के निशान उनकी बुनियादें ही इस किले के अतीत में अस्तित्व की गवाह हैं !!
        खैर ! इस किले से जुडी रोचक प्रसंग की तरफ रुख करता हूँ.. मुग़ल काल में आम जनता का मनोरंजन भांड व नक्काल किया करते थे. विचित्र व रोचक कपडे पहनकर ये नक्काल, वाद्य यंत्रों के साथ, गली-कूचों सड़कों और चौराहों पर अपने गीतों व भाव भंगिमाओं से जनता का मनोरंजन किया करते थे. इनके गीतों में जहाँ एक ओर हंसी मजाक का पुट होता था तो वहीं किस्से-कहानियां, सच्चाई के साथ-साथ हाकिमों द्वारा लिए गए गलत फैसलों पर व्यंग्य भी होता था. इस कारण कभी-कभी हाकिम नाराज हो जाया करता था.
         एक बार मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने नाराज होकर सभी भांड व नक्कालों को अपनी हुकूमत शाह जहानाबाद छोड़ने का आदेश दे दिया. अब शाहजहानाबाद में कोई भांड व नक्काल न रहा !
         एक बार तुर्कमान गेट की तरफ से हाथी पर सवार बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला जब इधर से गुजर रहा था तो उसने इन्हीं खंडहरों पर ऊंचाई पर बैठे, अपने चेलों के साथ ढोलक बजाते एक नक्काल को देखा ! बादशाह ने आश्चर्य से उससे वहां बैठे होने का कारण पूछा तो चतुर हाजिरजवाब नक्काल ने जान बख्शने की फ़रियाद करते हुए कहा “ जहाँपनाह ! आपकी हुकूमत पूरी दुनिया में है .. जहाँ भी जाते हैं आपकी हुकूमत नजर आती है ! अब भला हम जाएँ तो जाएँ कहाँ.. हार कर हमने जन्नत का रुख किया .. लेकिन अभी पहली सीढ़ी ही चढ़े थे कि सीढ़ी खत्म हो गयी ! इसलिए यहाँ बैठे हैं !!
         चतुर नक्काल का जवाब सुनकर बादशाह बहुत खुश हुआ और उसने सभी नक्कालों व भांडों को शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली) में वापस लौट आने की अनुमति दे दी.


" हनूज़ दिल्ली दूरअस्त " ..." दिल्ली अभी दूर है "...

" हनूज़ दिल्ली दूरअस्त " ..." दिल्ली अभी दूर है "...

        एक बहुत ही प्रसिद्ध लोकोक्ति है, “दिल्ली अभी दूर है” अर्थात “ मंज़िल अभी दूर है ”.यदि अतीत में भ्रमण किया जाय तो इस लोकोक्ति के गर्भ में एक ऐतिहासिक प्रसंग है जो सूफी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया से सम्बंधित है...
       1320 ईसवीं के आसपास दिल्ली में गयासुद्दीन तुगलक की सल्तनत थी. मगर दिल्ली, तुगलकों से ज्यादा सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया और उनके शागिर्द अमीर खुसरो के नाम से जानी जाती थी. अमीर खुसरो, तुगलक के दरबारी हुआ करते थे. तुगलक, खुसरो को चाहता था लेकिन औलिया की लोकप्रियता से चिढ़ता था. तुगलक सोचता था कि संत औलिया के इर्दगिर्द बैठे लोग उसके खिलाफ साजिशें रचते हैं.
       एक बार तुगलक युद्ध से दिल्ली लौट रहा था. रास्ते से ही उसने सूफी हजरत निजामुद्दीन तक संदेश भिजवा दिया कि उसकी वापसी से पहले औलिया दिल्ली छोड़ दें।
      
खुसरो को ये सब अच्छा न लगा ! वे औलिया के पास पहुंचे. तब औलिया ने उनसे कहा कि “ हनूज़ दिल्ली दूरअस्त.” अर्थात दिल्ली अभी दूर है. ग्यासुद्दीन तुगलक की पश्चिम बंगाल और उत्तरी बिहार से विजय के उपरांत दिल्ली वापसी में उसके पुत्र जुना खान ने स्वागत के लिए, कारा, उत्तरप्रदेश में. लकड़ी का एक काफी बड़ा मंच बनवाया गया था.अचानक आये भयंकर अंधड़ से उसका चंदवा (छतरी ) गिर गया. इसी के नीचे दब कर ग्यासुद्दीन तुगलक की मृत्यु हो गई. 
      इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ व मोरक्को के यात्री इब्न बबूता ग्यासुद्दीन की इस तरह हुई मृत्यु को पुत्र जूना खान के द्वारा षड्यंत्र के तहत हुई मानते हैं.
       इस प्रकार संत औलिया साहब के कहे अनुसार गयासुद्दीन तुगलक के लिए दिल्ली दूर ही रही और वो दिल्ली में जीवित वापस न आ सका !!

“ किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन “ दिल्ली का इन्द्रप्रस्थ से नयी दिल्ली तक का सफ़र



“ किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन “

दिल्ली का इन्द्रप्रस्थ से नयी दिल्ली तक का सफ़र

        दिल्ली की सियासत पर काबिज होने के लिए राजनीतिक दल अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं.. दिल्ली ने कभी अपने-पराये का भेद नहीं किया.जो भी यहाँ आया उसको दिल्ली ने गले लगाया ..शायद इस स्वाभाव के कारण भी दिल्ली शुरू से ही सबके आकर्षण का केंद्र रही है. चलिए आज दिल्ली नाम की विकास यात्रा पर ही चर्चा की जाय ..
       महानगर दिल्ली की विकास यात्रा की डोर, पांडवों के इंद्रप्रस्थ से प्रारंभ होकर अनेक राजाओं, सुल्तानों, सल्तनतों और बादशाहों के दौर से गुजरती हुई वर्तमान में रायसीना की पहाड़ियों, नयी दिल्ली तक पहुँचती है. इस विकास यात्रा में पहली दिल्ली का नाम लाल कोट (1000), दूसरी दिल्ली का नाम सिरी (1303), तीसरी दिल्ली का नाम तुगलकाबाद (1321), चौथी दिल्ली का नाम जहांपनाह (1327), पांचवी दिल्ली का नाम फिरोजाबाद (1354), छठीं दिल्ली का नाम पुराना क़िला (शेरशाह सूरी) और दीनपनाह (हुमायूँ;) दोनों उसी स्थान पर हैं जहाँ पौराणिक इंद्रप्रस्थ होने की बात कही जाती है (1538), सातवीं दिल्ली का नाम शाहजहांनाबाद (1639) और आठवीं दिल्ली का नाम नई दिल्ली (1911) के रूप में बदलते नामों का सफर भी जारी रहा.
       नयी दिल्ली से पहले के सात नाम आज भले ही खंडहर हो चुके इमारतों व भवनों के साथ मिट गए हैं, पर आज भी लोक-स्मृति में दिल्ली के बसने और उजड़ने की कहानी बयाँ करते हैं.
      अब इस महानगर के नाम दिल्ली होने पर चर्चा की जाय. इस सम्बन्ध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं. तोमर वंश के शासन काल में किले में एक लोहे के खम्बे के सम्बन्ध में ज्योतिषियों की भविष्यवाणी थी कि जब तक खंबा है साम्राज्य बना रहेगा लेकिन तोमर वंश के राजा धव ने उस खम्बे के ढीला होने पर उसको बदलवा दिया और इलाके का नाम ढ़ीली रख दिया. इसके बाद तोमर साम्राज्य का पतन भी शुरू हो गया और आम जन में एक मशहूर लोकोक्ति मशहूर हुई, “ किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन “ माना जाता है कि इसी लोकोक्ति से दिल्ली को उसका नाम मिला.
        ये भी माना जाता है कि तोमरवंश के दौरान जो सिक्के बनाए जाते थे उन्हें देहलीवाल कहा करते थे. इसी से दिल्ली नाम पड़ा.
         ईसा पूर्व 50 में मौर्य राजा थे जिनका नाम था धिल्लु. उन्हें दिलु भी कहा जाता था. माना जाता है कि यहीं से अपभ्रंश होकर नाम दिल्ली पड़ गया।
इस तरह तोमरों से जुड़ी लोकोक्ति मशहूर होती गई और किल्ली, ढिल्ली और दिलु अपभ्रंश होते-होते शहर का नाम दिल्ली हो गया जो कालांतर में अंग्रेजों द्वारा नई दिल्ली कर दिया गया..
         दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया है. इस शिलालेख का समय 1170 इसवीं निर्धारित किया गया है.