सांस्कृतिक घुसपैठ ... पारंपरिक ढ़ोल-दमाऊ-मसक बाजा और !!
गढ़वाल के पारंपरिक वाद्यों, ढ़ोल-दमाऊ-मसक बाजे के बीच पिछले दो-तीन दशकों में ड्रम, प्यानो, झुन-झुना, डफली जैसे वाद्य यंत्र कब और कैसे आ गए पता ही न लगा !!
बेशक ! ब्याह-बारात के सीजन में इस " फ्यूजन म्यूजिक बैंड " के कारण कुछ अतिरिक्त लोगों को रोजगार मिल जाता है. लेकिन इस बैंड का संगीत वो माहौल नहीं बना पाता जो पारंपरिक ढ़ोल-दमाऊ-मसक बाजे की समवेत स्वर लहरियां उत्पन्न कर माहौल में मिठास घोलते हुए अवसर को भावपूर्ण व उल्लासमय बना देती हैं और हर उम्र के व्यक्ति को प्रत्यक्ष या मन ही मन नाचने को मजबूर कर देती हैं ..
पारंपरिक रूप से ढ़ोल-दमाऊ बजाने वाले दास या औजी कहलाते हैं. औजी का अर्थ है " शिव भक्त ".
वाद्य केवल मनोरंजन के उपकरण नहीं ! इनसे उत्पन्न ध्वनियाँ जीवंत होती हैं. अत: वाद्यों को बजाने के कुछ नियम व मापनी तय हैं जिनका पालन न करने पर, वाद्य से उत्पन्न ध्वनि आवृत्तियाँ अनिष्टकारी भी साबित हो सकती है !
गोरखनाथ सम्प्रदाय की देन और ब्रज भाषा में रचित, विज्ञान भैरव से साम्यता रखता, ढ़ोल सागर, एक अद्भुत ग्रन्थ है इस ग्रन्थ को दर्शन शास्त्र का महत्वपूर्ण साहित्य माना जाता है. हालांकि ढ़ोल सागर में लगभग 36 वाद्यों का वर्णन है लेकिन गढ़वाल में देशकाल परिस्थितियों में ढ़ोल-दमाऊ-मसक बाजा-रणसिंगा, डंवर, थकुळि को सुलभता और प्रभावोत्पादकता के अनुरूप अपनाया गया, जो कालांतर में पारंपरिक वाद्य बन गए।
पुराने समय में ढ़ोल सागर में निपुण औजियों को अपने समाज में सम्मान प्राप्त होता था लेकिन अब फूहड़ संगीत की चकाचौंध में ये कला गुम हो गयी जान पड़ती है ..
प्लायन से त्रस्त उत्तराखंड में नौकरियों की तरफ उन्मुख समाज इस कला से विमुख होता जा रहा है. इस कारण केवल शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी ढ़ोल सागर की बुनियादी कला से दूर और प्रतिस्पर्धा के अभाव में .. ढ़ोल - दमाऊ, महज मंगल सूचक, प्रतीक वाद्य तक ही सीमित होकर रह गए हैं.
कहीं ऐसा न हो कि घुसपैठिये वाद्यों की ढ़म-ढ़म और छम-छम में लोक संस्कृति से जुड़े मगर कला विहीनता को झेलते हमारे पारम्परिक वाद्य दम तोड़ने लगें ! अतः इस सम्बन्ध में समाज में जागरूकता व प्रोत्साहन की आवश्यकता है यदि समाज पारंपरिक वाद्यों को पुन: अपनाकर महत्व देगा तो पारम्परिक वाद्यों के वादक भी आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण बुनियादी कला की ओर उन्मुख होने को विवश हो सकेंगे ..
राज्य सरकार भी इस सम्बन्ध लोक उत्सवों में प्रतियोगिताएँ आयोजित करके प्रतिभाशाली वादकों को प्रोत्साहित और उचित संरक्षण देकर इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। इस प्रकार विलुप्त होती ये कला, पुनः अपने पुराने वैभव प्राप्त कर सकेगी।
कला में समृद्धता स्वीकार्य है जो संस्कृति को नए आयाम देती है लेकिन फूहड़ता संस्कृति की शालीनता समाप्त करने के साथ-साथ संस्कृति को विकृत भी करती है बेशक आप मुझे पुरातनपंथी ही कहें ! संगीत व्यक्तिगत अहसास है इसलिए जरूरी नहीं कि आप मेरे आंकलन से सहमत हों ..
पिता जी अक्सर ढ़ोल सागर के सम्बन्ध में चर्चा किया करते थे साथ ही वे इस विधा में निपुण औजियों की निपुणता के रोचक किस्से भी सुनाते थे। सोचा आज इसी विषय पर चर्चा कर ली जाए।