नादिर शाही की मूक गवाह
सुनहरी मस्जिद, चांदनी चौक
अमानवीयता व निरंकुशता के विरोध पर एक नारा सुना था .. “ नादिर
शाही --- नहीं चलेगी !! नहीं चलेगी !! “. कब - क्यों और कैसे नादिर शाह
चरित्र पर ये नारा बना ?? इस चरित्र को गहराई से जानने की जिज्ञासा मुझे
चांदनी चौक के मध्य में भाई मतिदास चौक के सामने व गुरुद्वारा शीशगंज साहिब
के पास स्थित सुनहरी मस्जिद तक ले गई ! जो दिल्ली के इतिहास की सबसे
क्रूरतम अमानवीय घटना की चश्मदीद गवाह है !
13 फरवरी 1739 को बड़ी सेना
होने के बावजूद भी, बिना अधिक प्रतिरोध के, दिल्ली का मुग़ल बादशाह मुहम्मद
शाह, ईरान के बादशाह नादिर शाह से करनाल युद्ध हार गया, दोनों साथ-साथ
दिल्ली आये और मुहम्मद शाह ने दिल्ली की चाबियाँ नादिर शाह को सौंप दी..
युद्ध के कारण दिल्ली में कीमतें आसमान छूने लगी तो नादिर शाह के आदेश पर
ईरानी सैनिकों ने व्यापारियों से कीमतें कम करने को कहा, लेकिन व्यापारी
राजी न हुए..
इस माहौल में सैनिकों और व्यापारियों में तकरार होने
लगी. इसी बीच किसी ने अफवाह फैला दी कि लाल किला में नादिर शाह की महिला
अंगरक्षक ने हत्या कर दी है, इस अफवाह के बाद सैनिकों और नागरिकों में झडपें
बढ़ने लगी और नागरिकों ने नादिर शाह के सैनिक को मार डाला.
यह सुनकर
नादिर शाह गुस्से में तिलमिला उठा. 22 मार्च 1739 के दिन नादिर शाह सुबह 8
बजे अपने लाव लश्कर के साथ, चांदनी चौक के मध्य, शीशगंज गुरुद्वारा के साथ
स्थित सुनहरी मस्जिद पर आया और उसने इसी छत पर ..(जहाँ मैं खड़ा हूँ ) खड़े
होकर, वातावरण में नगाड़ों की भयानक ध्वनियों के मध्य, अपनी म्यान से तलवार
हवा में लहराते हुए अपने सैनिकों को कत्लेआम और लूटपाट करने करने का आदेश
दिया.
लगभग 7 घंटे तक वो इसी छत पर ( जहाँ मैं खड़ा हूँ) चढ़कर कत्लेआम
देखता रहा ,इस दौरान लूटमार, कत्लेआम और लोगों के घर, खंडहरों में तब्दील
होते रहे. क्रूरता के नंगे नाच को देख, मानवीयता बेबस हो शर्मशार होती रही
!! मजहब से बेपरवाह, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख या जो भी सामने आता उसका क़त्ल
कर दिया जाता !! क्रूरता की जद में 7 घंटे में लगभग बीस से तीस हजार निरीह व
निर्दोष नागरिकों को क़त्ल कर दिया गया. इस प्रकार दिल्ली के इतिहास पर सदा
के लिए बदनुमा दाग लग गया !!
अंत में युद्ध हार चुके दिल्ली के बादशाह
मुहम्मद शाह द्वारा स्वयं रहम की भीख मांगने पर, अपराह्न 3 बजे नादिर शाह
ने कत्लेआम रोकने का आदेश दिया !! और अपनी तलवार को म्यान में रखा !
साथियों, इतिहास हमें सुधार के अवसर देता है। सोचता हूँ कि आक्रान्ता या
अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति का कोई सगा नहीं होता ! उसका मानवीयता या
सही-गलत से भी कोई लेना-देना नहीं होता अत: उसका कोई मजहब नहीं होता. अपने
अति महत्वाकांक्षी व नापाक इरादे पूरे करने के लिए वह अमानवीयता की किसी भी
हद को पार कर सकता है.उसका मजहब, फरेब, दहशत फैलाना, लूटमार, अमानवीय कृत
और कत्लेआम कर येनकेन प्रकारेण हेतु साधना होता है.
जिन ईरानी सैनिकों
के दम पर नादिर शाह ने ईरान की अर्थव्यवस्था को फर्श से अर्श पर पहुंचाया
उन्हीं ईरानी सैनिकों की निष्ठा पर संदेह मात्र होने पर तुर्क व उज्बेक
सैनिकों द्वारा उनकी सामूहिक हत्या का षढयंत्र रचने वाले अति महत्वाकांक्षी
नादिर शाह का पर्दाफाश होने पर उसके ही सैन्य कमांडरों द्वारा उसकी हत्या
कर दी गई थी।
सुनहरी मस्जिद. गुरुद्वारा शीशगंज साहिब व भाई मति दास
चौक, मुग़ल और अंग्रेजों के काल में क्रूरता की हदें पार करने वाली कई
घटनाओं के चश्मदीद गवाह हैं , यह स्थान आज दिल्ली का व्यस्त कारोबारी इलाका
है.
नादिर शाही की मूक गवाह\
सुनहरी मस्जिद, चांदनी चौक
अमानवीयता व निरंकुशता के विरोध पर एक नारा सुना था .. “ नादिर
शाही --- नहीं चलेगी !! नहीं चलेगी !! “. कब - क्यों और कैसे नादिर शाह
चरित्र पर ये नारा बना ?? इस चरित्र को गहराई से जानने की जिज्ञासा मुझे
चांदनी चौक के मध्य में भाई मतिदास चौक के सामने व गुरुद्वारा शीशगंज साहिब
के पास स्थित सुनहरी मस्जिद तक ले गई ! जो दिल्ली के इतिहास की सबसे
क्रूरतम अमानवीय घटना की चश्मदीद गवाह है !
13 फरवरी 1739 को बड़ी सेना
होने के बावजूद भी, बिना अधिक प्रतिरोध के, दिल्ली का मुग़ल बादशाह मुहम्मद
शाह, ईरान के बादशाह नादिर शाह से करनाल युद्ध हार गया, दोनों साथ-साथ
दिल्ली आये और मुहम्मद शाह ने दिल्ली की चाबियाँ नादिर शाह को सौंप दी..
युद्ध के कारण दिल्ली में कीमतें आसमान छूने लगी तो नादिर शाह के आदेश पर
ईरानी सैनिकों ने व्यापारियों से कीमतें कम करने को कहा, लेकिन व्यापारी
राजी न हुए..
इस माहौल में सैनिकों और व्यापारियों में तकरार होने
लगी. इसी बीच किसी ने अफवाह फैला दी कि लाल किला में नादिर शाह की महिला
अंगरक्षक न हत्या कर दी है, इस अफवाह के बाद सैनिकों और नागरिकों में झडपें
बढ़ने लगी और नागरिकों ने नादिर शाह के सैनिक को मार डाला.
यह सुनकर
नादिर शाह गुस्से में तिलमिला उठा. 22 मार्च 1739 के दिन नादिर शाह सुबह 8
बजे अपने लाव लश्कर के साथ, चांदनी चौक के मध्य, शीशगंज गुरुद्वारा के साथ
स्थित सुनहरी मस्जिद पर आया और उसने इसी छत पर ..(जहाँ मैं खड़ा हूँ ) खड़े
होकर, वातावरण में नगाड़ों की भयानक ध्वनियों के मध्य, अपनी म्यान से तलवार
हवा में लहराते हुए अपने सैनिकों को कत्लेआम और लूटपाट करने करने का आदेश
दिया. लगभग 7 घंटे तक वो इसी छत पर ( जहाँ मैं खड़ा हूँ) चढ़कर कत्लेआम
देखता रहा ,इस दौरान लूटमार, कत्लेआम और लोगों के घर, खंडहरों में तब्दील
होते रहे. क्रूरता के नंगे नाच को देख, मानवीयता बेबस हो शर्मशार होती रही
!! मजहब से बेपरवाह, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख या जो भी सामने आता उसका क़त्ल
कर दिया जाता !! क्रूरता की जद में 7 घंटे में लगभग बीस से तीस हजार निरीह व
निर्दोष नागरिकों को क़त्ल कर दिया गया. इस प्रकार दिल्ली के इतिहास पर सदा
के लिए बदनुमा दाग लग गया !!
अंत में युद्ध हार चुके दिल्ली के बादशाह
मुहम्मद शाह द्वारा स्वयं रहम की भीख मांगने पर, अपराह्न 3 बजे नादिर शाह
ने कत्लेआम रोकने का आदेश दिया !! और अपनी तलवार को म्यान में रखा !
साथियों, इतिहास हमें सुधार के अवसर देता है। सोचता हूँ कि आक्रान्ता या
अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति का कोई सगा नहीं होता ! उसका मानवीयता या
सही-गलत से भी कोई लेना-देना नहीं होता अत: उसका कोई मजहब नहीं होता. अपने
अति महत्वाकांक्षी व नापाक इरादे पूरे करने के लिए वह अमानवीयता की किसी भी
हद को पार कर सकता है.उसका मजहब, फरेब, दहशत फैलाना, लूटमार, अमानवीय कृत
और कत्लेआम कर येनकेन प्रकारेण हेतु साधना होता है.
जिन ईरानी सैनिकों
के दम पर नादिर शाह ने ईरान की अर्थव्यवस्था को फर्श से अर्श पर पहुंचाया
उन्हीं ईरानी सैनिकों की निष्ठा पर संदेह मात्र होने पर तुर्क व उज्बेक
सैनिकों द्वारा उनकी सामूहिक हत्या का षढयंत्र रचने वाले अति महत्वाकांक्षी
नादिर शाह का पर्दाफाश होने पर उसके ही सैन्य कमांडरों द्वारा उसकी हत्या
कर दी गई थी।
सुनहरी मस्जिद. गुरुद्वारा शीशगंज साहिब व भाई मति दास
चौक, मुग़ल और अंग्रेजों के काल में क्रूरता की हदें पार करने वाली कई
घटनाओं के चश्मदीद गवाह हैं , यह स्थान आज दिल्ली का व्यस्त कारोबारी इलाका
है.