परकोटे पर बैठा सुस्ता रहा था तभी कुछ याद आया ! कहा जाता है कि निजाम भिश्ती के सम्मुख, वचनबद्ध बादशाह हुमायूँ की स्थिति भी कुछ-कुछ इस उक्ति के भावानुरूप ही हो गयी थी...
वचनबद्ध हुमायूँ,और उसकी प्रजा ढाई दिन के लिए ही सही ! मगर भिश्ती की " अकल " झेलने को मजबूर थे ! क्योंकि ! भिश्ती ने संकट के समय हुमायूँ की जान बचायी थी !!
हुमायूँ शरीर मृत्यु भय से निजात पाकर भिश्ती के सम्मुख कृतज्ञतावश किंकर्तव्यविमूढ़ था और आम जनता भिश्ती के हुकुम झेलने को मजबूर ! लेकिन शायद आज तेज रफ़्तार जिंदगी में मनुष्य को शरीर मृत्यु भय की अपेक्षा, हर पल महत्वाकांक्षाओं का मृत्यु भय अधिक सताता है !! हर महत्वाकांक्षा को फलित रूप में देखना उसके लिए जीवन- मृत्यु अनुभूति सदृश है !! इसलिए आज महत्वाकांक्षाओं को फलित करने में सहयोगी व्यक्ति के प्रति व्यक्ति की कृतज्ञतावश मजबूरी क्या कुछ नहीं कर सकती !! इतिहास के इस प्रसंग से बखूबी समझा जा सकता है, साथ ही समसामयिक विचारणीय पहलु भी है...
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